दयानिधि

एक नए शोध में लक्ष्य से बाहर के परिदृश्यों के तहत साल 2500 तक ग्लेशियरों में बदलाव का पहला वैश्विक सिमुलेशन किया गया है। इसमें कहा गया है कि यदि ग्रह अस्थायी रूप से 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को तीन डिग्री सेल्सियस तक पार कर जाता है और फिर वापस ठंडा हो जाने पर भी पहले जैसी स्थिति नहीं बनेगी। यह शोध ब्रिटेन के ब्रिस्टल विश्वविद्यालय और ऑस्ट्रिया के इंसब्रुक विश्वविद्यालय की अगुवाई में किया गया है।

नेचर क्लाइमेट चेंज में 19 मई, 2025 को प्रकाशित शोध से पता चलता है कि ऐसी स्थिति में ग्लेशियरों का द्रव्यमान 16 फीसदी तक अधिक घट सकता है। शोध पत्र में शोधकर्ता के हवाले से कहा गया है कि वर्तमान जलवायु नीतियां पृथ्वी को तीन डिग्री सेल्सियस के करीब ले जा रही हैं। यह स्पष्ट है कि ऐसी दुनिया ग्लेशियरों के लिए 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा वाली दुनिया से कहीं अधिक बुरी है।

शोध का उद्देश्य यह पता लगाना था कि यदि ग्रह फिर से ठंडा हो जाए तो क्या ग्लेशियर फिर से बन सकते हैं। यह एक ऐसा सवाल है जो कई लोग पूछते हैं, क्या ग्लेशियर हमारे जीवनकाल में या हमारे बच्चों के जीवनकाल में फिर से बनेंगे? शोध के निष्कर्षों से पता चलता है कि दुर्भाग्य से ऐसा नहीं होने वाला है।

दुनिया भर में तापमान में वृद्धि के लिए एक दशक पहले अपनाई गई पेरिस समझौते की सीमाओं का अब पार करने का बड़ा अंदेशा है। उदाहरण के लिए, पिछला साल पृथ्वी पर अब तक का सबसे गर्म साल था और 1.5 डिग्री सेल्सियस के निशान को पार करने वाला पहला कैलेंडर वर्ष था।

जलवायु वैज्ञानिकों ने भविष्य में ग्लेशियर के विकास का आकलन एक मजबूत लक्ष्य से बाहर या ओवरशूट परिदृश्य के तहत किया है, जिसमें वैश्विक तापमान 2150 तक 3.0 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ना जारी रहेगा, 2300 तक 1.5 डिग्री सेल्सियस तक गिरकर स्थिर हो जाएगा। यह परिदृश्य नेट-जीरो भविष्य को दर्शाता है, जिसमें कार्बन कैप्चर जैसी अनचाही उत्सर्जन तकनीकें केवल बढ़ते तापमान की सीमा के पार होने के बाद ही तैनात की जाती हैं।

शोध के परिणामों से पता चलता है कि ग्लेशियरों का प्रदर्शन उस दुनिया की तुलना में बहुत खराब होगा, जहां तापमान की सीमा पार हुए बिना 1.5 डिग्री सेल्सियस पर स्थिर हो जाता है। जिसमें 2200 तक ग्लेशियर द्रव्यमान का अतिरिक्त 16 फीसदी और 2500 तक 11 फीसदी से अधिक गायब हो जाएगा। अतिरिक्त पिघला हुआ पानी आखिरकार समुद्र तक पहुंच जाएगा, जिससे समुद्र के स्तर में और भी अधिक बढ़ोतरी होगी।

शोध पत्र में शोधकर्ता के हवाले से कहा गया है कि मॉडल दिखाते हैं कि बड़े ध्रुवीय ग्लेशियरों को तीन डिग्री सेल्सियस के तापमान से उबरने में कई शताब्दियां लग जाएंगी। आल्प्स, हिमालय और उष्णकटिबंधीय एंडीज जैसे छोटे ग्लेशियर अगली पीढ़ियों तक पहले जैसे नहीं हो पाएंगे, लेकिन 2500 तक ऐसे होने का पूर्वानुमान लगाया गया है। इन पर्वतीय क्षेत्रों में ग्लेशियर का पिघला हुआ पानी नीचे की ओर रहने वाले लोगों के लिए बहुत जरूरी है, खासकर शुष्क मौसम के दौरान। जब ग्लेशियर पिघलते हैं, तो वे अस्थायी रूप से अधिक पानी छोड़ते हैं, एक ऐसी घटना जिसे ग्लेशियर ‘पीक वॉटर’ के रूप में जाना जाता है।

शोध पत्र में कहा गया है कि यदि ग्लेशियरों का फिर से विकास होता है, तो वे फिर से बर्फ के रूप में पानी जमा करना शुरू कर देते हैं और इसका मतलब है कि नीचे की ओर पानी कम बहेगा। इस प्रभाव को ‘ट्रफ जल’ कहते हैं, जो कि चरम जल के विपरीत है।

शोध में जिन बेसिनों का अध्ययन किया गया है, उनमें से लगभग आधे में 2100 के बाद किसी न किसी रूप में ट्रफ जल का अनुभव होगा। यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि इसका कितना प्रभाव पड़ेगा, लेकिन अध्ययन ग्लेशियर से संबंधित जल प्रणालियों और समुद्र-स्तर में वृद्धि के लिए तापमान की सीमा के पार होने के कई और जटिल परिणामों को समझने की दिशा में पहला कदम है। शोध पत्र में शोधकर्ता के हवाले से कहा गया है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान, चाहे अस्थायी रूप से ही क्यों न हो इसके कारण सदियों तक ग्लेशियरों के नष्ट होने के आसार बने रहते हैं।

अध्ययन से पता चलता है कि इस नुकसान को आसानी से ठीक नहीं किया जा सकता है, भले ही तापमान बाद में सुरक्षित स्तरों पर वापस ही क्यों न आ जाए। हम उत्सर्जन में कटौती में जितनी देर करेंगे, भविष्य की पीढ़ियों पर उतना ही अधिक बोझ डालेंगे, जिसे बदला नहीं जा सकता है।

       (‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )

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