– सुभाष गाताडे
किसी दिन अगर आप को अपनी संतान के स्कूल से यह संदेश मिले तो आप क्या कहेंगे, जिसमें यह लिखा हो कि ‘ईश्वर, खुदा, नियंता, ‘पवित्र ग्रंथ’ आदि बातें आइंदा कक्षा में मना है ! क्या आप इस बात से सहमत होंगे या अपनी असहमति को प्रगट करने धड़ल्ले से स्कूल पहुंचेंगे ?
अमेरिका के प्राथमिक स्कूल की एक अध्यापिका ने ऐसे ही किया।
‘‘खुदा, ईसा मसीह और शैतान जैसे लब्ज कक्षा के बाहर ही रख दें’’।
पहली कक्षा के छात्रों के स्कूल के पहले ही दिन स्कूल अध्यापक द्वारा भेजे इस संदेश ने माता-पिताओं के एक हिस्से में जबरदस्त बेचैनी पैदा की थी। अपना प्रस्ताव रखने के पीछे अध्यापिका का एक सरल तर्क था। वह एक पब्लिक स्कूल की अध्यापक थी, जिसमें अलग अलग मजहबों और आस्थाओं से जुड़े बच्चे पढ़ने आते थे, और वह नहीं चाहती थीं कि ‘‘कोई बच्चा/बच्ची/माता-पिता इन लब्जों को सुन कर ही परेशान हो जाएं।’’ मुमकिन है उनके मुल्क में धर्म विशेष को लेकर या संप्रदाय विशेष को लेकर जो एकांगी किस्म की बातें फैलाई जा रही थी, समुदाय विशेष लांछन एक सहजबोध बन चुका था, वह चिंता भी उसके दिमाग में व्याप्त रही हो।
माता-पिताओं को भेजे अपने ख़त में उसने उन्हें यह भी सलाह दी थी कि आप जब चर्च/मंदिर/सिनेगॉग/मस्जिद – जहां पर भी जाते हों – जाएं तो उस दौरान अपनी संतान से इस मसले पर फुरसत से बात करें या मुफीद वक्त़ पर घर पर ही इस मसले पर चर्चा करें।’ बहरहाल, इसके बजाय कि यह बहस इस मसले पर केन्द्रित होती कि किस तरह ईश्वर की अवधारणा रफ़्ता रफ़्ता बाल मन पर आरोपित होती जाती है या किस तरह इस बहाने उसकी चिंतन प्रक्रिया को एक हद तक हम खुद कुंद करते जाते हैं , उल्टे मसला यह बना कि अध्यापक का यह सुझाव किस तरह ‘बच्चों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ पर आघात है। माता पिताओं के दबाव के मददेनज़र स्कूल प्रबंधन के लिए बहुत वक्त़ नहीं लगा कि वह इस प्रस्ताव को वापस ले लें। गौर कर सकते हैं कि अपने सरोकारों के केन्द्र में बच्चों का कल्याण रखने वाले किसी भी शिक्षक को झेलने पड़ती इस उलझन में अनोखा कुछ भी नहीं है।
आप दक्षिण एशिया के इस हिस्से के स्कूलों में विज्ञान पढ़ा रहे किसी शिक्षक से बात कीजिए – भले ही वह निजी जीवन में आस्तिक हो मगर किसी दक्षिणपंथी जमात का हिमायती न हो, जो धर्म एवं समाजजीवन/राजनीति के घोल का प्रचार प्रसार करने में आमादा रहते हैं – और आप पाएंगे कि विज्ञान की आम बातें समझाने में उन्हें कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। मिसाल के तौर पर, तमाम वैज्ञानिक तरक्की के बावजूद ग्रहण को लेकर आज भी अंधविश्वास कायम हैं, मध्यमवर्गीय परिवारों में भी इस पर बातें होती है, और ऐसे परिवार के बच्चे के लिए ग्रहण के पीछे के वैज्ञानिक तर्क को समझने में दिक्कतें झलनी पड़ती हैं ।
अग्रणी ब्रिटिश अख़बार ‘द गार्डियन’ ने एक अलग अन्दाज़ में ऐसी ही एक स्टोरी को सांझा किया था
