रोहिणी मूर्ति
पृथ्वी का कोर प्राकृतिक प्रक्रियाओं के लिए गर्मी पैदा करने वाले इंजन के रूप में काम करता है और चुंबकीय क्षेत्र का निर्माण करता है। लोहे से भरी यह परत धीरे-धीरे ठोस गेंद में तब्दील हो रही है। आखिर इसका पृथ्वी पर गुलजार जीवन पर क्या असर पड़ेगा? दुनियाभर में अलग-अलग जगहों पर छेद (ड्रिलिंग) करके पृथ्वी के अंदरूनी हिस्से का विश्लेषण किया जा रहा है। इसमें पृथ्वी के विकास और इसकी स्थिति के बारे में कुछ अहम संकेत मिले हैं। इस बारे में विस्तार से बता रही हैं रोहिणी कृष्णमूर्ति.
अगर यह दुनिया हमारे-आपके रहने लायक है, तो इसका रहस्य सेब के आकार की पृथ्वी के भीतर करीब 2,000 से 6,000 किलोमीटर गहराई में छिपा हुआ है। हम जानते हैं कि दुनिया की सबसे भीतर की परत आहिस्ता-आहिस्ता ठोस में तब्दील हो रही है। इससे ऊष्मा फैलती है।
इससे एक चुंबकीय क्षेत्र बनता है जो ऊपर आता है और पृथ्वी को घेरकर उसकी सुरक्षा करता है। हालांकि, पृथ्वी के कोर (पृथ्वी का सबसे अंदरूनी हिस्सा) को लेकर हमारी अब तक की समझदारी सिर्फ परिकल्पना पर आधारित है। पृथ्वी के कोर यानी इसके दिल के बारे में काफी कुछ है, जो अब तक हम जान नहीं पाए हैं। सच तो यह है कि अंतरिक्ष के बारे में जानने में हमने काफी सफलता पाई है, लेकिन खुद अपनी दुनिया के बारे में जानने में हमें अब तक कुछ खास सफलता नहीं मिली है। अमेरिका की अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने साल 1977 में वोयेजर-1 नाम से जो अंतरिक्ष यान लाॅन्च किया था, उसने पृथ्वी से अंतरिक्ष की 230 लाख किलोमीटर की यात्रा की। इसकी तुलना में पृथ्वी के भीतर जो सबसे गहरा छेद किया गया, उसकी गहराई 12.2 किलोमीटर (इस पर आगे बात होगी) रही। पृथ्वी के कोर का भौतिक अध्ययन इसके आंतरिक भाग के बेहद कठोर होने के चलते मुश्किल हो जाता है। पृथ्वी की गहराई में 200 किलोमीटर जाने पर हड्डियां गलकर धूल में तब्दील हो सकती हैं। पृथ्वी के क्रस्ट के आधार का तापमान 1,000 डिग्री सेल्सियस, मेंटल की निचली सतह का तापमान 3,000 डिग्री सेल्सियस और कोर का तापमान 6,000 डिग्री सेल्सियस है।
पृथ्वी के भीतर दबाव भी जानलेवा हो सकता है। अध्ययनों से पता चलता है कि पृथ्वी के निचले मेंटल में 24 –136 गीगापास्कल (1 गीगापास्कल या जीपीए 1 बिलियन पास्कल के बराबर होता है) दबाव, बाहरी कोर में 135-330 गीगापास्कल दबाव और आंतरिक कोर में 330-365 गीगीपास्कल दबाव हो सकता है। मानव शरीर कुछ हजार किलोपास्कल (1 किलोपास्कल या केपीए. 0.012 गीगापास्कल के बराबर होता है) के दबाव का ही सामना कर सकता है।
अतः कोई भी अध्ययन, जो कोर की कार्यशैली पर थोड़ी भी रौशनी डालता है, उसकी गहन छानबीन करने की जरूरत है। इस साल के शुरू में इस संबंध में दो अध्ययन प्रकाशित हुए, जो विज्ञानियों में व्यापक बहस का विषय बने और इन बहसों में यह रेखांकित किया गया कि हमारे पास अब तक ऐसे तकनीकी संसाधन नहीं हैं कि हम पृथ्वी की गहराई में जाकर ठोस अंतर्दृष्टि हासिल कर सकें।
जनवरी 2023 में आए एक अध्ययन में चीन के पेकिंग विश्वविद्यालय के शोधकर्ता जियाडोंगे सॉन्ग व यी यांग ने परिकल्पना की कि पृथ्वी का आंतरिक कोर स्वतंत्र रूप से घूम रहा है। यह कभी-कभी तेज घूमता है तो कभी-कभी बाकी पृथ्वी के मुकाबले बहुत धीमे। सॉन्ग व यांग ने भूकंप के बाद जो शॉकवेव्स बनते हैं, उनकी भूकंप-सूचक लहरों से आंकड़ा संग्रह किया। ये शॉकवेव्स पृथ्वी के भीतर जाते हैं और फिर लौटकर सतह पर आ जाते हैं। इन आंकड़ों के आधार पर उन्होंने अध्ययन में कहा कि साल 1970 से साल 2000 की शुरुआत तक कोर की आंतरिक ठोस परत बाकी पृथ्वी के मुकाबले प्रति वर्ष 0.1 डिग्री तेज घूमी। घूमने की इस क्रिया को तीव्र-घूर्णन कहा जाता है। नेचर जिओसाइंसेज में प्रकाशित अपने इस अध्ययन में उन्होंने आगे कहा कि साल 2000 के मध्य में आंतरिक कोर में धीमापन आया और फिर यह सुस्त हो गया जिसे अल्प-घूर्णन कहा जाता है। फिलवक्त, पृथ्वी का बाकी हिस्सा और आंतरिक कोर किस रफ्तार से घूम रहा है, यह उन्हें पता नहीं चल पाया है।
सॉन्ग व यांग यह भी कहते हैं कि आंतरिक कोर हर सात दशक में अल्प से तीव्र घूर्णन में बदल जाता है, जो चुंबकीय क्षेत्र को प्रभावित करता है। हालांकि, चुंबकीय क्षेत्र बाहरी कोर में बनता है मगर इसका कुछ हिस्सा आंतरिक कोर में भी रहता है। यांग कहते हैं, “आप कल्पना करिए कि चुंबकीय क्षेत्र धागे हैं जो आंतरिक कोर से होकर गुजरते हैं। आंतरिक कोर अपनी रफ्तार से चलता है और धागे को खींचता है और इस कारण से चुंबकीय क्षेत्र में बदलाव आता है।”
अध्ययन में शामिल लेखकों का अनुमान है कि कोर में बदलाव संभवतः पृथ्वी की जलवायु को भी प्रभावित करता होगा, जैसा कि हम हर 60-70 सालों में देखते हैं। मगर वे इन दोनों के बीच के संभावित संबंध के बारे में विस्तार से नहीं बताते हैं। दूसरे अध्ययन आंतरिक कोर के भीतर एक और परत, जिसे अंतरतम आंतरिक कोर कहा जाता है, की मौजूदगी की पुष्टि करते हैं। अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने पाया था कि भूकंपीय तरंगें क्षेत्र की अलग-अलग दिशाओं में अलग तरह का व्यवहार करती हैं। इसके आधार पर उन्होंने साल 2002 में पहली बार बताया था कि आंतरिक कोर के भीतर एक और परत छिपी हुई है।
इसके लगभग 18 सालों के बाद आॅस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी के भूगोल विज्ञानी हर्वोएद काल्चिच और उनकी टीम ने अपने इस सिद्धांत को मजबूती देने के लिए और सबूत पेश किए। फरवरी 2022 में जर्नल ऑफ जिओफिजिकल रिसर्च: सॉलिड अर्थ में प्रकाशित एक अध्ययन में उन्होंने अंतरतम आंतरिक कोर के होने पुष्टि की और इसका अर्धव्यास 650 किलोमीटर होने का अनुमान लगाया। यह पुष्टि उन्होंने यह देखने को बाद की कि बाकी के आंतरिक कोर की तुलना में यहां तरंगें अलग-अलग दिशाओं में धीमा हो जाती हैं।
उनका कहना है कि कोर के मध्य में लौह परमाणु की विविध व्यवस्था के चलते ऐसा हो सकता है। अब इस साल फरवरी में नेचर कम्युनिकेशंस में छपे एक अध्ययन में इस सिद्धांत की पुष्टि करने के लिए वे और सबूत देते हैं। यह टीम बड़े भूकंप से निकलने वाली भूकंप तरंगें, जो अंदर से होते हुए गुजरती हैं और वापस अपने उद्गम बिन्दु तक या उसके आसपास लौट आती हैं, उनका अध्ययन करती है। ऐसा देखा जाता है कि पृथ्वी के अंतरतम आंतरिक कोर में पृथ्वी के घूर्णन अक्ष के मुकाबले तरंगों का घुमाव 50 डिग्री धीमा होता है, वहीं बाकी कोर में यह भूमध्यरेखीय समतल के समानांतर काफी धीमी रफ्तार से यात्रा करता है।
