वेदप्रिय

विज्ञान के बारे में प्रायः यह कहने वाले मिल जाएंगे कि विश्व के बारे में ज्ञान प्राप्त करने का यही एकमात्र जरिया है। कुछ लोग ऐसा भी कह देते हैं कि विज्ञान का तरीका ही ज्ञान प्राप्त करने का सर्वाधिक अच्छा तरीका है। कुछ प्रसिद्ध दार्शनिकों ने ऐसा कहा है। रिचर्ड लेवोन्टिन –Science is the only begetter of truth. अर्थात, विज्ञान ही एकमात्र ज्ञान का जनक है।

बर्टरण्ड रसल–What science can not discover,mankind can not know. अर्थात, विज्ञान जो नहीं खोज सकता, मानवजाति उसे जान भी नहीं सकेगी। विज्ञान की प्रकृति जैसे नाजुक दार्शनिक विषय को अतिशयोक्तियों का शिकार बनाकर हम यथार्थ से कई बार दूर निकल जाते हैं। इस प्रकार के कथन हमें विज्ञानवाद की ओर धकेल देते हैं। विज्ञानवाद ऐसी ही एक दार्शनिक अवधारणा है कि सिर्फ विज्ञान ही किसी बात को जानने समझने का एकमात्र तरीका है। विज्ञान के द्वारा की गई व्याख्याऐं ही सही होती हैं। निस्संदेह विज्ञान हमें ज्ञान देता है। तो क्या केवल विज्ञान ही हमें ज्ञान देता है ? क्या वास्तव में विज्ञान द्वारा दिया गया ज्ञान ही विश्वसनीय है ? प्रकृति में यदि कुछ अपदार्थीय (भौतिक नहीं) हो भी, तो फिर उसका ज्ञान? इस तरह विज्ञानवाद ज्ञानमीमांसीय दृष्टि (Epistemological) से स्वयं कमजोर स्थिति में पड़ जाता है ।यदि मैं कहूं कि हिंदी में कोई भी वाक्य दस शब्दों से बड़ा नहीं हो सकता तो इस कथन को गलत सिद्ध करने की जरूरत ही क्या है। क्योंकि यह वाक्य ही दस शब्दों से बड़ा है। कहने का अर्थ है कि एक गलत कथन को गलत सिद्ध करने की जरूरत नहीं होती। एक और कथन पर विचार करें -“दार्शनिक प्रश्नों का कोई अर्थ नहीं होता केवल वैज्ञानिक दावे ही सही व तार्किक होते हैं”।

यदि ध्यान से देखा जाए तो यह कथन विज्ञान द्वारा कहा गया कथन नहीं है ,अपितु दर्शन द्वारा विज्ञान के बारे में कहा गया कथन है। क्योंकि इस कथन को जाँचने के लिए विज्ञान के पास कोई तौर तरीके नहीं हैं। क्योंकि वैज्ञानिक विधियां ही सही विधियां होती हैं, इस बात को सिद्ध करने के लिए भी विज्ञान के पास कोई फूल प्रूफ विधि नहीं है। इसलिए यह कहना कि विज्ञान ही हमें केवल ज्ञान देता है, इस बात को विज्ञान द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता। हम कैसे कह सकते हैं कि हम वैज्ञानिक विधियों द्वारा ही इस निर्णय पर पहुंचे हैं।
निस्संदेह विज्ञान अविश्वसनीय तरीके से आगे बढ़ा है। यह मूल्यवान भी है। लेकिन क्या सैद्धांतिक रूप में विज्ञान की कोई सीमा नहीं है? W Provine कहते हैं, आधुनिक विज्ञान सीधे-सीधे यह कहता है कि यह विश्व (प्रकृति) यांत्रिकी (भौतिकी) के नियमों से बंधा हुआ है। इसका कोई नियंता नहीं और न ही कोई अन्य ताकतें जिनको तार्किक तरीके से पहचाना नहीं जा सके। उनके अनुसार इनका कोई निहित अर्थ भी नहीं। इनका कोई नैतिक मतलब नहीं और न ही मानव समाज के लिए कोई निर्देशक नियम। मनुष्य एक बेहद जटिल यांत्रिकी की मशीन है। हम मर गए, हमारा अंत हो गया। कोई स्वतंत्र इच्छा नहीं। मनुष्य का वैज्ञानिक दृष्टि से कोई अर्थ नहीं। यदि हमारा मस्तिष्क भौतिकी के नियमों से बंधा हुआ है, बेशक यह कितनी ही जटिल यांत्रिकी हो तो भी क्या हम यह मान लें कि प्राकृतिक विश्वदृष्टिकोण के हिसाब से प्रकृति की प्रक्रियाओं से बाहर कुछ भी नहीं। इसका अर्थ हुआ प्रकृति एक बड़ी यांत्रिकी की प्रणाली है और मनुष्य का मस्तिष्क इस प्रणाली का एक छोटा सा अंश। फिर हमारे विचारों का क्या मतलब? यदि यह सही भी हो तो भी हमारे पास यह मानने का कोई आधार नहीं कि हमारे विचार ही यथार्थ का सही प्रतिबिंबन करते हैं।

