सुनीता नारायण

अब हम जानते हैं कि एंटीबायोटिक्स (वैसी दवाएं, जो हम गंभीर बीमारी की हालत में लेते हैं) हमें बीमार करने वाले रोगाणुओं को मारने में लगातार अप्रभावी होती जा रही हैं। रोगाणुरोधी प्रतिरोध अथवा एंटी माइक्रोबियल रेजिस्टेंस (एएमआर) नामक यह खतरनाक महामारी एंटीबायोटिक दवाओं के अत्यधिक उपयोग और दुरुपयोग के कारण होती है।

 

रोगाणु, उत्परिवर्तन (म्यूटेट) माध्यम से इन दवाओं के खिलाफ रक्षा तंत्र का निर्माण करने में सफल हो गए हैं। यही वजह है कि आज एएमआर लगातार जानें ले रहा है। अनुमानों के अनुसार जीवन रक्षक दवाओं के अप्रभावी रहने के कारण 2019 में लगभग 50 लाख मौतें हुईं।
हालांकि मुद्दा और गंभीर है। न केवल हम दवाओं के मौजूदा स्टॉक को संरक्षित कर रहे हैं, बल्कि नई एंटीबायोटिक दवाओं के उत्पादन में भी लगातार कमी आ रही है। अनुसंधान, विकास और खोज के व्यवसाय में लगी प्रमुख दवा कंपनियां भी इनका उत्पादन लगातार कम कर रही हैं।

इसका मतलब यह होगा कि आने वाले वर्षों में हम तिहरे खतरे में होंगे। एक, जिन एंटीबायोटिक्स के बारे में हम आज जानते हैं वे पूर्णतया अप्रभावी हो जाएंगी। दो, कोई नई एंटीबायोटिक्स उपलब्ध नहीं होंगी और तीन, इन दवाओं तक आम जनता की पहुंच कम होगी, क्योंकि समय के साथ इनकी मांग में इजाफा ही होगा। यह एक गंभीर स्वास्थ्य आपातकाल है, शायद आज तक हमने जो कुछ भी देखा है उससे भी अधिक गंभीर।

दूसरे विश्व युद्ध के बाद 1940 के दशक में पेनिसिलिन (पहली एंटीबायोटिक, जिसकी खोज 1928 में हुई थी) का बड़े पैमाने पर उत्पादन देखा गया,  जिसके बाद दवाओं की इस श्रृंखला पर दुनिया की निर्भरता काफी बढ़ गई। इसके बाद के दशकों में और भी खोजें की गईं। लेकिन 1980 का दशक आते-आते ये सब बंद हो गया।

रोगाणुरोधी दवाओं की नवीन श्रेणियों की खोज करने की बजाय दवाओं की उन्हीं पुरानी श्रेणियों के फार्मूले में फेरबदल की गई, जिसके फलस्वरूप बैक्टीरिया इन दवाओं के खिलाफ आसानी से प्रतिरोध विकसित कर सकते थे।

समस्या इसलिए भी जटिल है, क्योंकि रोगाणुओं की एक नई किस्म उत्पन्न हुई है, जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) प्रायोरिटी पैथोजन (प्राथमिकता वाले रोगजनक) कहता है। इनमें से अधिकांश प्रायोरिटी पैथोजन नकारात्मक बैक्टीरिया हैं, जिनकी कोशिका दीवारें जटिल होती हैं और वे निमोनिया सहित विश्व के सबसे खतरनाक संक्रमणों के लिए जिम्मेदार हैं।

 

हमें इन प्रायोरिटी पैथोजन से निपटने के लिए एंटीबायोटिक दवाओं की नई श्रेणियों की आवश्यकता है और हमें दुनिया भर के लोगों के लिए उनकी उपलब्धता सुनिश्चित करने की आवश्यकता है, यहां तक कि उन लोगों के लिए भी जिनके पास नई दवाओं की ऊंची कीमतों का भुगतान करने की क्षमता नहीं है।

दवा विकास के विभिन्न चरणों में रोगाणुरोधी एजेंटों की डब्ल्यूएचओ की वार्षिक समीक्षा से पता चलता है कि पिछले पांच वर्षों में, स्वीकृत 12 एंटीबायोटिक दवाओं में से केवल दो को ही नवीन माना जा सकता है। इनमें से केवल एक ही प्रायोरिटी पैथोजन को ध्यान में रखकर विकसित किया जा रहा है।

 

डब्ल्यूएचओ ने इन प्रायोरिटी पैथोजन को “गंभीर”, “उच्च” और “मध्यम” श्रेणी में उप-वर्गीकृत किया है। इससे भी बुरी बात यह है कि नई दवाओं की संख्या में लगातार कमी आ रही है। पिछले कुछ वर्षों से, केवल एक या दो एंटीबायोटिक्स ही नई दवा के व्यावहारिक प्रयोग के चरण तक पहुंच पाए हैं। भविष्य और भी अंधकारमय है।

