धर्मेन्द्र आज़ाद

यह कहानी है एक ऐसे व्यक्ति की, जिसने अपने वैज्ञानिक सोच से न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया को हैरान कर दिया। नाम है – चंद्रशेखर वेंकट रमन। समय था 1900 के आसपास का। भारत तब अंग्रेज़ों की गुलामी में था, और समाज में हर ओर अंधविश्वास का माहौल फैला हुआ था। लोगों के लिए बारिश, सूखा, बीमारी, और यहाँ तक कि बच्चों का पैदा होना तक किसी न किसी दैवी शक्ति का आशीर्वाद या श्राप माना जाता था। गाँव-देहातों में लोग जब बीमार होते, तो डॉक्टर की बजाय ओझा-गुनी के पास जाते। यही था उस समय का समाज।

चंद्रशेखर वेंकट रमन का जन्म 7 नवंबर 1888 को तमिलनाडु के एक छोटे-से गाँव तिरुचिरापल्ली में हुआ। उनके पिता एक साधारण शिक्षक थे, जो विज्ञान और गणित में रुचि रखते थे। पिता से ही रमन को शुरुआती दिनों में विज्ञान के प्रति लगाव मिला। घर का माहौल भले ही पढ़ाई-लिखाई वाला था, लेकिन समाज में वैज्ञानिक सोच की भारी कमी थी।

उस समय भारत में विज्ञान और अनुसंधान का माहौल लगभग न के बराबर था। अंग्रेज़ों के शासन के चलते भारतीय वैज्ञानिकों को रिसर्च के लिए कोई खास मदद नहीं मिलती थी। रमन का भी संघर्ष यहीं से शुरू हुआ। बचपन में उन्होंने जब अपने गाँव में लोगों को अंधविश्वास में जकड़ा हुआ देखा, तो उनके मन में सवाल उठने लगे। रमन का मन किताबों में तो लगता ही था, लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा पसंद था अपने चारों ओर की दुनिया को करीब से देखना और उसके रहस्यों को समझना।

रमन पढ़ाई में अव्वल थे, और 16 साल की उम्र में उन्होंने बीए की डिग्री हासिल कर ली। आगे चलकर उन्होंने भौतिकी (फिजिक्स) में मास्टर की डिग्री भी ली। लेकिन पढ़ाई का यह सफर आसान नहीं था। उस दौर में एक भारतीय के लिए विज्ञान में पढ़ाई और अनुसंधान करना काफी मुश्किल था। संसाधनों की कमी थी, अंग्रेजी सरकार का सहयोग नहीं मिलता था, और समाज में भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कमी थी। लोग सवाल पूछने पर अक्सर रमन का मजाक उड़ाते थे, कहते थे कि “ये तो भगवान के काम हैं, इन्हें इंसान क्या समझेगा!”

रमन का सफर यहीं खत्म नहीं हुआ। 1917 में, उन्होंने कोलकाता में इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्टिवेशन ऑफ साइंस (IACS) में बतौर प्रोफेसर काम शुरू किया। उनकी जिज्ञासा हमेशा नए सवालों की ओर दौड़ती थी। एक बार वो यूरोप की यात्रा कर रहे थे और समुद्र का नीला रंग देखकर अचंभित रह गए। जहाँ आम लोग इसे ‘भगवान की लीला’ मानकर बैठ जाते, रमन ने सोचा कि इसका कोई वैज्ञानिक कारण होगा। उन्होंने इस विषय पर दो साल तक गहन अध्ययन किया।

अंग्रेजों के शासन के चलते रिसर्च के संसाधनों की भारी कमी थी। रमन को विदेशों से महंगे उपकरण मंगवाना मुश्किल था। उन्होंने अपनी रचनात्मकता का उपयोग करते हुए सस्ते और स्थानीय उपकरणों से ही अपने प्रयोग किए। आखिरकार, 28 फरवरी 1928 को उन्होंने दुनिया के सामने ‘रमन प्रभाव’ की खोज पेश की। रमन ने सिद्ध किया कि जब प्रकाश किसी पारदर्शी माध्यम (जैसे काँच या पानी) से गुजरता है, तो उसकी दिशा और तरंग-लंबाई में बदलाव आता है। उनकी यह खोज न केवल समुद्र के नीले रंग का रहस्य सुलझाती थी, बल्कि प्रकाश और पदार्थ के संबंधों को भी नए सिरे से परिभाषित करती थी।

रमन का यह सफर आसान नहीं था। भारतीय वैज्ञानिकों को उस समय अंग्रेजों के सामने खुद को साबित करना कठिन था। लेकिन रमन के वैज्ञानिक दृष्टिकोण और जिज्ञासा ने उन्हें आगे बढ़ने की ताकत दी। उनकी खोज ने दुनिया में तहलका मचा दिया और 1930 में उन्हें भौतिकी के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह किसी भारतीय का विज्ञान में पहला नोबेल पुरस्कार था।

इस कहानी में सबसे खास बात यह थी कि रमन ने एक ऐसे समय में अपनी खोज की, जब भारत गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था और समाज अंधविश्वास के जाल में फँसा था। रमन ने हमें दिखाया कि यदि हमारे पास वैज्ञानिक दृष्टिकोण हो, जिज्ञासा हो और कठिन से कठिन हालात में भी सवाल पूछने की हिम्मत हो, तो हम बड़ी से बड़ी चुनौतियों का सामना कर सकते हैं।

उनकी यह खोज केवल एक वैज्ञानिक की सफलता नहीं थी, बल्कि यह संदेश थी कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने से अंधविश्वास और अज्ञानता को हराया जा सकता है। आज, 28 फरवरी को पूरे भारत में ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’ के रूप में मनाया जाता है, ताकि हम यह याद रख सकें कि चमत्कार भगवान के भरोसे नहीं होते, बल्कि विज्ञान के प्रति हमारी समझ और प्रयासों से होते हैं।

Spread the information