 एक फिल्म में एक शरारती वैज्ञानिक श्रीमान Capitol फिल्म के मुख्य किरदार श्रीमान Peeta Metark का धीरे-धीरे ब्रेन वॉश करता है। इस जरिए वह इस किरदार को यह समझाने लगता है कि वह अपने एक मित्र से नफरत करता जाए। इस ब्रेनवाश की प्रक्रिया को कुछ और तेज किया जाता है। वैज्ञानिक अपने प्रयास में सफल होता है। इस वैज्ञानिक श्रीमान Capitol का यह कहना है कि मैं इस किरदार को यहां तक पहुंचा सकता हूं कि यह दो जमा दो को पांच मानने लग सकता है। कहने का अर्थ यह है कि इस प्रक्रिया के द्वारा आप कभी जान ही नहीं सकते कि जो कुछ भी आप सोचते हो या जानते हो वह विश्वास करने योग्य भी है या नहीं। विज्ञानवाद की तथ्यवाद (Positivism) की समस्या भी यही है। इसके अनुसार वही ज्ञान प्रामाणिक ज्ञान है जो ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त अनुभवों पर आधारित है। यदि हमारे विचार ही हमारे नियंत्रण में नहीं है तो तथ्यवाद का विचार भी हमारे नियंत्रण से बाहर है। हम इस फिल्म के किरदार की तरह ही मान कर चलेंगे कि हमारी सोच ही सही है और हम यह जान ही नहीं सकेंगे कि ज्ञान को मात देने वाली किसी बड़ी शक्ति का अस्तित्व भी है। हम बेशक कह लें कि तथ्यवाद ही सही है, लेकिन यह कहने का हमारा आधार क्या है। इस प्रकार विज्ञानवाद ,तथ्यवाद की सीमा में बंद हो जाता है।

 कई बार विज्ञान को विज्ञानवाद से अलग पहचानना बहुत मुश्किल हो जाता है। ऐसा प्रायः तब होता है जब कुछ बड़े वैज्ञानिक विज्ञान के बारे में या तो कोई दार्शनिक कथन दे देते हैं या कोई बहुत बड़ी बात कह देते हैं।यद्यपि ऐसा करना किसी जीनियस का ही काम होता है ।परंतु फिर भी इनके पीछे का अध्ययन बहुत ज्यादा बौद्धिक श्रम की मांग करता है। उदाहरण के लिए कार्ल सैगान का कहना –The Cosmos is all that is or ever was or ever will be. यह कथन एक नियति (एक निर्धारण) निर्धारित कर देता है ।स्टीफन बिनबर्ग का कहना –The more the Universe seems comprehensible ,the more it also seems pointless. अर्थात यह ब्रह्मांड जितना बोधगम्य (व्यापक) दिखाई देता है, उतना ही यह व्यर्थ (निराधार) भी है। इसी प्रकार E O Wilson का कहना कि We can be proud as a species because,having discovered that we are alone, we owe the gods very little. इस प्रकार के कथन विज्ञान की भावना के अनुरूप नहीं लगते। ऐसे कथन वैज्ञानिकों के अपने व्यक्तिगत कथन ही मानने चाहिएं। इनसे सहमत होना या असहमत होना कई बार बहुत मुश्किल में डाल देता है। इस प्रकार के कथन विज्ञान की सेहत को बिगड़ते ही हैं।

 हमें विज्ञान को इसी रूप में स्वीकार करना चाहिए कि यह स्थापित प्रक्रियाओं (विकासमान विधियों) के द्वारा इस प्रकृति को जानने की एक गतिविधि है ।यह ब्रह्मांड बहुत जटिल (सूक्ष्म से सूक्ष्म और विशाल से विशाल) है। इसलिए वैज्ञानिक अनुशासनों की एक लंबी श्रृंखला है। इन सब की अपनी अपनी विशेष प्रक्रियाएं हैं। इनके द्वारा यह आगे और जानने की कोशिश करती है। हमेशा नए सवाल सामने आते रहते हैं और यह फैलाव व सिलसिला कभी रुकता नहीं। विज्ञान हमेशा हमारी समझ को और आगे बढाता है। यह हमारी समझ को सीमित नहीं करता। सामाजिक जटिलताओं की अनेकाविध समझदारियों के बीच ही विज्ञानवाद ने जन्म लिया है। विज्ञान की स्वीकार्यता की भावना ने सामाजिक विमर्शों की जटिलताओं को और ज्यादा बढ़ा दिया है। विज्ञानवाद एक अनुमानित विश्व दृष्टिकोण रखता है, जो इस ब्रह्मांड के अंतिम यथार्थ की समझ तक जाने की बात करता है। ब्रह्मांड में सजीव प्रजातियों की संख्या असीमित है और विज्ञानवाद हमें इसी विश्वास में जकड़े रखता है कि हमारी मानव प्रजाति श्रेष्ठतम स्तर पर है।यह अच्छी बात है कि प्रकृति को समझने में विज्ञान ने महान उपलब्धियाँ हासिल की हैं। लेकिन यह दावा करना कि मेरे (मनुष्य) दायरे से बाहर जानने के लिए कुछ है ही नहीं, ठीक नहीं है। जिस समय भी हम यह मान लेते हैं कि विज्ञान ही समस्त मानवीय ज्ञान हासिल करने का जरिया है, हम उस दार्शनिक धरातल पर आ खड़े होते हैं जिसे विज्ञानवाद कहते हैं। इस बात को न तो सिद्ध किया जा सकता है (पड़ताल के द्वारा) और न ही गलत (Falsify) सिद्ध किया जा सकता है। इसलिए यह स्वयं में एक अवैज्ञानिक बात है ।

