मेरे हिसाब से राजेन्द्र राजनजी के बारे में परिचय की कोई आवश्यकता नहीं है. उनके बारे में मैं एक लंबे समय से जान रहा था परन्तु उनसे परिचय इधर दो तीन वर्षों से हुई जब वह विधायक नहीं रहे और पूर्णरूपेण एक साहित्यकार की भूमिका में देश समाज और अपने जनपद के प्रति अपनी जिम्मेवारी निभा रहे हैं या कोशिस कर रहे हैं. इस परिचय के सूत्रधार प्रख्यात रंगकर्मी, पत्रकार एवं साहित्यकार अनिश अंकुर हैं. लेकिन असली मुलाकात इस साल जनवरी में हुआ जब मैं बेगूसराय से गोदरगामा चला. दरअसल मुख्य उद्देश्य था राष्ट्रीय ख्याति का पुस्तकालय बिप्लवी पुस्तकालय को देखना जिसके वह संरक्षक है. जाहिर एक इच्छा मन में जरूर थी कि राजनजी से भेंट होगी और बातचीत होगी. जब बेगूसराय से आगे बढा और लगभग 6-7किलोमीटर यात्रा कर आजाद चौक पहुंचा और वहां से उत्तर की ओर मुड़ने पर लगभग 300- 400 मीटर की दूरी पर रोड के दोनों तरफ दो भवन दिखाई पड़ा .रोड के उत्तर देवी वैदेही भवन और दक्षिण में सज्जाद जहीर भवन. सज्जाद जहीर भवन जहां एक पुस्तकालय है वहीं वैदही भवन मूलत: एक सभागार है और इसी भवन के सामने मुहब्बत बाग है. इसी भवन के एक कमरे में राजनजी से भेंट हुई. अपने सुपरिचित शैली धोती कुर्ता पहने थे. अपने भारी आवाज में हाल चाल पूछा और बातचीत शुरू हुई. फिर पुस्तकालय को देखने के बाद पुन: उनके कमरे में मैं विराजमान हो गया. बातचीत शुरू हो गयी.

आज के तारीख में वह 74 साल की उम्र पूरा कर चुके हैं. लेकिन इतने सालों का हिसाब किताब किया जाय इसे एक छोटे से पोस्ट में पूरा करना मुश्किल है. फिर भी हम अगर इस ब्रह्मांड की ओर नजर डालते हैं तो देखते हैं यह ब्रह्मांड अनेकों गैलेक्सियां(लगभग 10^11 के क्रम) है और इनकी पहचान अलग अलग है.वैज्ञानिक इसके बारे में सुव्यवस्थित तरीके से जानने की कोशिस कर रहे हैं. लेकिन वैज्ञानिक बताते हैं यह महाविस्फोट के साथ शुरू हुआ. उसी प्रकार राजनजी की जिंदगी को इसी प्रकार बांट सकते हैं जैसे एक आंदोलनकारी के रूप में, जनशक्ति के एक पत्रकार और संपादक के रूप में, सीपीआई के संगठनकर्ता के रूप में, एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में, पार्टी के विधायक रूप में या एक साहित्यकार के रूप में . यह उनके ब्रह्मांडीय रूप के अलग अलग गेलेक्सी के रूप में हैं जो एक महाविस्फोट के साथ 1965 में शुरू हुआ. यह आज भी फैल रहा है. यह भी सही है कि विवादों ने कभी पीछा नहीं छोड़ा. लेकिन मार्क्स की इन बातों में हमेशा विश्वास किये “तुम अपनी रास्ते पर चलते रहो, लोगों को बात बनाने दो.” इसका स्पष्ट उदाहरण है कि जब विधायक थे तब भी इनके अनेक फैसलों से दुश्मन भी हुये और विवाद भी हुए. उनके लिखे उपन्यासों को लेकर कम विवाद पैदा नहीं हुए. लेकिन वह हमेशा दुहराते रहे:

मैंने दुश्मन नहीं बनाया कभी
बस बोलता रहा सच’