क्लिनिकल परीक्षण (जोकि किसी दवा के अनुमोदन चरण में पहुंचने से पहले का बिंदु है) के चरण 3 में केवल नौ नई दवाएं हैं और उनमें से अधिकांश का लक्ष्य प्रायोरिटी पैथोजन नहीं है।

असली विडंबना यह है कि नवीन एंटीबायोटिक दवाओं पर कोई शोध नहीं हुआ हो, ऐसा नहीं है। प्री-क्लिनिकल बास्केट में 217 से अधिक रोगाणुरोधी दवाएं हैं। हालांकि, इनका विकास बड़ी फार्मास्युटिकल कंपनियों द्वारा नहीं, बल्कि विश्वविद्यालयों और छोटी कंपनियों की प्रयोगशालाओं में हो रहा है।

 

डब्ल्यूएचओ के अनुसार, 80 प्रतिशत प्री-क्लिनिकल नॉवेल दवाएं उन संस्थानों ने विकसित की हैं जहां 50 से कम कर्मचारी काम करते हैं। लेकिन जैसे-जैसे कोई दवा विकास के क्रम में बढ़ती है, उसी हिसाब से लागत भी बढ़ती जाती है और इनोवेशन ठन्डे बस्ते में चला जाता है।

तो, बिग फार्मा कंपनियां अनुसंधान एवं विकास में निवेश क्यों नहीं कर रही? या फिर छोटे व्यवसायों से तकनीकें अपनाकर उन्हें बाजार तक क्यों नहीं पहुंचा रही हैं ? और कुछ नहीं तो नई खोजें तो की ही जा सकती हैं। इससे भी बुरी बात यह है कि बिग फार्मा एंटीबायोटिक व्यवसाय से बाहर क्यों हो रही हैं?

 

मेरे सहयोगियों ने अपने विश्लेषण में पाया है, वे अन्य दवाओं के माध्यम से भारी मुनाफा कमा रहे हैं? कारण आर्थिक और नैतिक दोनों हैं। फार्मास्युटिकल कंपनियों का कहना है कि विकास की लागत अधिक तो है ही साथ ही जोखिम वगैरह भी हैं। लेकिन असली वजह ये है कि कैंसर या डायबिटीज जैसी बीमारियों के इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवाओं में मुनाफा कहीं ज्यादा होता है।

इसके अलावा रोगों की एक और श्रेणी है जिसे “ऑर्फन डिजीज” के नाम से जाना जाता है। ये वैसी दुर्लभ बीमारियां हैं जिनसे केवल कुछ मिलियन ही प्रभावित होते हैं, लेकिन जिनके लिए दवाएं आवश्यक और उच्च-स्तरीय हैं। अतः इनसे सम्बंधित अनुसंधान और उन दवाइयों को बाजार में लाने में अच्छा मुनाफा है। नैतिक मुद्दा यह है कि कंपनियां रिकॉर्ड मुनाफा कमाने के बावजूद महत्वपूर्ण एंटीबायोटिक कारोबार से बाहर निकल रही हैं।

निराशाजनक स्वास्थ्य आपातकाल के इस दौर में गेम चेंजिंग समाधानों की आवश्यकता है। नई एंटीबायोटिक दवाओं में निवेश करने के लिए कंपनियों को प्रोत्साहित करने के लिए जी 7 सरकारें आज जो कर रही हैं, वह महत्वपूर्ण तो है, लेकिन पर्याप्त नहीं। दवाओं के इस वर्ग को दो अनिवार्यताओं द्वारा परिभाषित किया गया है।

एक, उनका उपयोग सीमित होना चाहिए। दुरुपयोग और अति प्रयोग ही एएमआर की समस्या पैदा कर रहा है। इन जीवन रक्षक दवाओं का संरक्षण किया जाना चाहिए, जिसका अर्थ है सावधानीपूर्वक, प्रतिबंधित उपयोग, भले ही मुनाफे में कमी हो। दूसरा, इन दवाओं तक सबकी पहुंच सुनिश्चित की जानी है।

इसका मतलब है कि दवाओं को सस्ता करना होगा, जो दवा कंपनियों के अधिकतम मुनाफे के फलसफे के खिलाफ जाता है। इसलिए, अब समय आ गया है कि एंटीबायोटिक्स को वैश्विक सार्वजनिक वस्तु के रूप में देखा जाए। इसके लिए शायद फार्मास्युटिकल कंपनियों के मुनाफे पर नए कर लगाने होंगे। इसके अलावा यह सुनिश्चित करना भी आवश्यक है कि सार्वजनिक अनुसंधान का उपयोग आम जनता की भलाई के लिए किया जाए।

   (‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )

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