प्रसिद्ध दार्शनिक एडवर्ड फेजर विज्ञान को एक तरह का मेटल डिटेक्टर कहते हैं। जिस प्रकार मेटल डिटेक्टर किसी एक स्थान पर छिपे धातु के टुकड़े, सिक्के आदि को पहचान लेता है जबकि बाकी और क्या छिपा है वह नहीं जान सकता। इसी प्रकार यथार्थ के अन्य बहुत से पक्ष हैं (छिपे हुए) जिनकी पहचान विज्ञान की निगाहों से परे हैं । अभी तक तो एक इलेक्ट्रान ने भी अपने सभी तथ्य उजागर नहीं किये हैं। किसी शायर ने कहा है- दो आंखों से उतना देखा जितना देखा जा सकता था, लेकिन केवल दो आंखों से कितना देखा जा सकता था। जब हम कहते हैं कि हमारे संज्ञान की दुनिया से बाहर भी यथार्थ है तो हम एक प्रकार से अधिभूतवाद की स्थिति को स्वीकार करते हैं (अपनी तरह का एक यथार्थ)। किसी चीज को अच्छा -बुरा -भला कहना विज्ञान का क्षेत्र नहीं है। यह मूल्य का आयाम है ।विज्ञान ज्यादा से ज्यादा अपनी खोजों में (प्रयोगशाला में) ईमानदारी बरत सकता है। लेकिन विज्ञान ईमानदारी को सिद्ध नहीं कर सकता। यह उसकी खोज का विषय भी नहीं है। क्या हम सौंदर्य को वैज्ञानिक विधियों से स्थापित कर सकते हैं या सत्यापित कर सकते हैं ?

आज विज्ञान पूरी तरह तर्क और गणित के अधीन है। ये दोनों कारक विज्ञान के लिए Axioms (स्वयंसिद्धियां) का काम करते हैं। लेकिन हम इन दोनों कारकों को वैज्ञानिक विधियों से सिद्ध कैसे करें ? इनकी बहस हमें एक वृत्त के दायरे में ही रखेगी। क्योंकि वैज्ञानिक विधि स्वयं इन्हें सही मानकर चल रही है ।विज्ञान की विधि विज्ञान की पैदाइश नहीं है ।हम विज्ञान की विधि को विज्ञान की Assumptions (मान्यताओं) के जरिए समझा नहीं सकते। उदाहरण के लिए हम विज्ञान में इसे मानकर चलते हैं कि यह ब्रह्मांड कारण व प्रभाव के संबंध से संचालित है। लेकिन इस कथन पर भी ध्यान दें- यह ब्रह्मांड स्वयं अपना कारण है और स्वयं ही अपना परिणाम। यह अपने होने के लिए किसी का मोहताज नहीं। ब्रह्मांड के आदि – अंत जैसे सवालों पर कारण-प्रभाव का नियम थोपना जल्दबाजी है। इसमें घटित होने वाली घटनाओं के लिए आप अपनी समझ बना सकते हैं। हम अपने मस्तिष्क व तर्कणा योग्यताओं पर भरोसा करके चलते हैं। यह ठीक इसलिए माना जाना चाहिए कि हमारे पास चारा ही यही है। ऐसी बातें विज्ञानवाद को पैदा करती हैं।

इस बहस का यह मतलब कतई नहीं निकालना चाहिये कि विज्ञानवाद से बचने का नाम लेकर आप किसी भी तरह की बेतुकी (आधारहीन) बातों को स्वतः ही ठीक मानने लगें।

        (लेखक हरियाणा के वरिष्ठ विज्ञान लेखक एवं विज्ञान संचारक हैं  तथा हरियाणा विज्ञान मंच से जुड़े हैं )

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