राजनजी अपनी माटी या अपने गांव की माटी से वैसी ही आसक्ति है जैसे जनकवि केदारनाथ अग्रवाल को बुंदेलखंड की मिट्टी, पानी, पत्थरों ,गेहूं, प्रकृति से. आखिर 15साल विधायक रहने के बाद भी वह पटना में जाकर रह सकते थे या बेगूसराय में. अपने नाती पोतों के साथ के बीच समय काटते. इस उम्र के बारे में अरूण कमल लिखते हैं :

बुढ़ापे का मतलब है सबह शाम
खुली हवा में टहलना बूलना
बुढ़ापे का मतलब ताजी सिंकी रोटियां
शोरबे में डूबा डूबा खाना
बुढ़ापा यानि पूरे दिन खाट पर
हुक्का गुड़गुड़ाना, आते जाते
किसी भी आदमी को रोककर
खैरियत पूछना
बुढ़ापा यानि पूजा ध्यान तसबीह के दाने
बुढ़ापा यानि पोते पोतियों की गोद में भरे
बैठना निश्चिंत, परियों के किस्से सुनना.

बुढ़ापा के लिए अरूणजी का यह सटीक वर्णन है. लेकिन यहां राजनजी के साथ एक दिक्कत है कि उन्होंने जीवन का एक लंबा समय घर द्वार के छोड़कर इंकलाब के लिए समर्पित किया है. उम्र के साथ हड्डी जबाब दे गयी. उस तरह से भाग दौड़ संभव नहीं है. पर अपनी जिम्मेवारी आज समझते हैं उसी तरह जैसे कोई बूढ़ा अपने परिवार के प्रति समझता है. वही तेवर धारण कर लेते हैं. शरीर जबाब दे गया पर कलम तो चल सकता है. वो कहते हैं

जुल्म के खिलाफ लड़ो , नहीं लड़ सकते तो बोलो ,
नहीं बोल सकते तो लिखो , नहीं लिख सकते तो..
#डूब के #मर जाओ

सोशल मीडिया का माध्यम हो या किताब के द्वारा. अन्याय और जुल्म के खिलाफ अनवरत कलम चलाते हैं. अरूण कमल की उसी कविता की ये पंक्तियां ऐसे बुढ़ापे के लिए चरितार्थ होती है:
मगर बुढ़ापे का मतलब बादशाह खान भी है
बुढ़ापे का मतलब
खुली हवा के लिए
रोटी और शोरबे के लिए
दुनिया भर के पोते पोतियों के लिए
गिरफ्तारी, जेल और पीठ पर कोड़ेे
जुल्म के खिलाफ लड़ने की उम्र खत्म नहीं होती उम्र दराज हो तुम्हारी, चिवार देवदार बादशाह खान
न बिवसता, न थकान, न स्यापा
हो तो नोक हो जिंदगी का बुढ़ापा.

बस आज भी अपनी जिम्मेवारी समझते हैं. इसी को समझते हुए निरंतर कलम भी जारी हैं और संवाद भी.
वह उसी गांव में लौट जाते हैं. इसके पीछे जो कारण है वह आज सभी राजनीतिक, सामाजिक या साहित्यिक आदमी को समझना चाहिये क्योंकि उनकी पहली जिम्मेवारी वही समाज है जिसने उसपर विश्वास व्यक्त किया है. इसी विश्वास के तहत उन्होंने बेगूसराय के जनआंदोलनों से अपने आप को जोड़ा और यही एक चीज है जो अपने लिखे उपन्यासों में कर रहे हैं. उनकी अपनी मिट्टी के प्रति प्रेम को केदारनाथ अग्रवाल के इन शब्दों के द्वारा व्यक्त किया जा सकता है:

“मर जाऊंगा तब भी तुमसे दूर नहीं हो पाऊंगा
मेरे देश, तुम्हारी छाती की मिट्टी मैं हो जाऊंगा
मिट्टी की नाभी से निकला मैं ब्रह्मा होकर जाऊंगा.
गेहूं की मुट्टी बांधे में खेतों खेतों पर छा जाऊंगा
और तुम्हारी अनुकम्पा से पककर सोना हो जाऊँगा
मेरे देश तुम्हारी शोभा में सोना से चमकाऊँगा.”