पृथ्वी के आंतरिक हिस्से के अध्ययन के लिए भूकंपीय तरंगों का इस्तेमाल कोई नई बात नहीं है। साल 1900 के शुरू से ही पृथ्वी की आंतरिक परतों में झांकने के लिए विज्ञानी सिस्मोमीटर नामक उपकरण में दर्ज होने वाली भूकंपीय तरंगों के आंकड़ों का इस्तेमाल करते आ रहे हैं। ये उपकरण अलग-अलग परतों में तरंगों के व्यवहार को रिकॉर्ड कर एक आउटपुट तैयार करते हैं, जो देखने से इलेक्ट्रोइंसेफेलोग्राम (ईईजी) ग्राफ का अहसास देता है। अमेरिका के कार्नेगी इंस्टीट्यूशन ऑफ साइंस के स्टाफ विज्ञानी पीटर ड्रिस्कोल समझाते हैं िक तरंगें गर्म तत्वों से तेज गति से और सर्द तत्वों से धीमी गति से गुजरती हैं। घनत्व और दबाव के साथ रफ्तार बढ़ती भी है। अगर परत की सामग्री ठोस या तरल है, तो तरंगें निष्कर्ष पर पहुंचने में भी मदद करती हैं। लेकिन, कोर के अध्ययन का यह परोक्ष तरीका बहस को भी जन्म देता है।
सॉन्ग और यांग के अध्ययनों पर लौटें तो, उन्होंने ऐसे दो भूकंपों का विश्लेषण किया, जो शुरू तो एक ही स्रोत से हुए थे, लेकिन उनके आने का वक्त अलग-अलग था। मसलन कि साल 2017 में इंडोनेशिया में दो भूकंप आए। इनका केंद्र बिन्दु मध्य सुमात्रा के पडांगा पंजांग के करीब था, लेकिन दोनों भूकंप दो घंटों के अंतराल पर आए थे। सॉन्ग ने इस तरह का पहला विश्लेषण साल 1996 में किया था, जब वह अमेरिका की कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में पीएचडी के छात्र थे।
उन्होंने साल 1960 से 1996 के बीच दोहरे भूकंप के आंकड़ों के आधार पर तरंगों के आंतरिक कोर से होकर गुजरने में लगे समय को मापा। दोहरे भूकंप की भूकंपीय तरंगों की यात्रा अवधि समान रहने की उम्मीद रहती है। मगर, सॉन्ग के विश्लेषण में इसमें कुछ थोड़ा बदलाव दिखा, जिससे मालूम चलता है कि जब आंतरिक कोर घूमता है, तो तरंगें अलग-अलग सामग्री के संपर्क में आती रहती हैं। उन्होंने अनुमान लगाया कि दो भूकंपों की यात्रा अवधि में अंतर, आंतरिक कोर के घूमने की रफ्तार का अनुमान लगाने में मदद कर सकता है। इस साल के अध्ययन की बुनियाद भी यही है।
मैड्रिड की कम्प्लुटेंस यूनिवर्सिटी के भौतिक विज्ञानी मौरिजिओ मट्टेसी जैसे कुछ विज्ञानी सॉन्ग और यांग के अध्ययन की सराहना करते हैं। मट्टेसिनी कहते हैं कि बाहरी कोर में मौजूद तरल पदार्थ के चलते आंतरिक कोर में स्वतंत्र घुमाव हो सकता है। कोर मुख्य तौर पर आयरन और निकेल के साथ-साथ हल्के तत्व जैसे सल्फर और ऑक्सीजन से बना होता है। ये धातुएं आंतरिक कोर में ठोस रूप में और बाहरी परत में तरल रूप में होती हैं। वह कहते हैं, “आंतरिक वृत्त में, बाहरी तरल के मुकाबले कम घर्षण होता है। इसलिए बाहरी तरल में कंपन या घुमाव होता है।”
हालांकि, दूसरे विज्ञानी दोहरे भूकंप की पद्धति पर सवाल उठाते हैं। उनके मुताबिक, तरंगों की यात्रा अवधि मेंटल से प्रभावित हो सकती है, जो घूमते हुए तापमान और धातुओं में बदलाव के बारे में भी बताती हैं।
पृथ्वी पर जीवन
