शंभुनाथ

विश्व आदिवासी दिवस के उपलक्ष्य में 9 एवं 10 अगस्त 2023 को झारखंड की राजधानी रांची स्थित बिरसा मुंडा स्मृति उद्यान में दो दिवसीय झारखंड आदिवासी महोत्सव का आयोजन किया गया। महोत्सव में झारखंड समेत देश -विदेश की समृद्ध आदिवासी संस्कृति, परंपरा, वेशभूषा और खान-पान का अनोखा संगम देखने को मिला। सचमुच देश भर के आदिवासी समाज की वैभवशाली संस्कृति ने झारखंड आदिवासी महोत्सव में अपनी अमिट छाप छोड़ी। प्रस्तुत है महोत्सव पर ख्यात साहित्यकार शंभुनाथ की एक रिपोर्ट.


झाड़खंड आदिवासी महोत्सव में आकर अच्छा लगा। आने का मुख्य मकसद यहां आकर भाषण देना नहीं, कुछ अधिक निकटता से आदिवासी लोगों को जानना, सुनना और उनसे सीखना था। इस अवसर के लिए कथाकार Ranendra का आभारी हूं। उत्सव में विविध रंग थे, भारी भीड़ थी, नौजवान ज्यादा थे। आदिवासी व्यंजन — भाप से पकी चावल की पत्ता रोटी और चावल- गुड़ की मिठाई डंबू खाया जो काफी स्वादिष्ट था! पेड़े की तरह चिपटा रसगुल्ला भी! महुआ का लड्डू घर के लिए! अच्छे लगे यहां के संवाद प्रिय सरल लोग!

एक सत्र के अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में जो मैने कहा वह इस प्रकार है :
1) इस तरह का महोत्सव जरूरी है। यह तीन काम कर सकता है- आदिवासियों में आत्मविश्वास की सृष्टि, विविधता के मध्य संवाद और नए सांस्कृतिक प्रयोगों को बढ़ावा। ये तीनों चीजें इसलिए जरूरी हैं कि आज के समय में तरह- तरह से आदिवासियों के आत्मविश्वास को तोड़ा जा रहा है। उन्हें तरह तरह से बताया जा रहा है कि तुम लोगों के पास जो है उससे ज्यादा श्रेष्ठ चीजें हमारे पास हैं! इसके अलावा, विविधता को मिटाकर एकरूपता लाने की चेष्टा हो रही है। नए सांस्कृतिक प्रयोगों की जगह ’प्रिमिटिविज्म’ को बढ़ावा दिया जा रहा है!

2) इस समय दो जगहों से प्रिमिटिविज्म को उकसाया जा रहा है : ’स्टेट द्वारा स्पॉन्सर्ड प्रिमिटिविज्म’ जो बर्बरता बढ़ा रहा है। और ’फ्री मार्केट द्वारा स्पॉन्सर्ड प्रिमिटिविज्म’ जो भुक्खड़ता बढ़ा रहा है। प्रिमिटिविज्म से बिलकुल भिन्न चीज है ’आदिवासियत’!

3) आदिवासियत का संबंध दुनिया के एक महत्वपूर्ण जीवन दर्शन से है, जो प्रकृति साहचर्य, सामूहिकता, आत्म संयम, न्यायप्रियता, बुजुर्गों का सम्मान, स्त्री को समानाधिकार और संपूर्ण पृथ्वी से अनुराग अर्थात एक खास अनुरागपूर्ण वैश्विकता से बना है।
यह भी उल्लेखनीय है कि आदिवासियों की चेतना में स्थानीयता और सार्वभौमता के बीच गहरा संबंध है, जो आज के लोकल – ग्लोबल से भिन्न चीज है! निश्चय ही आदिवासियों की लड़ाई अब महज तीर धनुष दिखाकर नहीं, उनके महान जीवन दर्शन को सामने रखकर अर्थपूर्ण हो सकेगी। कहना न होगा कि गांधी के ईश्वर, विश्व और मनुष्य से संबंधित कई विचारों की प्रेरणा आदिवासी जीवन है। वे दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान जुलू जनजाति के संपर्क में आए थे और आदिवासी दर्शन के केंद्र में आत्मनिर्भरता को देखते थे।


4) मुझे लग रहा है कि जिस तरह नृतत्वशास्त्र और भाषाशास्त्र का इस्तेमाल मुख्य रूप से भिन्नता पैदा करने के औपनिवेशिक औजार के रूप में हुआ, उसी तरह समाजविज्ञान का भी भिन्नता पैदा करने के लिए ही ज्यादा इस्तेमाल हुआ है। 21वीं सदी भिन्नता के खेल की ही सदी है! यह खेल विद्वता के क्षेत्र में भी चला है।

