आजकल लगभग सभी मंचों से समाज में महिलाओं को बराबरी का स्थान देने की बात की जाती है। परंतु वैश्विक स्तर पर विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की बात करें तो कुछ दूसरा ही दृश्य उभरता है। प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका ‘नेचर टुडे’ में हाल में प्रकाशित एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार, विज्ञान में बराबरी से काम करती महिलाएं अपने पुरुष समकक्षों से 59 प्रतिशत पीछे हैं। महिला शोधकर्ताओं द्वारा शीर्ष विज्ञान जर्नल्स में प्रकाशित किए गए काम को पुरुष शोधकर्ता द्वाटा प्रकाशित किए गए उसी गुणवत्ता के काम की तुलना में काफी कम उल्लेख मिलते हैं। यहां तक कि 59 प्रतिशत मामलों में पुरुष अपनी ही झोली में डाल लेते हैं।

लैंगिक समानता में गरीब देशों से भी पिछड़े पश्चिम के अमीर देश | दुनिया | DW | 12.02.2021

न्यूयार्क यूनिवर्सिटी द्वारा किए गए इस अध्ययन में 9,778 शोध दलों से वार्ता की गई, जिनमें लगभग डेढ़ लाख स्त्री-पुरुष सम्मिलित थे। निश्चित रूप से विभिन्न क्षेत्रों के साथ-साथ विज्ञान में भी महिलाओं की संख्या बढ़ी है, किंतु अब भी लिंग-आधारित भेदभाव दिखने में आ ही जाता है। अन्य क्षेत्रों की भांति विज्ञान में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व पुरुषों की तुलना में बहुत कम है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी क्षेत्र के योगदानकर्ताओं के रूप में महिलाओं का नाम बमुश्किल याद किया जाता है। भारत के सबसे बड़े वैज्ञानिक अनुसंधान और विकास संगठन ‘सीएसआइआर’ द्वारा कराए गए एक सर्वे के अनुसार इच्छा और रुचि के बावजूद भारत के विज्ञान जगत में महिलाओं की स्थिति सुधरी नहीं है।

साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और मैथेमेटिक्स(एसटीईएम-स्टेम) में करिअर बनाने में महिलाएं क्यों पीछे हैं? एक स्टडी कहती है स्टेम में महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा आधे से भी कम रिसर्च पब्लिश करने का मौका मिलता है। यही नहीं उन्हें रिसर्च के लिए पुरुषों के मुकाबले कम पैसे भी दिए जाते हैं। पारिवारिक जिम्मेदारियां और वर्कप्लेस पर कम अहमियत दिए जाने जैसी कुछ वजहें हैं जिनके चलते भारत में रिसर्च फील्ड में महिलाओं की संख्या बमुश्किल 15% ही है 

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इस सर्वे के अनुसार, देश के अनुसंधान और विकास क्षेत्र में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की भागीदारी केवल 15 प्रतिशत है। वैसे यूनेस्को के ताजा सर्वे के अनुसार समूचे विश्व में 30 प्रतिशत महिलाएं ही शोध के क्षेत्र में हैं, वहीं 13.9 प्रतिशत के साथ दक्षिण एशिया की स्थिति तो और भी ज्यादा खराब है।आखिर इस लैंगिक असमानता के पीछे क्या कारण हैं? सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रगति के बावजूद आज भी पूरे विश्व में व्यावहारिक स्तर पर लैंगिक रूढ़िवादिता जटिल रूप में मौजूद है।

कई सर्वेक्षणों से यह स्पष्ट हो चुका है कि इसके मुख्य कारण मर्दवादी सोच, सामाजिक मानदंडों के अनुरूप होने का दबाव, विवाह और तरह-तरह के पारिवारिक दायित्व व अवरोध हैं. ज़्यादातर माता-पिता अपनी बेटियों को कैरियर-मुखी विज्ञान विषयों में नामांकन कराने की अनुमति नहीं देते या उसके लिए प्रोत्साहित नहीं करते. यहाँ तक यह भी देखने में आया है कि कई बार शोध मार्गदर्शक, यह सोचते हुए कि अगर घर चलाने से संबंधित जिम्मेदारियों के चलते महिला शोधकर्ता पीएचडी छोड़ देंगी तो उनकी सारी मेहनत बेकार चली जाएगी, महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम तवज्जो देते हैं. विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की कम भागीदारी की वजहों में संगठनात्मक कारकों की भी अहम भूमिका है. महिला रोल मॉडलों की कमी ने भी ज़्यादातर महिलाओं को इन क्षेत्रों में प्रवेश से रोकने का काम किया है.

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आखिर इस लैंगिक असमानता के पीछे के क्या कारण हैं? सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रगति के बावजूद आज भी दुनिया भर में व्यावहारिक स्तर पर लैंगिक रूढ़िवादिता (जेंडर स्टीरियोटाइप्स) जटिल रूप में मौजूद है. आम तौर पर यह रूढ़िगत मान्यता व्याप्त है कि कुछ खास कामों के लिए पुरुष ही योग्य होते हैं और महिलाओं की अपेक्षा पुरुष इन कामों में ज्यादा कुशल होते हैं और महिलाएं नाज़ुक और कोमल होती हैं इसलिए वे मुश्किल कामों के लिए अयोग्य हैं. यह पूर्वाग्रह अभी भी कायम है कि लड़कियां और महिलाएं विज्ञान और गणित पसंद नहीं करतीं हैं या उनकी इन विषयों में रुचि नहीं होती है. पुरुषों के अलावा बहुत सी महिलाएं भी यही सोच रखती हैं कि वे कुछ चुनिंदा ‘नज़ाकत भरे’ कामों या विषयों (जैसे सामाजिक विज्ञान और गृह विज्ञान) के ही काबिल हैं.

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