इसलिये वह अपनी मिट्टी से दूर होना नहीं चाहते है. यही पुस्तकालय का एक रूम उनके राजनीतिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधि का केन्द्र है.एक ऐसा केन्द्र जहां साहित्य जगत को कोई ऐसा नाम नहीं है जो यहां नहीं पहुंचा है. रेणु के साथ भी यही बात थी. बम्बई की चकाचौंघ नगरी और वहां की विलासतपूर्ण जीवन रास नहीं आया.वह लौटकर अपने देश आ गये. राजनजी की सबसे बड़ी चिंता थी इस गेलेक्सी का एक हिस्सा छूट गया था वह साहित्यिक काम. आज तक सांगठनिक काम के चलते इन बातों पर ध्यान नहीं दे पाये लेकिन आज शरीर जब थकावट महशूस करने लगे वह अपने तमाम अनुभवों को शब्द देने शुरू किया. इनकी साहित्यिक रचनाओं पर आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी लिखते हैं,”राजनीति का सिपाही जब लिखने के मैदान में आता है, तो उसकी दृष्टि एकांकी नहीं रह जाती. वह स्थितियों के अर्न्तविरोध की दृष्टि से देखता है. आजकल फैशन हो गया है कि रचनाकार समाज में सर्वत्र बुराइयाँ ही बुराइयाँ देखते हैं, गोया समाज कीचड़ में धंसा हुआ है और सिर्फ लेखक ही उसमें कमल के समान खिला और फूला है. राजेन्द्र राजन के इस उपन्यास में स्थितियों को इस रूग्ण दृष्टि के साथ नहीं देखा गया है.” यही सच है इनकी लेखनी के साथ. अक्सर पाया गया है कि जितना बड़ा रचनाकार होता है,वह अपने और समाज के अर्न्तविरोधों का चित्रण उतना ही खुलकर करता है. हर बड़ा लेखक हार, पराजय, त्रासदी और तनाव का चित्रण ज्यादा करते हैं. ऐसा कर वे अपने समृ के यथार्थ को गहराई में जाकर चित्रित करते हैं. निराला की पंक्ति,”मैं रण में गया हार!’ या ‘ हारता रहा मैं स्वार्थ-समर!’ ये लेखक हार, दहशत और तनाव का चित्रण करते हैं परन्तु एक विश्वास है,”
“हमारी का बदला चुकाने आयेगा
संकल्पधर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर!”

कमोवेश यही स्थिति है राजन के उपन्यासों में चाहे उपन्यास ‘एक रंग यह भी’ या ‘लक्ष्यों के पथ पर’. ‘एक रंग यह भी’ में मुख्य पात्र डा०अनिल विश्वास हों या ‘लक्ष्यों के पथ पर’ में मनोहर हो ये दोनों के साथ भी यही बात है. लेकिन एक सबसे बड़ा योगदान इस रूप में है कि उन्होंने उपन्यास की शैली में बेगूसराय के कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास लिख दिया और वह अपने जीवन के प्रेरणा श्रोत डा०पी गुप्ता को केन्द्रित कर उपन्यास लिखे. लेकिन इसके पीछे एक दूसरा उद्देश्य है सी पी आई में गिरावट क्यों आई?अपनी जिम्मेवारी समझकर उन्होंने इस पर कलम चलायी जिस बात को लेकर बहुत लोग इसे पार्टी विरोधी मानते हैं. जबकि सच्चाई यह है कि सी पी आई की तमाम नीतियों से सहमत हैं. इससे वह बच भी सकते थे परन्तु किसी न किसी को कभी न कभीआगे आना पड़ेगा. वही हुआ , “साँची कही तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना.” यहीं पर प्रेमचंद की बातें सही मालूम पड़ती है कि साहित्य राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल है. बाकी इन पुस्तकों में उठाये गये सवाल कितना सही या गलत है यह समय बतायेगा. पर वह निर्भिक हैं और सत्य के लिये नहीं डरने वाले हैं. राजनजी की सोच को रेणु की इन शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है,” मेरी हालत ठीक उसी तरह है जिसके एक तुफान गुजर चुका है तुरत — और भी तुफानों की सम्भावना के लिये—डाल पसार खड़ा हूं. आओ ओ तुफान! जबतक मुझे जड़ से उखाड़ नहीं फेंकोगे–तब तक मैं मुकाबला करता रहूंगा.” एक ओर मौजूदा सरकार के खिलाफ तथा वाम के पतन पर लगातार आवाज दे रहे हैं. यहीं पर लगता है वह गोदरगामा को स्थायी निवास क्यों बनाये हैं? “गांव में रहता हूं, कम-से-कम ताल ठोंककर ललकारने कोई नहीं आता है.”

राजनजी जीवन में गहरे धंसे हुए लेखक हैं. वह लोक- जीवन में इतनी गहरी जड़ें जमा चुके हैं इसलिये वे उखड़ नहीं सकते है. इसीलिये इनके उपन्यास के जो पात्र हैं उनमें एक उम्मीद है, आदर्श है. इनके पात्र परेशानियों से परेशान नहीं होता है.बल्कि इसमें आनन्द लेता है. एक लेखक के तौर पर वह स्पष्टवादी हैं और बेबाक हैं. रेणु भी कहते थे,” एक सच्चा लेखक को मनुष्य को सामाजिक और समाज को मानवीय बनाकर मुक्ति का पंथ प्रशस्त करता है. वह अपनी कमजोरियों, बुराइयों की भी चर्चा कर समाज की एक साधारण इकाई के रूप में स्वयं को प्रदर्शित करता है. जबकि एक छद्म लेखक अपने को अतिमानवीय गुणों से भरा पूरा महाक्रांतिकारी के रूप में पेश करता है. ऐसा कर वह अपने असली मनुष्य को तो छिपाता ही है, मनुष्य के वास्तविक संघर्ष पर पर्दा डालता है. इस तरह, वह यथार्थ की एक बड़ी छवि का दर्शन न कराकर, एक वायवीय दृश्य-फलक का निर्माण करता है.”
इसी दृष्टिकोण से इन पुस्तकों का मुल्यांकन किया जाना चाहिये.
इस ब्रह्मांडीय स्वरूप का कोई आदि अन्त नहीं है. जितना गहरा डूबेंगे उतना ही अंदर और झांकने का मन करेगा. साहित्यकारों की जीवनी और कृति हो या बेगूसराय से लेकर राष्ट्रीय स्तर के जितने कम्युनिस्टों के हों वह इनकी कहानियों या किस्से के चलते फिरता खजाना हैं. 2021 में सम्पन्न वार्षिकोस्तव को लेकर उनमें गजब की उल्लास थी. दिन रात सक्रिय थे. इस दौरान मुझे इनके और प्रलेस के महासचिव सुखदेव सिंह सिरसा के बीच एक बातचीत सुनने का मौका मिला. सिरसा कह रहे थे,” मुझे अच्छा नहीं लगा जब आपने कहा कि जिंदगी के 74वर्ष में हूं पता नहीं अगला वार्षिकोत्सव देख पाऊँ या नहीं.……कहकर भावुक हो गये.” राजनजी ने कहा ,” मैं बूढ़ा हे गया हूं. यह कठोर सत्य है.” यह बहस का विषय नहीं है पर मैं यहां जनकवि केदारनाथ अग्रवाल की पंक्ति दुहराना चाहूंगा:

जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है
तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है
जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है
जो रवि के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा

जो जीवन की आग जला कर आग बना है
फौलादी पंजे फैलाए नाग बना है
जिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा है
जो युग के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा

यही यथार्थ है. जब मैंने सुबह शाम उनको भूंजा की तरह दवा खाते देखा तो मैंने पूछा कौन कौन रोग है?कहा कि सुनीलजी कोई बचा नहीं है. लेकिन मनुष्य जीता है हौंसले से और सच का सामना कर. आज वह अपने जीवन का 74साल पूरा कर 75वें में प्रवेश कर गये है. आप स्वस्थ और निरोग रहें और दीर्घायु हों. पूरी उर्जा के साथ हरेक वार्षिकोतिसव में स्वागत भाषण सुनते रहें. धारदार कलम चलती रहे.

सुनील सिंह 

(फेसबुक पेज से साभार) 

Spread the information