विवेक मिश्रा
नागालैंड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने एक ऐसी तकनीक विकसित की है, जो बड़े बदलाव और समाधान ला सकती है। दरअसल यूनिवर्सिटी ने दावा किया है कि उनके द्वारा विकसित तकनीक के जरिए गंदे पानी से बायोफ्यूल, बायोगैस, पोषक तत्व और स्वच्छ जल जैसे कीमती संसाधनों की दोबारा हासिल किया जा सकता है। इस तकनीक के जरिए अब गंदे पानी को केवल नष्ट करने के बजाय उसे उपयोगी संसाधनों में बदला जा सकेगा और यह सब प्राकृतिक प्रक्रियाओं जैसे पौधों, शैवाल, सूक्ष्मजीवों और पारिस्थितिकीय प्रतिक्रियाओं की मदद से संभव होगा।
इस शोध का नेतृत्व नगालैंड यूनिवर्सिटी के कृषि अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी विभाग के प्रमुख प्रोफेसर प्रभाकर शर्मा ने किया। उन्होंने बताया कि यह तकनीक ‘सॉफ्ट टेक्नोलॉजी’ के अंतर्गत आती है, जिसमें कम ऊर्जा खर्च के साथ पर्यावरणीय नुकसान को घटाते हुए संसाधनों की पुनर्प्राप्ति होती है। शोध में माइक्रोबियल फ्यूल सेल्स, एल्गी-बेस्ड सिस्टम और कंस्ट्रक्टेड वेटलैंड्स जैसी नवाचार तकनीकों को एकीकृत किया गया है, जिससे सर्कुलर इकोनॉमी का सपना अब और वास्तविक होता दिख रहा है। यह अध्ययन प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय जर्नल करंट ओपिनियन इन एनवॉयरमेंट साइंसेज एंड हेल्थ में प्रकाशित हुआ है।
प्रोफेसर शर्मा का कहना है, “अब समय आ गया है कि हम गंदे पानी को एक रिसोर्स हब के रूप में देखें। इस तकनीक के जरिए न केवल पर्यावरण प्रदूषण में कमी आएगी और जल गुणवत्ता सुधरेगी, बल्कि ग्रामीण और अर्ध-शहरी इलाकों में कम लागत वाली विकेन्द्रीकृत जल शोधन प्रणालियां विकसित की जा सकेंगी। पोषक तत्वों की पुनर्प्राप्ति के जरिए सतत कृषि को भी बल मिलेगा और देश के जल पुनर्चक्रण और जलवायु लचीलापन (क्लाइमेट रेजिलिएंस) के लक्ष्यों को भी गति मिलेगी।”
सर्कुलर इकोनॉमी के लिए एक मजबूत कदम
शोध के मुताबिक घरेलू, औद्योगिक और कृषि अपशिष्ट जल को केवल शुद्ध करना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उससे कीमती संसाधनों को वापस पाना भी जरूरी है। पारंपरिक तकनीकों में केवल प्रदूषक हटाने पर ध्यान होता है, जबकि यह सॉफ्ट टेक्नोलॉजी शुद्धिकरण के साथ-साथ पोषक तत्वों, ऊर्जा और जल की पुनर्प्राप्ति भी करती है, जो टिकाऊ विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है।
नगालैंड यूनिवर्सिटी के कुलपति प्रोफेसर जगदीश के पटनायक ने बताया, “गंदे पानी के बढ़ते बोझ के बीच यह तकनीक न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया के लिए आवश्यक है। पारंपरिक पद्धतियां संसाधनों की क्षति करती हैं। यह शोध इस सोच को बदलने की दिशा में बड़ा कदम है।”
हालांकि, यह तकनीक अभी तक सीमित रूप से प्रयोगशाला में परीक्षण की स्थिति में है। प्रोफेसर शर्मा बताते हैं, “अब जरूरी है कि हम इसका पायलट स्तर पर परीक्षण करें। इसके लिए ग्रामीण समुदायों और उद्योगों के साथ साझेदारी कर विकेन्द्रीकृत जल शोधन यूनिट्स की स्थापना की जाएगी। इसके बाद दीर्घकालीन शोध, संसाधन पुनर्प्राप्ति की प्रभावशीलता, लागत अनुकूलन और मानकीकरण जैसे चरणों पर काम होगा।
शोध के मुताबिक यह तकनीक प्रदूषक हटाने और संसाधन पुनर्प्राप्ति का समग्र दृष्टिकोण में सहायक है। साथ ही माइक्रोबियल फ्यूल सेल्स और शैवाल प्रणालियों का संयोजन करने और माइक्रोप्लास्टिक जैसे नए प्रदूषकों के नियंत्रण और विघटन की संभावनाएं भी दिखाती है। यह तकनीक अगर बड़े स्तर पर लागू हो जाती है, तो यह न केवल भारत की जल संकट की चुनौती को हल करने में मदद करेगी, बल्कि सतत विकास के वैश्विक लक्ष्यों में भी देश को अग्रणी बना सकती है।
(‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )