वेदप्रिय

अपने देश की आजादी के बाद के समय में हम विभिन्न पड़ावों पर वैज्ञानिक क्षेत्र में विभिन्न प्रवृत्तियां साफ देख सकते हैं।यद्यपि यह सब आजादी से पूर्व के लगभग 100 वर्षों के भारतीय नवजागरण की ताकत ही थी कि हम आजादी के तुरंत बाद के वर्षों में इस क्षेत्र में कुछ ठोस कर पाए। इस बारे में सबसे पहला नाम हमारे दिमाग में श्री जवाहरलाल नेहरू का आता है।इन्होंने ही वैज्ञानिक मानसिकता की शब्दावली को गढ़ा( सन 1946)। सन 1958 की विज्ञान नीति में इसकी संकल्पना कुछ आगे बढ़ी। इसमें इसका एक वैचारिक धरातल मौजूद था।यह एक प्रकार से मानव संसाधन ,वैज्ञानिक व तकनीकी उपलब्धियों और आर्थिक संसाधनों का सम्मिश्रण थी। सन 1976 में यह शब्द ‘वैज्ञानिक मानसिकता’ संवैधानिक शब्दावली का हिस्सा बना। परंतु अभी तक यह पूरे अर्थों में व्यक्त नहीं हो पा रहा था ।इस बारे पहली बार एक कार्यशाला सन 1980 में कूनूर में हुई। यहां इस पर गंभीर मंथन हुआ।अगले वर्ष 1981 में नेहरू केंद्र मुंबई द्वारा इसे जारी कर दिया गया। इसे वैज्ञानिक मानसिकता का घोषणा पत्र कहा गया ।इस पर व्यक्तिगत रूप में  उस समय के जानेमाने 27 वैज्ञानिकों ने हस्ताक्षर किए थे। इनमें कुछ प्रमुख नाम है, प्रोफेसर सी एन आर राव, डॉक्टर आर रमन्ना ,डॉक्टर सतीश धवन, श्री श्याम बेनेगल ,श्री रजनी पटेल, श्री पी एन हक्सर एवं डॉ पी एम भार्गव आदि।

 इस घोषणा पत्र की उद्देशिका में कहा गया कि यद्यपि मानवजाति की सभ्यता का इतिहास ज्ञान के उत्तरोत्तर विकास का इतिहास भी रहा है ,लेकिन इस बात की गारंटी नहीं कहीं जा सकती कि यह ज्ञान का विकास स्वतः ही मानव समाज के विकास का वाहक भी होगा।इसका एक उदाहरण दिया गया कि 15वीं सदी के पुनर्जागरण में इटली (गैलीलियो, विंसी आदि )की महत्वपूर्ण भूमिका थी, लेकिन चर्च के शिकंजे के कारण इटली ही विकास की होड़ में पीछे हो गया। जबकि उत्तर यूरोप के अन्य देश( इंग्लैंड ,हॉलैंड आदि) इस दौड़ में कहीं आगे निकल गए।हम अपने देश में भी प्राचीन काल में देख सकते हैं कि कई ऐसे दौर गुजरे हैं जहां प्रश्न करने पर मनाही रही । हमने उसके दुष्परिणाम भी भुगते।एक लंबे दौर की गुलामी भी एक कारण रही कि हमआधुनिक युग में विश्व के साथ मुकाबले में पीछे रह गए ।हमारे यहां नवजागरण देरी से आया और वह भी रूढ़ियों से पूरी तरह लड़ते हुए नहीं।हमने समाज सुधार के क्षेत्र में तो कुछ काम किया ,लेकिन रूढ़ियों के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई हमने नहीं लड़ी। यहां रूढ़ियों की जकड़न बहुत गहरी रही ।

इसी जद्दोजहद के बीच यहां वैज्ञानिक मानसिकता पर कुछ काम हुआ।सन 1981 के घोषणा पत्र में कहा गया कि वैज्ञानिक मानसिकता,विज्ञान एवं तकनीकी की जानकारी से कहीं आगे की बात है। इसमें एक विशेष मनःस्थिति की मांग है। इससे हमारे दैनिक जीवन का व्यवहार संचालित होता है। यह एक नई मूल्य व्यवस्था का निर्धारण है कि हम किस नजर से इस दुनिया व समाज को देखते हैं। वैज्ञानिक मानसिकता का दखल हर सामाजिक क्षेत्र में है। वैज्ञानिक मानसिकता वैज्ञानिक विधि पर ज्यादा जोर देती है और कहती है कि यह विधि ज्ञान प्राप्त करने का अब तक का प्राप्त सर्वाधिक कारगर तरीका है। इससे मानवीय समस्याएं समझी व  हल की जा सकती हैं ।यह तरीका सच के सर्वाधिक निकट पहुंचने में हमारी मदद करता है। इसको अपनाये बिना न हमारा अस्तित्व संभव है और न ही हमारी तरक्की ।यह अपरिहार्य है। लेकिन इसके मूल में यह बात भी निहित है कि यह हर समय का सच नहीं होता है। हमें समय-समय पर समकालीन ज्ञान को पैदा करने वाली बुनियादी बातों को परखते रहना होगा।यह एक प्रकार की पुनरउत्पादन की प्रक्रिया ही है। यह सब खोज भावना से ही संभव होता है।प्रश्न करने के अधिकार की स्वीकारोक्ति वैज्ञानिक मानसिकता का आधार है। प्रश्न करने के अधिकार में यह बात भी शामिल है कि इसमें आपकी जवाबदेही भी है।यह जवाबदेही एक तो आपके काम के कर्तव्य को पूरा करने में है, दूसरे इस बात में भी है कि यदि आप देख रहे हैं कि यदि सब कुछ ठीक नहीं हो रहा तो आप चुप क्यों हैं ।

वैज्ञानिक मानसिकता तर्क व विवेक से बनती है ।आलोचनात्मक सोच के बिना यह संभव नहीं।यह हर समय मरम्मत में रहती है ।यह खुला दिमाग रखने से ही चलती है। इसमें प्रायः पूर्व निर्धारित अवधारणाओं को खारिज करने की रवायत शामिल है। इसमें सिद्धांत बनते- बिगड़ते रहते हैं। इसमें हर समय हर  बात का या हर समस्या का  पूर्ण हल संभव  हो यह जरूरी नहीं ।यह कोई अल्लादीन का चिराग नहीं है। इसमें यह कहने की हिम्मत भी है कि ‘अभी मुझे नहीं पता’। यह मानसिकता मूल्य व्यवस्था से प्रभावित होती है।किसी समाज में सामाजिक विकास के सूचकांक जैसे गरीबी, भुखमरी बेरोजगारी ,स्वास्थ्य आदि इस पर प्रभाव डालते हैं ।यह तो हो सकता है कि ये सूचकांक ठीक हों और वैज्ञानिक मानसिकता का ग्राफ ऊंचा न भी हो।लेकिन यह नहीं हो सकता कि ये सूचकांक गिरे हुए हो और उस समाज की मानसिकता (वैज्ञानिक )का ग्राफ ऊपर जाता जाए।इस मानसिकता की एक और विशेषता भी है जो इसे दूसरी ज्ञान शाखों से अलग करती है।आप दो विरोधी विश्वदृष्टिकोण को एक साथ यह नहीं कह सकते की दोनों ही सही हैं। यह बात अधिकतर अधिभूतवाद के क्षेत्र में लागू होती है। वैज्ञानिक दृष्टि यह स्पष्ट अंतर करती है और पहचान करती है कि जड़वत रूढ़िवाद कतई स्वीकार्य नहीं है। यह हमेशा प्रगति में बाधक रहा है और रहेगा। अपने इन गुण- धर्म के कारण वैज्ञानिक मानसिकता हर समय समाज की एक नई व्याख्या देती है और इसे प्रगति की ओर ले जाती है।

 हमने 1981 के घोषणा पत्र के प्रभाव को भी देखा है। पिछली सदी के सातवें- आठवें दशक में वैज्ञानिक प्रचार प्रसार की अनेक संस्थाओं ने इससे प्रभाव ग्रहण किया। राज्य एवं स्वयंसेवी( वैज्ञानिक) संस्थाओं का निकट आना एक सुखद पक्ष बना ।सन 1987 के ज्ञान- विज्ञान जत्थे के रूप में एक अभूतपूर्व कार्य हुआ ।1995 के सूर्य ग्रहण को याद करो। लाखों की तादाद में सोलर फिल्टरों के माध्यम से इसे एक उत्सव की तरह लिया गया। हमारे जैसे रूढ़िवादी समाज के लिए यह कोई छोटी बात नहीं थी। इसके साथ ही एक प्रतिक्रियावादी प्रयोग भी हमने झेला। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने जहां सूर्य ग्रहण का प्रचार- प्रसार किया वहीं दूसरी ओर ‘गणेश’ को दूध पिलाने का एक सफल सामाजिक प्रयोग भी यहां किया। यह भी अपार सफल रहा।हम उस समय इस प्रतिक्रियावादी मानसिकता का पूरा अध्ययन नहीं कर पाए। यद्यपि इसका संज्ञान लिया गया था। इसके बाद परिस्थितियों ने बड़ी करवट बदली और हम एक नए परिवेश( युग) में दाखिल हुए। इसकी अपनी कुछ चारित्रिक विशेषताएं थी।यह राजीव गांधी के आसपास का समय था।

भारत में कंप्यूटर ने प्रवेश किया और नई तकनीक का आगमन हुआ ।इस पहले घोषणा पत्र से यह उम्मीद की जा रही थी कि यह देश के लिए द्वितीय नवजागरण सिद्ध होगा ।लेकिन बात तो कुछ और ही सामने आई ।यद्यपि इस पहले घोषणा पत्र ने एक मजबूत वैचारिक वह बौद्धिक धरातल हमें दे दिया। लेकिन हम नए दौर  की चुनौतियों का पूर्वाभास नहीं कर पाए।अंतर्राष्ट्रीय परिवेश में भी अनेक बदलाव आए। हम इन्हें पूरी तरह समझने में सफल नहीं रहे ।हर क्षेत्र में अवैज्ञानिकता का वातावरण बढ़ने लगा ।इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हावी होने लगा। इसकी ताकत का एहसास हमें नहीं था। इसके निजीकरण ने आग में घी का काम किया।इसने इस अवसर को ज्यादा भुनाया। तुलनात्मक रूप में इसने अवैज्ञानिकता को ज्यादा परोसा। इसकी क्षमताएं स्वयं वैज्ञानिक मानसिकता के सामने रोड़ा सिद्ध हुई ।अनेक चैनलों से रूढ़िवाद प्रसारित होने लगा ।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्व का राजनीतिक संतुलन बदल गया। विकसित तथा कम विकासशील देशों में निराशा का वातावरण बना ।यह स्वाभाविक भी था। निजीकरण ,उदारीकरण वैश्वीकरण (डंकल प्रकरण )की नीतियों के चलते कमजोर देश नवउपनिवेशवाद का शिकार हुए। क्योंकि खुले बाजार की संकल्पना आ गई। साइबर स्पेस की ताकत बढ़ गई ।इन सब ने अतार्किकता को बढ़ाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी ।उत्पादन का आर्थिक ढांचा ज्ञान (एक जींस बनकर ) की पैदावार की ओर खिसकने लगा। इसने वैज्ञानिक खोजों को प्रभावित किया।अतिविकसित देशों ने इस ज्ञान की कमोडिटी को भी कई तरह से भुनाया ।स्वतंत्र खोज, स्वतंत्र न रहकर उनके हितों के अनुरूप ज्यादा होने लगी ।पब्लिक का पैसा प्राइवेट फंड के रूप में बरता जाने लगा। ज्ञान कौनसा व  किस विषय का और किसके लिए यह निजी संपत्ति (बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए )बनने लगा। जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुई खोजो ने आदमी ,समाज व प्रकृति के रिश्ते को बदल कर रख दिया। वैश्विक ऊष्णता के रूप में यह ज्यादा मुखर होकर उभरा। जेनेटिक खोजों ने आम आदमी की मानसिकता को शंकित कर दिया। राज्यों के चरित्र भी बदलने लगे। अपने देश में भी वेलफेयर स्टेट की संकल्पना भी बैक मार गई। आम आदमी बड़े शिकारियों( कुछ अदृश्य भी) की खुराक बनने लगे ।