पृथ्वी के भीतर की गतिविधियों के अध्ययन के लिए कोर को समझना बहुत अहम है आंतरिक कोर की खोज साल 1929 में डेनमार्क के भूकंपविज्ञानी ईंगे हेलमैन ने की थी। पृथ्वी की प्राकृतिक प्रक्रियाओं में इसके महत्व को देखते हुए विज्ञानियों का अनुमान है कि यह पृथ्वी के अस्तित्व को समझने के लिए अहम है। पृथ्वी हमेशा से ऐसी नहीं थी, जैसी हम अभी देख रहे हैं। अमेरिका की नेशनल ओसिनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के मुताबिक, पृथ्वी 450 करोड़ साल पहले पिघली हुई चट्टानों के समुद्र के रूप में अस्तित्व में आई थी, जिसका तापमान 1982 डिग्री सेल्सियस था। वक्त के साथ पृथ्वी ठंडी हो गई जिससे आयरन जैसी भारी धातुएं कोर बनाने के लिए भीतर चली गईं जबकि हल्की सिलिका से भरी धातु सतह पर पहुंच गई और इनसे क्रस्ट का निर्माण हुआ। वहीं, मैग्नीशियम व सिलिकेट्स जैसी धातुओं से क्रस्ट और कोर के बीच मेंटल का निर्माण हुआ।
विज्ञानी कोर की उम्र का पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं और साथ ही यह भी कि इसका ठोस होना कब शुरू हुआ। कुछ का कहना है कि आंतरिक कोर आदिमयुगीन है और यह पृथ्वी जितना ही पुराना हो सकता है। दूसरे अध्ययन इसकी उम्र कई सौ लाख से 100 करोड़ साल तक बताते हैं। आंतरिक कोर का ठोस होते जाना पृथ्वी में चुंबकीय क्षेत्र बनने की प्रक्रिया को संचालित करता है या उस प्रक्रिया को संचालित करता है, जिसके द्वारा कोर की विकिरण गर्मी, चुम्बकत्व को बढ़ाती है। फिजिक्स ऑफ द अर्थ एंड प्लैनेटरी इंटीरियर्स में साल 2015 में छपे एक अध्ययन के मुताबिक, संप्रति आंतरिक कोर प्रति वर्ष 1 एमएम अर्धव्यास की दर से ठोस बन रहा है। तरल लोहे से बना बाहरी कोर, आंतरिक कोर के ठोस होने से निकलने वाली ऊर्जा लेकर विद्युत प्रवाह बनाता है। प्रवाह की गति और पृथ्वी का घूर्णन मिलकर विद्युत क्षेत्र को चुंबकीय क्षेत्र में बदलता है। हाइड्रोजन, सिलिकॉन, ऑक्सीजन, कार्बन और सल्फर जैसे हल्के तत्व जब ठोस में तब्दील होते वक्त बाहरी तरल कोर की तरफ जाते हैं, तो ये भी ऊर्जा स्रोत का काम करते हैं।
कोर की गर्मी, क्रस्ट और मेंटल की टेक्टोनिक्स प्लेट को शक्ति देती है, जिसकी हरकत से भू-दृश्य, पर्वत व ज्वालामुखी बनते और नया आकार लेते हैं। ज्वालामुखी के फूटने से कार्बन डाईआॅक्साइड निकलता है, जो आबोहवा के ग्रीनहाउस गैस और सतही तापमान को नियंत्रित करता है। गैस पृथ्वी के आंतरिक भाग में सब्डक्शन जोन में वापस लौटती है जहां एक टेक्टोनिक प्लेट दूसरे टेक्टोनिक प्लेट के नीचे डूब जाती है। माना जाता है कि इस चक्र ने ही आबोहवा, समुद्र, द्वीप और जीवन के अनुकूल स्थितियां पैदा कीं। सबडक्शन जोन में भी सतह पर जाने वाला पानी भीतर की तरफ बढ़ता है और संभवत: कोर-मेंटल सीमा तक पहुंचता है। इसके बाद ज्वालामुखी गतिविधियों के दौरान वापस सतह पर आ जाता है। देखा गया है कि बाहरी कोर में बने चुंबकीय क्षेत्र की मजबूती में कुछ व्यवधान आया है। यूरोपीय स्पेस एजेंसी के मुताबिक, पिछले 200 सालों में पृथ्वी ने चुंबकीय मजबूती का 9 प्रतिशत हिस्सा खो दिया है।
एक कमजोर चुंबकीय क्षेत्र विपरीत गतिविधि का अनुमान देता है, जिसमें चुंबकीय उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव अपना स्थान बदल लेता है। यह मानव व पशुओं के जीवन को प्रभावित कर सकता है और सैटेलाइट तथा अन्य तंत्र में व्यवधान डाल सकता है। इस तरह की आखिरी विपरीत गतिविधि 7,72,000-7,74,000 साल पहले हुई थी। तब से लेकर 15 बार ऐसा हुआ कि चुंबकीय क्षेत्र की मजबूती में गिरावट आई, लेकिन गिरावट उस स्तर पर नहीं आई कि दोनों ध्रुव अपना स्थान बदल लें। साल 2021 में साइंस में छपे एक अध्ययन के मुताबिक, करीब 40,000 साल पहले चुंबकीय क्षेत्र में बेतहाशा गिरावट आई थी जिससे पराबैंगनी किरणों के चलते पृथ्वी तहस-नहस हो गई थी। उस वक्त आदिमानव और विशालकाय जानवर खत्म हो गए थे। आधुनिक मानव 2,00,000 साल पहले आया और उन्होंने गुफाओं में शरण ली। विज्ञानियों का अनुमान है कि चुंबकीय क्षेत्र में कमजोरी दक्षिणी अटलांटिक एनोमैली से संबंधित हो सकते हैं। यह दक्षिणी अटलांटिक क्षेत्र के जिम्बाब्वे और चिली के बीच का क्षेत्र है, जहां चुंबकीय विपरीतता विपरीत और शेष दुनिया के मुकाबले कमजोर होती है। जब इस क्षेत्र के ऊपर से सैटेलाइट गुजरता है, तो इसका सामना विकिरण से होता है जिससे इलेक्ट्रॉनिक खराबियां आती हैं।
साल 2020 में प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल अकेडमी ऑफ साइंसेज में छपे एक अध्ययन में लीवरपूल यूनिवर्सिटी के एंडी बिग्गिन के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने दक्षिणी अटलांटिक महासागर के एक द्वीप सैंट हेलेना की ज्वालामुखीय चट्टानों का विश्लेषण किया है। ज्वालामुखीय चट्टान जब ठंडी होकर लावा से ठोस में तब्दील होती है, तो उसमें मौजूद चुंबकीय पदार्थ चुंबकीय क्षेत्र की दिशा और मजबूती को संरक्षित रखता है, जो बताता है कि यह कमजोरी लाखों सालों से अस्तित्व में रही है। शोधकर्ताओं ने अध्ययन में लिखा है कि अफ्रीका में भूकंपीय तरंगें सबसे निचले मेंटल के आसपास के क्षेत्र में बहुत धीमी गति से यात्रा करती है, जिससे इसके असामान्य रूप से गर्म होने का अनुमान होता है। इस क्षेत्र को अफ्रीकन लार्ज लो शीयर वेलोसिटी प्रोविंस कहा जाता है और चूंकि यह बाकी मेंटल के मुकाबले गर्म होता है, तो यह बहाव को प्रभावित करते हुए बाहरी तरल कोर पर असर डाल सकता है। बिग्गिन इस संबंध में समझाते हैं, “यह रासायनिक रूप से भी अलग हो सकता है, इसलिए हमारी परिकल्पना है कि दक्षिणी अटलांटिक में यह असामान्य विसंगति मेंटल के आधार की असामान्य स्थितियों से जुड़ा हुआ है।” हालांकि, वह यह भी कहते हैं कि यह आवश्यक तौर पर चुंबकीय क्षेत्र में विपरीत प्रतिक्रिया का संकेत नहीं देता है।
पृथ्वी में चुंबकीय क्षेत्र बनने की प्रक्रिया के गायब होने की संभावना से भी विज्ञानी इनकार नहीं करते हैं, जो कोर के पूरी तरह से ठोस हो जाने पर हो सकता है। मंगल का भी यही हश्र हुआ। साइंस एडवांसेस में साल 2020 में छपे एक अध्ययन के मुताबिक, इस लाल ग्रह का कोर संभवतः आयरन, सल्फर और हाइड्रोजन से मिलकर बना है और इसमें चुंबकीय क्षेत्र बनने की प्रक्रिया के खत्म होने से पहले संभवतः 450-370 करोड़ सालों से चुंबकीय क्षेत्र बन रहा था। यह कैसे हुआ होगा, यह समझने के लिए जापान और रूस के शोधकर्ताओं ने मंगल ग्रह के कोर जैसी लौह मिश्र धातु तैयार की, जिसमें हाइड्रोजन और सल्फर थे और इसे उच्च तापमान और दबाव पर रखा।
साल 2022 में नेचर कम्युनिकेशंस में छपे एक अध्ययन में उन्होंने बताया कि आयरन-हाइड्रोजन और आयरन-सल्फर का संयोजन बनाने के लिए आयरन-सल्फर-हाइड्रोजन के मिश्रण में विघटन होता है। उन्होंने सिद्धांत दिया कि मंगल में विघटन के बाद भारी आयरन-सल्फर वहीं टिका रहता है और हल्का आयरन-हाइड्रोजन ऊपर की तरफ जाने लगता है तथा तरल कोर के साथ मिल जाता है। इसी वजह से चुंबकीय क्षेत्र को बढ़ावा मिला होगा। जब मिश्रण पूरी तरह अलग हो गए, तो मंगल ग्रह में चुंबकीय क्षेत्र बनने की प्रक्रिया खत्म हो गई। पृथ्वी भी अपनी गर्मी खो रही है। कोर के साथ साथ, मेंटल में मौजूद पोटैशियम और यूरेनियम के रेडियोधर्मी तत्वों में क्षरण होने से ऊर्जा बाहर निकल रही है। मानवीय गतिविधियां इस प्रक्रिया को और रफ्तार दे रही हैं। पृथ्वी की सतह के नीचे स्थित कोयला, गैस व तेल जैसे जीवाश्म ईंधन ऊष्मारोधी का काम करते हैं और गर्मी को भीतर से भागने से रोकते हैं। लेकिन, जब इन ईंधनों को निकाल लिया जाता है, तो भूगर्भ में मौजूद पानी, जो अपेक्षाकृत कम प्रभावी ऊष्मारोधी है, इन ईंधनों की जगह ले लेता है। इसके परिणामस्वरूप ज्यादा गर्मी सतह पर आ जाती है।
जर्नल ऑफ साइंटिफिक रिसर्च एंड रिपोर्ट्स में साल 2019 में छपे एक अध्ययन के मुताबिक, सउदी अरब, अरब की खाड़ी, मैक्सिको की खाड़ी, उत्तरी समुद्र और अलास्का जैसे भीषण ईंधन दोहन वाले क्षेत्रों में वैश्विक औसत के मुकाबले 3-6 गुना अधिक गर्मी दर्ज की गई। पृथ्वी में चुंबकीय क्षेत्र बनने की प्रक्रिया कब निष्क्रिय हो जाएगी, इसका अनुमान लगाने के लिए विज्ञानी आयरन की थर्मल प्रवाहकता का अध्ययन करते हैं। इसमें उच्च प्रवाह का मतलब है कि कोर तेजी से ठंडा हो रहा है। अभी तक जो भी अनुमान लगाए गए हैं, वे अलग-अलग हैं। साल 2016 में नेचर में छपे दो अलग-अलग अध्ययनों में कोर-मेंटल सीमा में आयरन की थर्मल प्रवाहकता क्रमशः 90 वाट प्रति मीटर प्रति केल्विन (डब्ल्यूएम−1 के−1) और 18-44 वाट एम−1 के−1 मापी गई। ड्रिस्कोल कहते हैं, “फिर भी उम्मीद है कि चुंबकीय क्षेत्र बनने की प्रक्रिया लाखों वर्षों तक चलेगी। कोर अपनी गर्मी को मेंटल के जरिए हटाने की कोशिश कर रहा है। चूंकि मेंटल काफी गाढ़ा है, तो यह गर्मी को धीरे-धीरे छोड़ता है।”
पृथ्वी की खाल में छिपे रहस्य
यद्यपि पृथ्वी के क्रस्ट में बहुत थोड़ी ही ड्रिलिंग हुई है, मगर इससे ग्रह को लेकर काफी जानकारियां मिली हैं 2016 में केंद्रीय भू विज्ञान मंत्रालय के शोधकर्ताओं ने एक अनूठे प्रयोग को मंजूरी दी। इसके तहत मध्य प्रदेश के कोयना क्षेत्र में पृथ्वी की सतह के भीतर 3 किलोमीटर गहरी ड्रिलिंग को हरी झंडी दिखाई गई। इस क्षेत्र का चुनाव करने के पीछे वजह यह थी कि साल 1960 तक यह क्षेत्र भूकंप प्रवण नहीं था। गोडवाना रिसर्च में साल 2017 में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि साल 1967 से साल 2015 के बीच लेकिन अचानक यह इलाका भूकंप सक्रिय हो गया और मैग्नीट्यूड पर 4 से अधिक तीव्रता वाले 44 भूकंप और कई सौ छोटे भूकंप दर्ज किए गए। विज्ञानियों का अनुमान है कि कोयना भूकंप को लेकर संवेदनशील क्षेत्र 1962 के बाद बना जब इस क्षेत्र की शिवाजीसागर झील को घेर दिया गया। इस तरह के बदलाव से जब भूकंप आते हैं, तो उन्हें रिजर्वायर-प्रेरित भूकंप कहा जाता है और टर्की, इटली, दक्षिण कोरिया व स्पेन जैसे देशों में इस तरह के भूकंप देखे जा चुके हैं। दूसरे क्षेत्रों में हालांकि इस तरह के भूकंप कुछ ही सालों में थम गए, लेकिन कोयना में 20×30 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में अब भी सक्रिय है।
बोरहोल जिओफिजिक्स रिसर्च लेबोरेटरी के प्रमुख व विज्ञानी(जी) सुकान्ता रॉय कोयना प्रोजेक्ट में शामिल थे। वह कहते हैं कि इसके पीछे दो उद्देश्य थे: पहला तो वहां से चट्टानों के नमूने संग्रह करना और दूसरा ड्रिलिंग कर उसमें सिस्मोमीटर डालना। शोधकर्ताओं ने प्रायोगिक तौर पर 1.5 किलोमीटर गहरे 6 गड्ढे खोदने के बाद दिसम्बर 2016 से ड्रिलिंग करना शुरू किया। जून 2017 तक तीन किलोमीटर गहरी ड्रिलिंग पूरी हुई और 1.6-2.9 मीटर गहराई से चट्टानों के नमूने जुटाए गए। इन नमूनों की जांच में पाया गया कि सतह का पानी चट्टानों से रिसकर भीतर चला गया है और दरार पड़ी चट्टानों का इधर-उधर जाना आसान बनाता है। राय कहते हैं, “इस एक ड्रिलिंग से बने बोरहोल ने कई जानकारियां दी हैं, जो पूर्व में कई सतही पड़तालों में नहीं मिल पाई थीं।” इसको लेकर दूसरे तरह के प्रयोग भी हो रहे हैं और इन सबके बीच विज्ञानी दो तीन सालों में 5 किलोमीटर गहरी ड्रिलिंग की भी योजना बना रहे हैं।
यह बात तो साफ है कि पृथ्वी की परतों में इस ग्रह के बारे में कई तरह की गूढ़ जानकारियां दफ्न हैं। ये विज्ञानियों को भूकंप, ज्वालामुखी विस्फोट, सूक्ष्म जीवन, पूर्व के जलवायु, ग्रह के निर्माण और अन्य प्रक्रियाओं के बारे में अध्ययन करने में मदद करते हैं। इसी वजह से तमाम देश दशकों से पृथ्वी की सतह के भीतर ड्रिलिंग करते रहे हैं। ड्रिलिंग जमीन और समुद्र के भीतर की जाती है क्योंकि पूर्व के प्रयोगों के चलते ऐसा माना जाता है कि ये कम अशांत क्षेत्र हैं। रॉय कहते हैं कि दोनों जगहों पर ड्रिलिंग में जिस तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है, उसी तकनीक का प्रयोग हीरे और तेल के लिए ड्रिलिंग में होता है। ड्रिलिंग के लिए क्षेत्र के चयन में यह देखा जाता है कि चयनित क्षेत्र में ड्रिलिंग कितनी व्यावहारिक और क्षेत्र कितनी चिरस्थायी होगी। इसके बाद सतह और चट्टानों को काटने के लिए वहां उपकरण लाए जाते हैं।
दुनिया में सबसे पहला ड्रिलिंग अभियान साल 1960 में अमेरिका के प्रोजेक्ट मोहोल के तहत शुरू हुआ था। इस ड्रिलिंग का लक्ष्य क्रस्ट और मेंटल की सीमा, जिसे मोहोरोविसिक डिस्कंटिन्यूटी या मोहो कहा जाता है, तक पहुंचना था। यूएस नेशनल अकेडमी ऑफ साइंस के के मुताबिक, साल 1961 में उक्त टीम ने मैक्सिको के गुआवालूप में समुद्र के भीतर पांच छेद किए। इनमें से एक एक छेद 3 किलोमीटर पानी को पार कर समुद्रतल की 183 मीटर गहराई तक गया। ड्रिलिंग तकनीक बताने के लिए यह अभियान बहुत अहम था, लेकिन मगर फंड की कमी के चलते इस प्रोजेक्ट को बीच में ही बंद कर दिया गया।
इस मामले में रूस भी पीछे नहीं रहा। चट्टानों का निर्माण किन तत्वों से हुआ और इनकी भौतिक विशेषताएं तथा तकनीक में सुधार और नई तकनीक का ईजाद करने के लिए साल 1970 में रूस के उत्तरी पश्चिमी क्षेत्र के कोला पेनिंसुला में ड्रिलिंग शुरू की गई। साल 1989 तक 12.2 किलोमीटर गहरा छेद किया गया। इसे कोला सुपरडीप बोरहोल कहा जाता है और यह दुनिया का अब तक का सबसे पहले गहरा मानवकृत छेद है। आईओपी कॉन्फ्रेंस सीरीज: अर्थ एंड एनवायरमेंट साइंस में साल 2020 में छपे एक अध्ययन के मुताबिक, इससे विज्ञानियों को तीन किलोमीटर गहराई में स्थित चट्टानों के नमूने, जो चंद्र मिट्टी के जैसे थे, को जुटाने में मदद मिली। 10 किलोमीटर की गहराई में उन्हें प्राचीन जीवित जीव के क्षत-विक्षत अवशेष मिले, जिससे 300 करोड़ साल पहले जीवन शुरू होने के संकेत मिले। फंडिंग के मुद्दे को लेकर कोला प्रोजेक्ट रुक गया और साल 1995 में गड्ढे को बंद कर दिया गया।
दुनिया के कई देश कई सालों से इसी तरह जमीन और समुद्र में प्रयोग की कोशिश कर रहे हैं। साल 1995 में स्थापित इंटरनेशनल कॉन्टिनेंटल साइंटिफिक ड्रिलिंग प्रोग्राम (आईसीडीपी) में भारत समेत 22 देश शामिल हैं। यह कार्यक्रम जमीन पर ड्रिलिंग में मदद देता है। आईसीडीपी ने कोयना प्रोजेक्ट को फंड और शोध में मदद मुहैया कराई है।
इसी तरह साल 2003 में स्थापित इंटरनेशनल ओसिन डिस्कवरी प्रोग्राम (आईओडीपी) (इसे पहले इंटिग्रेटेड ओसिन ड्रिलिंग प्रोग्राम कहा जाता था) समुद्र में ड्रिलिंग से जुड़ा हुआ है और इसमें 21 मुल्क शामिल हैं। साल 2015 में गोवा के नेशनल सेंटर फॉर पोलर एंड ओसिन रिसर्च के विज्ञानी (जी) धनंजय पांडेय ने अरब सागर के लक्ष्मी बेसिन में आईओडीपी की ड्रिलिंग का नेतृत्व किया था। इसका उद्देश्य दक्षिणी एशिया के मॉनसून को समझना और यह पता लगाना था कि मॉनसून में तीव्रता कब आई। टीम ने 3.6 किलोमीटर गहरे पानी में जाकर 60 दिनों में समुद्रतल के नीचे 1.1 किलोमीटर गहरे दो छेद किए। सिद्धांत बताते हैं कि दक्षिण एशियाई मॉनसून की शुरुआत भारतीय और यूरेशियाई प्लेट के टकराने से हुई। इस टकराव के चलते हिमालय की ऊंचाई बढ़ी। हिमालय में वृद्धि हुई, तो उसने अरब सागर से आने वाली मौसमी आर्द्र हवाओं को रोक लिया।
संभवतः इसी के परिणामस्वरूप मौसमी वर्षण में बढ़ोतरी हुई। कुछ विज्ञानियों का मानना है कि वर्षण में तीव्रता 200-250 लाख साल पहले हुई, वहीं कुछ के मुताबिक, ऐसा 80 लाख साल पहले हुआ। हालांकि, प्रोजेक्ट से जो सैंपल मिले थे, उनके विश्लेषण के आधार पर पांडेय ने जो शोध साल 2017 में नेचर साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित किया, उससे पता चलता है कि तीव्रता 32-28 लाख साल पहले हुई होगी। पांडेय और उनकी टीम ड्रिलिंग के अगले मिशन के लिए प्रस्ताव तैयार कर रहे हैं। इस मिशन के तहत अंडमान द्वीप की भूगर्भीय विशेषताओं जैसे कि समुद्रतल के नीचे के विच्छेद को समझने की कोशिश की जाएगी। वह कहते हैं कि निकट भविष्य में मोहो (क्रस्ट और मेंटल के बीच सीमा) तक पहुंचना संभव हो सकेगा। उन्होंने कहा, “हमारे पास तकनीकी चुनौतियां हैं क्योंकि तापमान और दबाव बहुत ज्यादा होते हैं। लेकिन आईओडीपी गहराई में जाने को लेकर दृढ़ है।”
(‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )