प्रो० एस०पी० वर्मा
हमारी पृथ्वी पर मानव के उद्भव एवं विकास की कहानी, मनुष्य द्वारा प्रकृति के विभिन्न रहस्यों की खोज तथा प्रकृति के साथ एक सामंजस्य बनाते हुए सामाजिक विकास की कहानी है।
औद्योगिक क्रांति के बाद से विज्ञान और उससे उत्पन्न तकनीकों ने समाज के उत्पादन के साधनों में द्रतगति से परिवर्तन लाया है और आज उत्पादन-संबंधों पर भी गहरे प्रभाव पड़ रहे हैं। आज यह समझ है कि सामाजिक-आर्थिक विकास की सीढ़ियों पर चलना या छलांग लगाना, विज्ञान और तकनीक के सही तरीके से इस्तेमाल करने से ही शायद संभव हे। खासकर “50 के दशक में मुक्त हुए, उन राष्ट्रों के लिए जो “नव-स्वतंत्र देशों” के नाम से जाने जाते हैं, विज्ञान एवं तकनीकी विकास एक महत्वपूर्ण कदम हैं | इन पर देशों की जनता जो सदियों से चाहे औपनिवेशिक शासन तंत्र में रही थी या अपने पारंपरिक सांस्कृतिक तथा औद्योगिक स्तर से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई थी, जनजागरण की लहरों, से विज्ञान की मान्यताओं को ग्रहण न कर पाई तथा खासकर, ग्रामीण क्षेत्र में लागू सामंती उत्पादन-संबंधों के कारण, उपलब्ध विज्ञान और तकनीक को भी अपने रोजमर्रे की जिन्दगी में न लगा पाई | शासक वर्ग विज्ञान को अपने ही फायदे के औजार के रूप में इस्तेमाल करता रहा, जनता को उस विद्या से जोड़ नहीं पाया।
भारतीय वैज्ञानिक चिंतन एवं खोजी परंपरा का क्रम तो ब्रिटिश शासन काल में टूट ही चुका था तथा स्वातंत्रयोत्तर भारतीय विज्ञान, पाश्चात्य विकसित देशों के वैज्ञानिक तकनीकी स्तर को छू लेने की कोशिश करने लगा । इसका नतीजा यह तो निकला कि विज्ञान विश्वविद्यालयों, प्रयोगशालाओं एवं शोध संस्थाओं में विकसित हुआ पर विज्ञान-कर्मियों की सामाजिक प्रतिबद्धता विकसित नहीं हो पाई तथा समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग, विज्ञान के तरीकों से अनजाना ही रहा। क्या देश का बुद्धिजीवी वर्ग, विज्ञानकर्मी, राजनीतिशास्त्री या समाजसेवी, सामाजिक कार्यकर्त्ता, उपरोक्त स्थितियों से अनजान थे? नहीं, देश के विभिन्न हिस्सों में वेज्ञानिक चिन्तन धारा को विकसित करने की दिशा में पहलकदमी ली गई हे चाहे छोटे स्तर पर ही हो और यही भारत में विज्ञान-आंदोलन की पृष्ठभूमि बनी।
1958 की, राष्ट्रीय विज्ञान नीति, जो कि लोकसभा में पेश की गई थी वैज्ञानिक चेतना के विकास करने की प्रतिबद्धता से ही शुरू हुई। देश के वैज्ञानिक जैसे प्रो० मेघनाथ साहा, प्रो० पी० सी० राय, प्रो० एस० एन० बोस, प्रो० विक्रम साराभाई इत्यादि ने विज्ञान नीति की पृष्ठभूमि तैयार की थी तथा जनता के बीच विज्ञान पहुंचाने का काम भी शुरू किया था। 1959 में जब पहला रूसी-अंतरिक्ष यान “स्पुतनिक’ पृथ्वी की परिक्रमा में भेजा गया हे । यह एक छोटा सा परन्तु प्रेरणादायक प्रयास था । विज्ञान की पढ़ाई मातृभाषा में ही सुलभ हो, इसलिए बंगीय विज्ञान परिषद् की स्थापना हुई तथा यह संरचना अभी तक कार्यरत है। विज्ञान और तकनीक को बिना पूर्वाग्रह के ग्रहण करने के लिए जनता को तैयार करना भी विज्ञान आंदोलन का एक उद्देश्य रहा है।