जिसमें अख़बार ने एक विज्ञान शिक्षक को कक्षा के अन्दर झेलने पड़ती दुविधा/कशमकश पर बात की थी। अध्यापक ने ‘‘उस चिन्ताजनक/उलझन भरी स्थिति को बयां किया था जब आप ऐसी बातें पढ़ा रहे होते हैं जो कुछ छात्रों के धार्मिक विश्वासों से बिल्कुल विपरीत होती हैं’’ या आप ‘‘ऐसे छात्रों से मिलते हैं … जिन्हें बचपन से इस बात पर विश्वास करना सीखाया गया होता है कि उनके विशिष्ट धर्म की पवित्र किताब में जीवन और ब्रह्मांड की उत्पत्ति के बारे में बिल्कुल सत्य बयां किया गया है।’’ अपनी निष्कर्षात्मक टिप्पणियों में अध्यापक ने इस बात पर जोर दिया था कि अगर उचित विज्ञान शिक्षा प्रदान की जाए तो वह इन किशोरियों/किशोरों को ऐसी समझदारी से लैस करेंगे कि किस बात पर विश्वास किया जाए और किस पर न किया जाए, इसके बारे में वह अपने निर्णयों तक खुद पहुंच सकते हैं।
उदाहरण के लिए ‘द गॉड डिल्युजन’ नामक चर्चित किताब के लेखक रिचर्ड डॉकिन्स अपनी एक अन्य किताब ‘द ग्रेटेस्ट शो ऑन अर्थ: द इविडन्स फॉर इवोल्यूशन’ में अक्तूबर 2008 में 60 अध्यापकों के साथ चली बातचीत का हवाला देते हुए बताते हैं कि किस तरह एक अध्यापक ने बताया कि उनके छात्रा बाकायदा रोने लगे जब उन्हें बताया गया कि उन्हें इवोल्यूशन/क्रम विकास/उत्क्रांति पढ़ाया जाएगा। दूसरे अध्यापक ने बताया कि किस तरह विद्यार्थी ‘नहीं’ ‘नहीं’ करके चिल्लाने लगे जब उन्होंने इसके बारे में चर्चा शुरू की।..एक अन्य अध्यापक ने बताया कि किस तरह चर्च के लोग विद्यार्थियों को विशेष प्रश्न पूछने के लिए कहते हैं ताकि उत्क्रांति पर चल रही मेरी कक्षा को नाकाम किया जा सके।
अलग अलग पृष्ठभूमियाँ, अलग अलग अनुभव।
कहने के लिए यह चंद अनुभव हो सकते हैं, लेकिन इन अनुभवों के माध्यम से स्कूल की स्थिति के बारे में या धर्मनिरपेक्ष शिक्षा की चुनौतियों की बात की जा सकती है और यहभी जान सकते हैं कि महज शिक्षकविशेष तक बातें सीमित नहीं होती, राज्य की नीतियां भी उसके व्यवहार को लगातार प्रभावित करती हैं, बच्चों को क्या पढ़ाया जाए न पढ़ाया जाए इसके बारे में उसके आग्रहों से, सुझावों से प्रभावित होती हैं और इस बात से भी प्रभावित होती हैं कि स्कूल जिस समाज में बसा है, उस समाज की अपनी मानसिक-सांस्कृतिक -सामाजिक स्थिति क्या है, क्या वहां राजनीति से धर्म के अलगाव को लेकर, धर्म को किसी व्यक्तिविशेष के निजी मामले तक सीमित रखने और समाजजीवन में या राज्य के संचालन में उससे दूरी रखने के बारे में एक आम सहमति बनी है ? या क्या वह समाज इस कदर धार्मिकता में लिप्त है कि ‘पवित्रा धर्मग्रंथ’ से इतर लिखी अन्य बातें उसे बिल्कुल गंवारा नहीं ।
संयुक्त राज्य अमेरिका – दुनिया का सबसे ताकतवर जनतंत्र, जहां दुनिया के तमाम अच्छे अच्छेे विज्ञान के इन्स्टिटयूटस है, विज्ञान में आगे रिसर्च करने में इच्छुक युवाआं का अच्छा खासा हिस्सा वहां पहुंचने की हसरत रखता है – इसकी एक अलग मिसाल पेश करता है, फिलवक्त़ हम उससे सम्बधित पाठयक्रम के एक छोटे से ही पहलू की चर्चा करके आगे बढ़ना चाहेंगे, लेकिन वह भी बहुत कुछ कहता है।
पृथ्वी पर जीव की निर्मिति ?
आदिम समय से मनुष्य को चंद सवाल परेशान करते रहे हैं । मसलन, समूचा ब्रहमांड किस तरह अस्तित्व में आया ?
इस पृथ्वी पर जीव कैसे निर्मित हुआ ? क्या वह सभी स्थानों पर निर्मित हुआ या किसी एक स्थान से शेष भाग में फैल गया ? निश्चित तौर पर पहले ऐसे सवालों के जवाब पहले मिलना मुश्किल था, तो ऐसे समय में आदिम मानवी ने या मनुष्य ने अपने हिसाब से इसे समझा और बयान किया।
मिसाल के तौर पर अपनी आखरी किताब ‘ब्रीफ आनर्न्स टू द बिग क्वश्चन्स’ में महान भौतिकविद स्टीफन हॉकिंग मध्य अफ्रीका की बोशोंगो ( Boshongo) जनजाति का जिक्र करते हैं। इस जनजाति में यह मान्यता है कि………..
”.सबसे पहले सिर्फ अंधेरा, पानी और महान खुदा बुम्बा था। एक दिन पेट दर्द से जबरदस्त कराहते हुए बुम्बा ने उलटी की और सूर्य को उगल दिया। सूर्य ने अपनी आग से कुछ पानी का सूखा दिया, और जमीन बच गयी। अभी भी दर्द झेल रहे बुम्बा ने फिर उलटी की और इस बार चंद्रमा,तारे और कुछ जानवरों – चीता, घड़ियाल, खरगोश और अंततः मनुष्य को उगला। “
‘आज के समय में सभी देशों और लोगों के लिए विज्ञान को प्रयोग में लाना अनिवार्य और अपरिहार्य है. लेकिन एक चीज विज्ञान के प्रयोग में लाने से भी ज्यादा जरूरी है और वह है वैज्ञानिक विधि जो कि साहसिक है लेकिन बेहद जरूरी भी है और जिससे वैज्ञानिक दृद्रष्टिकोण पनपता है यानी सत्य की खोज और नया ज्ञान, बिना जांचे-परखे किसी भी चीज को न मानने की हिम्मत, नए प्रमाणों के आधार पर पुराने नतीजों में बदलाव करने की क्षमता, पहले से सोच लिए गए सिद्धांत की बजाय, प्रेक्षित तथ्यों पर भरोसा करना, मस्तिष्क को एक अनुशासित दिशा में मोड़ना- यह सब नितांत आवश्यक है. केवल इसलिए नहीं कि इससे विज्ञान का इस्तेमाल होने लगेगा, लेकिन स्वयं जीवन के लिए और इसकी बेशुमार उलझनों को सुलझाने के लिए भी…..वैज्ञानिक द्र्रष्टिकोण मानव को वह मार्ग दिखाता है, जिस पर उसे अपनी जीवन-यात्रा करनी चाहिए. यह दृद्रष्टिकोण एक ऐसे व्यक्ति के लिए है, जो बंधन-मुक्त है, स्वतंत्र है.’
जैसे जैसे हम देख रहे हैं कि रफ़्ता रफ़्ता रफता धार्मिक शिक्षा के लिए रास्ता सुगम किया जा रहा है, हमें यह भी याद रखना चाहिए और हमें सत्ताधारियों को ही नहीं आम जनता को भी बताना चाहिए कि संविधान की एक अहम धारा है जो नागरिकों के बुनियादी कर्तव्यों की बात करती है, जिसमें ‘‘वैज्ञानिक चिंतन, मानवता और जांच पड़ताल की भावना और सुधार’’ की बात शामिल है। धारा 51 ए बुनियादी कर्तव्यों के बारे में)। कहने का तात्पर्य यह कि जैसे जैसे धार्मिक शिक्षा आम होती जाएगी, वह वैज्ञानिक चिंतन के विकास को बाधित करेगी। शायद उन्हें यह भी बताना होगा कि धार्मिक चेतना और वैज्ञानिक चेतना समानान्तर धाराएं हैं और आपस में नहीं मिलतीं।
– सुभाष गाताडे
प्रमुख लेखक, एवं न्यू सोशलिस्ट इनिसिएटिव से संबद्ध वाम एक्टिविस्ट हैं।
उनके संधान ब्लॉग से साभार