बाजारवाद, लूट एवं मुनाफा आधारित विकास के मौजूदा माडल से उत्पन्न सामाजिक आर्थिक राजनीतिक विसंगतियों एवं विकृतियों ने परम्परागत ज्ञान ( Indigenous knowledge) के महत्व को एक बार फिर रेखांकित किया है। कोविड-19 महामारी ने आग में घी डालने का काम किया है। इसके कारण दुनिया भर में, बड़ी संख्या में लोगों का संक्रमित हो, असमय मौत के मुंह में समा जाना न सिर्फ त्रासद है बल्कि यह हमारी सोच, खान-पान एवं जीवन शैली पर भी सवाल खड़े करता है।ऐसे में जरूरी है कि हम मौजूदा हालात पर गंभीरता से चिंतन मनन करें, प्रकृति एवं प्राकृतिक जीवन की ओर वापस लौटें।
परम्परागत ज्ञान इसमें सहायक होगा। इसके साथ ही जरूरी है परम्परागत ज्ञान एवं आधुनिक विज्ञान के बीच बेहतर तालमेल एवं समन्वय। ताकि रूढ़ परम्पराओं एवं मूढ़ मान्यताओं से खुद को बचाते हुए हम बेहतर एवं सुरक्षित भविष्य की ओर आगे बढ़ सकें। साथ ही एक संविधान सम्मत, समतामूलक, लोकतांत्रिक, विविधतापूर्ण, तर्कशील, धर्मनिरपेक्ष, विज्ञान सम्मत, आत्मविश्वासी, आत्मनिर्भर, आधुनिक एवं अपने सपनों के भारत का निर्माण कर सकें।
इसी सोच को साकार करने के लिए झारखंड के कुछ संगठनों ने राजधानी रांची में पारंपरिक ज्ञान पर तीन दिवसीय प्रशिक्षण कार्यशाला का आयोजन किया।
पारंपरिक ज्ञान पर तीन दिवसीय प्रशिक्षण कार्यशाला का आयोजन 4, 5 एवं 6 अगस्त 2021 को रांची स्थित एच आर डी सी हाल में संपन्न हुआ। कार्यशाला का आयोजन विमेन एंड जेंडर रिसोर्स सेंटर एवं आदिवासी विमेंस नेटवर्क झारखंड ने किया था। कार्यशाला का उद्देश्य युवा पीढ़ी को झारखंड की समृद्ध पारंपरिक ज्ञान से अवगत कराना था। ताकि बेहतर भविष्य के लिए वे इसका संरक्षण एवं संवर्धन कर सकें।
4 अगस्त को उद्घाटन/ स्वागत की औपचारिकताओं के बाद पहला सत्र शुरू हुआ। पहले सत्र का विषय था- ” पारंपरिक ज्ञान की समझ और झारखंड के परिप्रेक्ष्य में उसका महत्व। ”
स्वभावत: इस सत्र में रिसोर्स पर्सन ने प्रतिभागियों को झारखंड के परिप्रेक्ष्य में पारंपरिक ज्ञान की समझ एवं उसके महत्व को रेखांकित किया। उसी दिन के दूसरे सत्र का विषय था- ” लुप्त होते पारंपरिक ज्ञान का जीवन शैली पर प्रभाव एवं उसकी रक्षा की आवश्यकता। “
प्रशिक्षण कार्यशाला के दूसरे दिन यानी 5 अगस्त के पहले सत्र का विषय था- ” पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक विज्ञान में परस्पर संबंध। ” जबकि दूसरा सत्र पारंपरिक कृषि पद्धतियों के महत्व पर आधारित था । उसी दिन तीसरे सत्र का विषय था- पारंपरिक खाद्य पदार्थों और संसाधनों का महत्व। कार्यशाला के तीसरे एवं अंतिम दिन यानी 6 अगस्त को दो सत्र निर्धारित थे। दोनों सत्र पारंपरिक औषधियों और उनके उपयोग की जानकारी पर आधारित थे। झारखंड के सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों से लगभग 30 प्रतिभागियों ने इसमें भाग लिया एवं पारंपरिक ज्ञान के विभिन्न पहलुओं से अपने आप को समृद्ध किया।
कार्यशाला के दूसरे दिन का पहला सत्र विज्ञान केंद्रित था। विषय था ” पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक विज्ञान में परस्पर संबंध ।” कार्यशाला में इस विषय पर काफी अच्छी चर्चा हुई। चर्चा के दौरान परम्परा एवं विज्ञान के स्वरूप तथा उसकी भूमिका को रेखांकित करते हुए कहा गया कि दोनों का विकास अनुभवों से होता है जिसे नई पीढ़ी आगे बढ़ाती है। पर परम्परा के साथ धीरे धीरे अंधश्रद्धा एवं अंधविश्वास का जुड़ाव गहरा होता जाता है। आमतौर पर वहां सवाल खड़ा करना, असहमति, मतभिन्नता अथवा विरोध दर्ज कराना अच्छा नहीं माना जाता। वहीं विज्ञान का यह स्वाभाविक गुण है। वह महज भावनाओं, इच्छा अनिच्छा के आधार पर नहीं, तथ्यों, सबूतों और तर्कों के आधार पर कदम दर कदम आगे बढ़ता है। पर अपने किसी भी स्टेज को अंतिम सत्य मानकर बैठ नहीं जाता बल्कि फिर सवाल खड़े करता है तथा खोजता हुआ सतत आगे बढ़ता जाता है।