विज्ञान को जनता तक पहुंचाने के क्रम में जिन संस्थाओं का विकास हुआ उनमें कुछ का उल्लेख करना आवश्यक हे जेसे : केरल की “शास्त्र साहित्य परिषद्” को लें। कुछ शिक्षकों, इंजीनियरों एवं वैज्ञानिकों ने 1978 में इसकी शुरूआत की | यह स्वयंसेवी संस्था है । मातृभाषा (मलयालम) में बच्चों के लिए विज्ञान पत्रिका के विभिन्न आयामों को जनगण तक पहुंचा रहे हैं। 1987 का राष्ट्रीय जनविज्ञान जत्था, शास्त्र परिषद् की ही देन है। केरल में साइलेन्ट वेली प्रोजेक्ट के आने पर पर्यावरण संरक्षण के लिए इसके द्वारा आंदोलन किया गया । बहुराष्ट्रीय संस्थाओं के द्वारा जो शोषण हो रहा है, उसके खिलाफ आवाज बुलंद की | यह संस्था समाज में व्याप्त रूढिवादिता, पारंपरिक अंधविश्वासों का वैज्ञानिक विश्लेषण कर खोजी परंपरा को जन्म देने में सहायक हो रही है।
प्रो० विक्रम साराभाई की प्रेरणा से अहमदाबाद में “विज्ञान-केन्द” की स्थापना हुई, उसके द्वारा प्रथम तो छोटी-छोटी पुस्तिकाएं निकाली गई जिससे बच्चे एवं उनके शिक्षक विज्ञान की आधारभूत मान्यताओं को समझ सकें. बाद में यह केंद्र स्वास्थ्य, प्रदूषण, ऊर्जा आदि के क्षेत्र में जनता में समझदारी पैदा करने हेतु कार्यरत हैं। टाटा आधार भूत शोध संस्थान, बम्बई एवं दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ विज्ञान कर्मियों द्वारा मध्य प्रदेश के कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में विज्ञान-शिक्षा की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किए हैं। उनकी नीति है : “विज्ञान-किताब से नहीं बल्कि अपनी कार्य पद्धति से सीखें”। उत्तर प्रदेश के पहाड़ी अंचल में श्री सुन्दर लाल बहुगुणा द्वारा संचालित “चिपको आंदोलन” उस क्षेत्र के पर्यावरण के गिरते स्तर के खिलाफ, वैज्ञानिक दृष्टिकोण को जनता एवं शासक वर्ग के बीच ले जाने का एक सशक्त जन-आंदोलन बन गया है। उत्तर प्रदेश, में “विज्ञान परिषद्” की स्थापना हुई है और वे कार्यरत है तथा महाराष्ट्र में “मराठी विज्ञान परिषद्” इस क्षेत्र में अपनी पत्रिका के द्वारा सराहनीय योगदान कर रहा है।
1998 में बिहार में भी “सायंस फॉर सोसायटी, बिहार” नामक संस्था के द्वारा यहाँ के विज्ञानकर्मी, विज्ञान को सुलभ बनाने एवं वैज्ञानिकों के बीच सही सामाजिक प्रतिबद्धता विकसित करने में प्रयत्तशील है | इस संस्था का उद्देश्य हे कि प्रयोगशालाओं, शिक्षण संस्थाओं एवं अन्य औद्योगिक क्षेत्रों में कार्यरत विज्ञान कर्मियों को सबसे पहले विज्ञान और तकनीक के सही इस्तेमाल पर विचार-विमर्श करने के एकजुट किया जा सके | विज्ञानकर्मी, विज्ञान नीति के पालन में अपना योगदान दे सकें तथा बिहार राज्य के विकास की समस्याओं का वैज्ञानिक हल ढूँढ़ने का प्रयास किया जा सके। साथ ही समाज के विभिन्न वर्गों के बीच वेज्ञानिक चेतना के संचार में विज्ञानकर्मी इस मंच के द्वारा पहलकदमी ला सकें |
