विकास शर्मा

नींद की धारणा को लेकर हुए अध्ययन में वैज्ञानिकों ने पाया है कि ट्रैकिंग डिवाइस के जरिए नींद पर निगरानी रखने वाली जानकारी हासिल करने वाली तकनीक से ज्यादा नींद की गुणवत्ता को लेकर हमारी धारणा को ज्यादा त्वज्जो दी जानी चाहिए. इस तरह की तनकीक या उससे संबंधी गैजेट्स को जीवन की गुणवत्ता और संतुष्टि से जोड़ना सही नहीं है.

इस बात में कोई शक नहीं है कि अच्छी सेहत के लिए अच्छी नींद बहुत जरूरी है. हमारी नींद की गुणवत्ता का असर हमारे रोजमर्रा की जिंदगी पर पड़ता है, खुद हमारे जीवन की ही गुणवत्ता पर पड़ता है. कई बार यह भी सुनने को मिलता है कि नींद लंबी से ज्यादा गहरी होनी चाहिए. लोग डॉक्टरों की दी गई सलाह को नींद को 6-8 घंटे लंबी होना जरूरी मान लेते है, लेकिन नींद की गुणवत्ता के महत्व को नजअंदाज कर देते हैं. इसी मुद्दे पर नए अध्ययन में बताया गया है कि नींद की जानकारी देने वाले ट्रैकिंग डिवाइज से ज्यादा लोगों को नींद की गुणवत्ता पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए.

यूनिवर्सिटी ऑफ वार्विक की अगुआई में हुए अध्ययन में साफ तौर पर सुझाया गया है कि नींद पर निगरानी रखने वाली तकनीकी रिपोर्ट क्या कह रही हैं उससे कहीं ज्यादा नींद की गुणवत्ता की हमारी समझ मायने ज्यादा मायने रखती है. इस अध्ययन में दो सप्ताह से ज्यादा के समय केलिए 18 से 22 साल की उम्र के 100 से ज्यादा प्रतिभागियों पर ध्यान केंद्रित किया गया.

इसमें हर प्रतिभागि को एक दैनिक नींद की डायरी रखने का निर्देश दिया गया जिसमें उन्होंने , सोते समय बेडटाइम परम्पराओं की पालन करने जैसे, वे कब बिस्तर पर गए, कितनी देर में उन्हें नींद आई और वे कब जागे, इन सबका रिकॉर्ड रखने को कहा गया. इसके अलावा उन्होंने हर रोज रात की नींद को लेकर होने वाली संतुष्टि का आंकलन करने को भी कहा गया.

इसके अलावा दिन भर प्रतिभागियों को अपने भावनाओं को सकारात्मक या नकारात्मक के तौर पर रेटिंग देने और साथ ही उन्हें अपने जीवन की संतुष्टि के आंकने को भी कहा गया. प्रतिभागी अपने नींद की स्वरूपों का उद्देश्यात्मक आंकलन कर सकें, हर प्रतिभागी को एक एक्टीग्राफ लगाया गया, यह हाथ घड़ी की तरह पहने जा सकने वाला ऐसा उपकरण होता है जिससे नींद के दौर व्यक्ति की गतिविधि को अवलोकित कर उसके नींद के चरणों की जानकारी ली जा सकती है.

वर्वीक यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञान विभाग की डॉ अनीता लेनिस की अगुआई में शोधकर्ताओं की टीम ने एक्टीग्रफी के आंकड़ों की तुलना प्रतिभागियों की अपनी नींद और दिनभर की भावनात्मक अवस्थाओं को लेकर बनी अपनी खुद की धारणाओं से की. इसका मकसद यह पता लगाना था कि नींद के पैटर्न और गुणवत्ता में विविधता का मूड और जीवन संतुष्टि से क्या संबंध है.

शोधकर्ताओं ने पाया कि जब प्रतिभागियों को लगा कि उनकी नींद सामान्य से बेहतर थी, तब अगले दिन उनकी भावनाएं ज्यादा सकारात्मक और संतुष्टिपूर्ण थी भले ही एक्टीग्राफ कुछ और बता रहा हो. इसका साफ मतलब था कि तकनीकी उपकरण इस मामले में सटीक या कारगर नहीं थे. ये नतीजे उन पिछले अध्ययनों के नतीजे से मेल खाते दिखे हैं जिनमें जो लोग खुद बताते हैं, बजाए वास्तविक सेहतमंद स्थितियों के, ज्यादा मायने रखता है.

यह अध्ययन हमारी अपने बारे में धारणाएं और अवधारणें की ताकत को रेखांकित करता है. इससे ही अगले दिन हमारा मूड और खुद के प्रति हम क्या महसूस करते है यह भी तय होता है. भले ही नींद पर निगरानी रखने वाले उरपकरण यह क्यों ना कह रहे हों कि हमारी नींद कितनी खराब थी. अध्ययन में स्पष्ट तौर पर बताया गया है कि अगले दिन का हमारा मूड और नजरिया हमारी नींद नहीं बल्कि उसके बारे में हम खुद कैसा महसूस करते हैं यह तय करता है. यह अध्ययन इमोशन जनरल में प्रकाशित हुआ है.

   (‘न्यूज़ 18 हिंदी’ के साभार )

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