हम जानते हैं कि विज्ञान की एक बड़ी ताकत या क्राइटेरिया है इसकी पड़ताल होने में जो कि प्रयोग द्वारा आसानी से ज्यादातर संभव है ।लेकिन सामाजिक प्रयोग इतनी आसानी से हो नहीं सकते ।ये थोड़े समय में भी संभव नहीं होते। सामाजिक प्रक्रियाएं ज्यादा जटिल होती हैं ।ये किस प्रकार मानवीय व्यवहारों को जन्म देती हैं,इनका विज्ञान व तकनीक से क्या संबंध है, यह समझना बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है ।इसलिए इस दौर में अंतर अनुशासनीय अप्रोच की ज्यादा जरूरत आन पड़ी। आप देख सकते हैं कि हमारे यहां अनाज का उत्पादन भी बढ़ गया ,लेकिन एक गरीब की थाली का भोजन भी कम हो गया ।स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्रति व्यक्ति औसत आयु तो बढ़ गई लेकिन गरीब लोग कम उम्र में दम तोड़ने लगे ।कहने का तात्पर्य यह है कि वैज्ञानिक मानसिकता का कार्य सामाजिक अंधविश्वासों को दूर करने से कहीं ज्यादा आगे बढ़ने का हो गया।

पहले घोषणा पत्र में कहां गया था कि विज्ञान विधि न केवल प्रकृति विज्ञान की खोजों के लिए अपितु सामाजिक विज्ञानों में भी कारगर होती है ।अब वैज्ञानिक मानसिकता की बात इस रूप में प्रबल होने लगी कि कौन समाज किस रूप में स्वयं को रूपांतरित करने के लिए कितने ज्यादा सामाजिक प्रयोग करता है और इनमें विज्ञान विधि को अपनाता है। इसमें आधुनिक शिक्षा पद्धति की महती भूमिका आ खड़ी हुई। इन सभी आयामों को( चुनौतियों) को समेटने के लिए सन 2011 में पालमपुर( हिमाचल प्रदेश) में दूसरा वैज्ञानिक मानसिकता घोषणा पत्र तैयार हुआ ।इसमें कुछ रणनीतिक बातों पर ज्यादा फोकस था जिनके द्वारा 1981 के घोषणा पत्र की भावना की पुनर्स्थापना की जा सके और इसे आगे बढ़ाया जा सके ।हमारे यहां पहला दौर वैज्ञानिक मानसिकता की बौद्धिक व्याख्या का रहा, बीच में एक दौर विज्ञान की जय (वाजपेई के आसपास )का भी रहा और वर्तमान दौर तो इसे खारिज करने पर तुला हुआ है। यह एक नए प्रकार की स्थिति है।यह निर्णय की घड़ी है-Weather Science or Silence.

       (लेखक हरियाणा के वरिष्ठ विज्ञान लेखक एवं विज्ञान संचारक हैं तथा हरियाणा विज्ञान मंच से जुड़े हैं )

Spread the information