इस दिशा में, सोसाइटी द्वारा सर्वप्रथम 983 में “राष्ट्रीय विज्ञान नीति” पर, 984 में “बिहार में ऊर्जा संकट’ पर तथा 985 में “बिहार में बाढ़ ओर सूखा से बचाव” के मुद्दे पर दो दिवसीय विचार गोष्ठियों का आयोजन किया गया। इन सवालों से जुडे विज्ञानकर्मी, प्रशासक वर्ग एवं उपभोक्ता तीनों का प्रतिनिधित्व इन सम्मेलनों में था। इन प्रश्नों के हल का निचोड़ राजनीतिक दलों, सामाजिक कार्यकर्त्ताओं एवं सरकार को भी प्रेषित किया गया तथा उसे लागू कराने के लिए जनतांत्रिक मंचों से भी आवाज उठाई गई। सोसाइटी हिंदी में जन-विज्ञान पुस्तिकाएं भी निकालती हे तथा विज्ञान को जनसुलभ बनाने हेतु ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यक्रमों को आयोजित करती है।
विज्ञान केंद्रों, वैज्ञानिक एवं शैक्षिक परषिदों एवं विज्ञान-काउंसिलों से जुड़कर यह संस्था, विज्ञान-स्वयंसेवियों को इकट्ठा करने का पयास भी करती हे तथा कोशिश करती है कि सांप्रदायिक विघटनकारी तत्वों, शक्तियों का मुकाबला विज्ञान के हथियार से कर पाए। पर आंदोलन के विकास में पहला अवरोध है, विज्ञानकर्मियों के बीच वैज्ञानिक चिन्तन पद्धति का अभाव | कृषिकर्मियों और औद्योगिकक कर्मियों के बीच वैज्ञानिक दृष्टि या समझ की कमी तथा आज के नव औपनिवेशक युग में साम्राज्यवादियों द्वारा विज्ञान एंव तकनीक को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की चेष्ट की सही समझ एवं उसके खिलाफ प्रतिरोधात्मक कदम का अभाव, हम लोगों को “वैज्ञानिक चेतना” एवं “विज्ञानकर्मी ” का मतलब समझ लेना जरूरी है।
हम जब अपने चारों ओर के बारे में विज्ञान के तरीके से जानकारी प्राप्त करते हैं तथा देनिक जीवन में वेज्ञानिक तौर-तरीके से अपनी समस्याओं के हल करने की चेष्टा करते हैं, ओर यह समझते हैं कि इस रीति से प्राप्त प्रश्नों के उत्तर ही सत्य के सबसे नजदीक हैं, तो हम कह सकते हैं कि हमें वैज्ञानिक चेतना है। जानकारियों को सही तरीके से सजाकर तथा प्रकृति, मानव एवं सामाजिक परिवेश के बीच संबंधों को स्थापित कर हम वैज्ञानिक निष्कर्षों पर पहुँचते हैं । इस रीति से बढ़ने पर हमें पहले छूट मिलती है कि हम किसी घटना के बारे में तीन तरह के प्रश्न कर सकें : (1) क्या है (2) केसे हुआ (3) क्यों हुआ । अर्थात् विज्ञान अपने रास्ते में किसी जड़ता या कोई ईश्वर को आने नहीं देता। इससे इसमें सार्वभौम होने की मान्यता आती है । जहाँ धर्म, समाज को विभाजित कर खेमे में बांटता है, रूढिवादिता समाज की क्रियाशीलता में बाधक होती है, विज्ञान हमें एक नई संसार-दृष्टि देती है तथा मानव को एकीकृत करती हुई मानव जाति से जोड़ती है। अतः वेज्ञानिक चेतना में मानवता अंतर्निहित है, वेज्ञानिक चेष्टा तकनीकी विकास, मनुष्य की प्रकृति के ऊपर विजय न होकर प्रकृति के सामंजस्य में रहते हुए अपने सवालों का हल खोजने का प्रयास है ।
“वैज्ञानिक” शब्द अपने आप में एक बहुत बड़े जन समुदाय को समेटता है। वह हर “आदमी” जो समाज की किसी उत्पादक-प्रक्रिया का अंग है, वह अगर उत्पादन उपस्करों में सैद्धांतिक या क्रियाशील परिवर्तन में लगा हो, तथा ऐसी चेतना से लैस हो जो उसे सतत जानकारी एवं उसके प्रायोगिक सत्यता की ओर विकसित करती हो, वैज्ञानिक ही है। ऐसे “वैज्ञानिक” कृषि में लगे किसान खेत मजदूर भी हो सकत हें। उद्योगों के मजदूर भी, पढ़ने वाले छात्र तथा पढ़ाने वाले शिक्षक और प्रयोगशालाओं, वैज्ञानिक विधाओं में काम करने वाले विज्ञानकर्मी इत्यादि । कोई जरूरी नहीं कि हर विज्ञानकर्मी वेज्ञानिक हो और एक साधारण पेशेवर आदमी वैज्ञानिक नहीं । हां, विज्ञानकर्मियों का एक बड़ा हिस्सा चूंकि विज्ञान के तौर तरीकों को इस्तेमाल में लाता रहता है, अत: वह सामाजिक विज्ञान की प्रक्रिया पर उसी तौर तरीके से विश्लेषण कर, “वैज्ञानिक दृष्टि” आसानी से विकसित कर सकता है।
