डब्लूएचओ के अनुसार ब्रिटेन में पाया जाने वाला ‘अल्फा’ स्ट्रेन, दक्षिण अफ्रीका में ‘बीटा’, ब्राज़ील में ‘गामा’ के मुकाबले भारत में पाये जाने वाले ‘डेल्टा’ वैरिएंट 60% अधिक संक्रामक है ! कॉरोना का यह ‘डेल्टा’ वैरिएंट अधिक गंभीर रूप से बीमार करता है.
वायरस की प्रकृति होती है रूपांतरण (mutate) करने की. भारत में दूसरी विस्फोटक लहर के लिए जिम्मेवार SARS Cov 2 का B.1.617 ‘डबल म्यूटेंट’ इण्डियन वैरिएंट जिसे WHO ने जिसे ‘वैरिएंट ऑफ कन्सर्न’ ‘डेल्टा वैरिएंट’ का नाम दिया है. यह दुनिया के 44 देशों में पाया गया है.” ‘डेल्टा’ स्ट्रेन भारत सहित ब्रिटेन और अमेरिका के लिए भी खतरा है !
WHO ने कोविड 19 की दूसरी लहर के दरम्यान केसेस और मौतों में बेतहाशा वृद्धि (Exponential growth) के लिए तीन फैक्टर्स को जिम्मेदार बताया हैं…….
1. कॉरोनावायरस की ‘डेल्टा वैरियंट’ का उदय.
2. ‘सुपर-स्प्रेडर’ इवेंट जैसे विस्तारित राजनीतिक और धार्मिक समागम की एक लंबी शृंखल
3. कोविड की सावधानियों में ढिलाई या त्याग.
दूसरी लहर को रोक पाना मुमकिन था. न्यूजीलैंड, चीन, विएतनाम, थाईलैंड ने वैक्सीन आने के पहले ही इसे रोक दिया. कोविड 19 केसेस की लपटें जंगल में जगह जगह उठती रहीं, और उसे समय रहते रोका नहीं गया. लम्बे खिंचते विधान सभाओं के चुनाव, पंचायत चुनाव और कुंभ मेला के बीच ‘डेल्टा वैरिएंट’ ने इसे तेजी से पूरे जंगल (देश) में फैलने में मदद किया.
कोविड 19 : तीसरी लहर की रोकथाम के तीन उपाय हैं………….
1. देशव्यापी Integrated Disease Surveillance Programme (IDSP) यानि (एकीकृत रोग निगरानी कार्यक्रम) को दुरुस्त करना होगा.
2. लोकतंत्र (जन-भागीदारी) को सुनिश्चित करना.
3. मुफ्त सार्वभौम कोविड 19 टीकाकरण (free universal vaccination) वक्त का तकाज़ा है.
पहली और दूसरी लहर को रोकने में देर हो गई ! कहीं ऐसा न हो कि… !
‘कोवैक्स’ : युनिवर्सल टीकाकरण कार्यक्रम !
गरीब देशों को वैक्सीन उपलबध कराने का एकमात्र वैश्विक प्रयास है − डब्ल्यूएचओ का ‘कोवैक्स’ कार्यक्रम !
- “एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में रहने वाले एक व्यक्ति की जिंदगी क्या एक यूरोपियन या अमेरिकन से कमतर है?” या “फिर इन देशों के अंदर रह रहे गरीबों की जिंदगी क्या कुछ मुट्ठीभर अमीरों से कमतर है?” इस तथ्य को ध्यान में रखे बगैर अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की बात करना महज़ कोरी बकवास होगी.
- ‘द एकोनॉमीस्ट’ मैगजीन के एक अनुमान के मुताबिक दुनियाभर में 35 (अब तक 40) लाख नहीं बल्कि कम से कम 1 करोड़ लोगों की जिन्दगी कोविड ने लील लिया है और मौत का तांडव अभी जारी है. दुनिया की पूरी आबादी का टीकाकरण के बिना इसे रोका नहीं जा सकता है.
- “कोरोनावायरस का सबसे बड़ा मित्र (ally) है पूंजीवादी बौद्धिक संपदा अधिकार (IPR) वाली संस्था !” उन्नत देशों के अवाम भी पेटेंट अधिकार के ऊपर अस्थायी छूट के पक्ष में हैं, लेकिन सरकारें मल्टीनेशनल ड्रग कंपनियों के पक्ष में ऐसा नहीं चाहती हैं.
जबकि मल्टीनेशनल ड्रग कंपनियां सार्वजनिक धन का ही उपयोग कर वैक्सीन बनाती हैं, फिर उनका बौद्धिक संपदा अधिकार कैसे? अगर वैक्सीन उत्पादन की पूरी क्षमता का उपयोग किया जाए तो 60% विश्व की आबादी का टीकाकरण इस साल के आखिर तक मुमकिन है.
- ब्रिटिश प्रधान मंत्री ने G – 7 सम्मेलन में 2022 तक टीकाकरण का प्रस्ताव रखा है. तब तक कितनी और जानें जा सकती हैं !
- दुनिया की पूरी आबादी का सार्वभौमिक टीकाकरण में 50 बिलियन US $ के लागत का अनुमान है, और धनी देश तृतीय विश्व के देशों की मदद कर सकते हैं.
- डब्ल्यूएचओ प्रमुख कहा ने कहा है कि अब तक लगे 75% टीके सिर्फ 10 देशों में लगे हैं. ये ‘शर्मनाक असमानता’ है. हम सभी एक ही मानवजाति के हैं. फिर यह वैक्सीन नस्लभेद क्यों?
- इस वैक्सीन नस्लभेद के दो पहलू हैं एक वैक्सीन उत्पादन में कमी और दूसरा तृतीय विश्व के देशों में वित्तीय सहायता का अभाव !
- क्या वैक्सीन लक्जरी उत्पाद हैं? कल्पना करें, अगर पोलियो या स्मॉल-पॉक्स का टीका सिर्फ अमीर देशों को दिया जाता? तो क्या इनका उन्मूलन हो पाता?
- अमीर देश खुद को बेवकूफ बना रहे हैं, अगर वे सोचते हैं कि वे सिर्फ खुद का टीकाकरण कर महामारी से बाहर आ जाएंगे. बिना टीकाकरण वाली आबादियों से आने वाले वैरिएंट असली जोखिम है, “जब तक हर सख्स महफूज़ नहीं हैं, तब तक कोई भी महफूज़ नहीं है.”
- डब्ल्यूएचओ को ‘कोवैक्स’ के लिए बेहतर योजना की जरूरत है. मानवजाति को खुद के लिए टीकाकरण करना होगा.
- राष्ट्रीय परिदृश्य (National scenario)……….
- 40% US आबादी और 20% यूरोप की आबादी का टीकाकरण हो चुका है, जबकि भारत में <5% आबादी का ही वैक्सीनेशन हो सका है.
- सौभाग्यवश हमारे पास वैक्सीन के लिए तकनीक है और क्षमता भी. आवश्यकता है मजबूत इच्छा-शक्ति की. लेकिन ‘टीका’ कम टिप्पणी अधिक करती है सरकार ! भारत 2020 में ही वैक्सीन उम्मीदवारों की योजना बनाकर प्री-ऑर्डर कर सकता था. हमने नहीं किया. हम इसका नतीजा भुगत रहे हैं.
- भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 के अन्तर्गत “मानवीय गरिमा के साथ जीवन के अधिकार को मूल अधिकारों की श्रेणी में रखा गया है. स्वास्थ्य सहित वे सब पहलू जो जीवन को अर्थपूर्ण तथा जीने योग्य बनाते हैं, इसमें शामिल हैं.”
- आप वैज्ञानिक कार्यप्रणाली, जन-भागीदारी, पारदर्शिता और ठोस कार्रवाई के बिना पैन्डेमिक से जंग नहीं जीत सकते. जबकि केन्द्र सरकार और कुछ राज्य सरकारें अपने नकारापन को छुपाने के लिए सांख्यिकी प्रपंच (data scam) कर केसेस और मौतों का डेटा ही छुपा रही है.
- पैन्डेमिक के दौरान 20% तक वित्तीय सहायता दुनिया के बहुत से देशों ने अपनी अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए दिए जबकि तुगलक़ी नोटबंदी, जीएसटी के चलते पहले से ही चली आ रही आर्थिक मंदी के बीच भारत ने लॉकडाऊन के दौरान 2% से भी कम खर्च किए !
- इन सबका अंजाम हम तबाही के मंज़र के रूप में देख रहे हैं. लेकिन कहानी तो तब शुरु होगी, जब कोविड 19 की जारी इस महामारी के बाद भीषण आर्थिक मंदी, बेरोजगारी, भुखमरी और खुदकुशी की सुनामी से हम गुजर रहे होंगे.
“वो ज़हर देता तो दुनिया की नजरों में आ जाता !
सो उसने यूँ किया कि वक़्त पे दवा न दी !!”
…अख़्तर नज़्मी
प्रस्तुति :
डॉ सुनील सिन्हा