परम्परा की कुछ चीजें समय के साथ तालमेल बिठाने हुए आगे बढ़ती हैं। स्वभावत : बदलते दौर के साथ भी वह अपनी प्रासंगिकता बनाए रखती है। पर कई बार अतीत के मोह में हम जीर्ण शीर्ण, आउटडेटेड रूढ़ परम्पराओं एवं मूढ़ मान्यताओं से चिपके हुए रहते हैं। उससे बाहर निकलना नहीं चाहते। नतीजतन वैसी परम्पराएं हमारे गले की फांस अथवा पैरों की बेड़ियां बन जाती हैं।
वस्तुस्थिति को समझने हुए ही भारतीय संविधान ने इस महत्वपूर्ण मुद्दे को नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों में शामिल किया।
भारतीय संविधान की धारा 51 – क में कहा गया है – ” हर भारतीय नागरिक का यह मौलिक कर्तव्य है कि वह वैज्ञानिक मानसिकता, मानवतावाद, सुधार एवं खोज भावना विकसित करे। ” सुधार एवं खोज भावना ” शब्द खुद ही बहुत कुछ कह जाता है। विज्ञान सतत खोजी होता है। नए राह का अन्वेषी। इसलिए विज्ञान विधि के जरिए सत्य तक पहुंचने की संभावना अन्य किसी भी विधि के मुकाबले कहीं अधिक बेहतर होती है।
विज्ञान की नकारात्मक भूमिका
कई खूबियों के बावजूद आधुनिक विज्ञान कमजोरियों, बुराइयों से मुक्त नहीं है। अत्याधुनिक विनाशकारी हथियारों का निर्माण एवं ताकतवर शक्तियों द्वारा अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए उसका प्रयोग बेहद घातक है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान के हिरोशिमा और नागासाकी में जो कुछ हुआ वह न केवल अमानवीय कृत्य है बल्कि मानवता के खिलाफ अपराध भी है। आधुनिक विज्ञान ने काफी प्रगति की है। इंसान ने चांद पर जाने की बात कौन कहे, उसने मंगल एवं शुक्र मिशन को काफी आगे बढ़ाया है। सूर्य मिशन भी अब उसका हिस्सा है। तकनीकी प्रगति ने 21 वीं सदी के चेहरे को पूरी तरह बदल कर रख दिया है।लेकिन यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि विज्ञान तकनीकी की मौजूदा प्रगति के दौर में भी दुनिया की दौलत, ताकत लगातार मुट्ठी भर लोगों के हाथों में सिमटती जा रही है। अमीरी गरीबी की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है।
खुद भारत की करीब एक तिहाई आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर कर रही है। आधी से अधिक आबादी न्यूनतम स्वास्थ्य सुविधाओं से भी वंचित हैं। अशिक्षा, कुपोषण, बीमारी, गरीबी, भुखमरी, बदहाली एवं अंधविश्वास अब भी यहां की बड़ी समस्या है। औद्योगिकीकरण, बाजारीकरण के मौजूदा दौर ने लोगों को न सिर्फ असुरक्षित भागमभाग की जिंदगी दी है बल्कि कई बीमारियों की सौगात भी दी है। अपनी जड़ों यानी परम्पराओं, पारंपरिक श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों को छोड़ना आदमी को भारी पड़ने लगा है।कोरोना संक्रमण या कहें कि कोशिश – 19 महामारी हमारी इसी लालची, उपभोक्तावादी प्रवृत्ति की देन है। प्रकृति से निरंतर दूरी तथा प्रकृति एवं पर्यावरण के विनाश ने हालात को बद से बदतर बना दिया है।
प्रकृति को बचाएं, प्राकृतिक जीवन शैली अपनाएं
इसका समाधान यही है कि हम प्रकृति की ओर वापस लौटें। प्रकृति एवं पर्यावरण को बचाएं। पारंपरिक ज्ञान का संरक्षण एवं संवर्धन करें। पर लकीर के फकीर नहीं बनें। पारंपरिक ज्ञान एवं आधुनिक विज्ञान के बीच बेहतर तालमेल एवं समन्वय जरूरी है। अपने आजमाए हुए श्रेष्ठ पारंपरिक ज्ञान एवं मानवीय मूल्यों को तथ्यपरक, तर्कसंगत ढंग से आगे बढ़ाएं तथा संविधान सम्मत समतामूलक, विविधतापूर्ण, तर्कशील, धर्मनिरपेक्ष, अंधविश्वास मुक्त विज्ञान सम्मत समाज, देश और दुनिया बनाएं।
डी एन एस आनंद
(महासचिव साइंस फार सोसायटी झारखंड)