विज्ञान आंदोलन, समाज के विभिन्न वर्गों के “वैज्ञानिकों” को एकजुट करने तथा समाज में जनता के बीच वेज्ञानिक संसार दृष्टि पैदा करने के दुहरे लक्ष्य के साथ विकसित होने वाली प्रक्रिया का ही नाम है। इसके लिए सर्वप्रथम, समाज के जिन क्षेत्रों में विज्ञान का इस्तेमाल सबसे जरूरी है, उन क्षेत्रों में वैज्ञानिक उपादानों, मान्यताओं से जनता को परिचित कराना होगा। जैसे ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य, कृषि उपस्कर, गैर-पारंपरिक ऊर्जा समाज के विकास की क्रमागत जानकारी एक वैज्ञानिक संसार-दृष्षि जेसे क्षेत्रों में विज्ञान स्वयं सेवी को या सामाजिक कार्यकर्ता को जनता के बीच पहुँचना होगा तथा जनता के सवालों को सही हाल में दिखाना होगा।
विज्ञान स्वयंसेवी के लिए “जनता” ही स्कूल होगा जो नए-नए प्रश्नों को लेकर हमेशा सामने आएगी। छात्र-जीवन एक ऐसे मोड़ पर रहता है, जहां विभिन्न दिशाओं से मानव समाज के बारे में जानकारियां आती रहती हे, चाहे वे सामाजिक, आर्थिक इतिहास की हो, प्राकृतिक संपदा की हो या भौतिक-रासायनिक परिवर्तनों की हो तथा वह अपने परिप्रेक्ष्य से इन जानकारियों को जोड़ना चाहता हे अगर छात्रों के बीच सही “वैज्ञानिक” समझ को पाठ्यक्रमों के द्वारा या गोष्ठियों के द्वारा विकसित किया जा सके तो समाज के एक प्रखर क्रियाशील अंग को हम सामाजिक विकास एवं परिवर्तन की गाड़ी से जोड़ सकेंगे। पर इसके लिए जरूरी है कि उनके उन महत्तम प्रमुखता के हें, जेसे, वे क्या पढ़ रहे हैं ? क्यों पढ़ रहे हैं? समाज उनको पढ़ाई का खर्च क्यों दे रहा हे? जो पढ़ना चाहते हें वे सभी क्यों नहीं पढ़ पाते ? उनकी प्राथमिक पाठशाला के 00 से 70 छात्रों ने पढ़ाई क्यों छोड़ दी? वे कैसे उन्हें लौटा पाएंगे ? पढ़ाई के बाद बेरोजगारी ही क्यों निश्चित सी है ? या विज्ञान ओर तकनीक ही युद्ध के लिए दोषी तो नहीं जेसे प्रश्न, समाज, समाज की वर्गीय संरचना तथा उनके अंतर्विरोधों से जुड़ी है।
विज्ञानकर्मी, अपने प्रयोगशालाओं, अध्ययनकक्षों से बाहर निकल कर सामाजिक परिप्रेक्ष्य के साथ देश, राज्य या क्षेत्रीय स्तर के कृषि, उद्योग, शिक्षा, प्रशासन, जनतंत्र एवं अन्य दायरों के विकास की सही रूपरेखा तैयार करने में अपनी वैज्ञानिक मेधा, तारिक दृष्टि का इस्तेमाल कर सामाजिक परिवर्तन एवं उत्थान के लिए नई नीतियों का निर्धारण कर पाएंगे और शायद तभी वे सामाजिक ऋण से भी मुक्त हो पाएंगे। अपने संस्थानों के द्वारा विज्ञानकर्मी, नीति निर्धारण के क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं और कार्यान्वयन के समय उनकी मुलाकात समाज के साथ जुड़ने की प्रक्रिया ही समाज के लिए विज्ञान आंदोलन के सूत्र हैं।
प्रो० एस०पी० वर्मा ( दिवंगत)
पूर्व अध्यक्ष
सायंस फॉर सोसाइटी, बिहार