1930 में रॉबर्ट रेडफील्ड ने ’ग्रेट ट्रेडीशन और लिटिल ट्रेडीशन’ का विचार शुरू किया था। वह आज भी थमा नहीं है। आदिवासियों का ज्ञान या हिंदी की लोकभाषाओं में आया ज्ञान कैसे ग्रेट ट्रेडीशन नहीं है? कैसे कोई दावा कर सकता है कि वह मुख्य धारा है और बाकी को गूंगे की तरह आकर उसमें शामिल हो जाना है? अपने को मुख्य धारा समझने वालों का यह अहंकार है कि बाकी सभी निम्न हैं। मुख्य धारा वस्तुतः आत्मसातीकरण का खेल है। इसके 3 रूप हैं : उदारवादी आत्मसातीकरण, धार्मिक आत्मसातीकरण और कारपोरेट आत्मसातीकरण! पहले का दौर खत्म हो गया। फिलहाल बाकी दो अपने खेल दिखा रहे हैं।

5) दर्शन की खूबी है कि इसमें तर्क की प्रधानता होती है, ’रीजनिंग’ की। और दुनिया में जितने भी दर्शन आए, वे स्थानीयतावादी न होकर सार्वभौम थे। दुनिया में लगभग 70 सालों से दर्शन को बहिष्कृत कर दिया गया है, क्योंकि भिन्नता का राजनीतिक खेल जरूरी हो गया। समाजविज्ञान को स्थानीय या सामुदायिक विशिष्टता और वंचनाओं की पहचान दर्शन को बल पहुंचाने के लिए करनी चाहिए थी, जबकि वह भिन्नता दिखाने और अंतरशत्रुताएं पैदा करने में लग गया, अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाने से चूक गया और रीजनिंग का महत्व घटता गया।

6) आदिवासी जीवन दर्शन शांतिपूर्ण और साहचर्यपूर्ण जीवन का दर्शन है। यह संपूर्ण पृथ्वी को अपना घर मानने का दर्शन है। यह मानववाद नहीं है जो स्वार्थ से भरकर मनुष्य को सृष्टि के केंद्र के रूप में देखता रहा है। मानववाद दुनिया में ’क्लाइमेट चेंज’ की भयंकर समस्या के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है। आदिवासी दर्शन मनुष्य को सृष्टि के केंद्र में नहीं रखता। इसके लिए पेड़- पौधों, नदियों, पहाड़ों, जीव जंतुओं का भी उतना ही महत्व है, जितना मनुष्य का!

7)आज आधुनिक नागरिक जीवन आदिवासियों के लिए भी यथार्थ है। अतः ’प्रकृति के साथ उनके सामंजस्य में व्यवधान न डालना’ और ’आधुनिक नागरिक जीवन में शामिल होना’, दोनों एक विरोधाभास है, यह एक हाथ से दो कबूतर पकड़ना है। अब तो रांची में मॉल ऑफ रांची खुल रहा है। यह कारपोरेट आत्मसातीकरण का रूप है, कितना बचा सकेंगे अपने को आदिवासी!
आदिवासियों के लिए एक बड़ी लड़ाई प्रकृति की निरभ्र गोद से कस्बा, शहर और आधुनिक जीवन की ओर बढ़ते हुए अपने जीवन दर्शन को बचाने और दुनिया में उसे फैलाने की है।

8) एक दूसरी बात अब जरूरी है। जनजातीय आत्मकेंद्रिकता की जगह भारत भर के आदिवासियों के बीच जनजातीय अंतर्संबंध और संवाद विकसित करने के बारे में सोचना चाहिए। झाड़खंड, मणिपुर आदि उत्तर पूर्व, दक्षिण भारत, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि सभी प्रांतों के बीच पृथ्वी को घर मानने जैसा ही अंतर-पुराजातीय भावना जरूरी है!! अंतर-जनजातीय विवाह को भी प्रोत्साहित करना चाहिए।
स्वायत्तता एक जरूरी तत्व है, पर इसमें एक और तत्व जोड़ना होगा — सहयात्रा : स्वायत्तता के साथ सहयात्रा! हिंसक भिन्नतावाद, खाइयों और दीवारों का जवाब बुद्धिसम्मत सहयात्रा ही हो सकता है।

9) यदि आदिवासियों का जीवन दर्शन नहीं बचा और अंतरपुराजातीय भावना विकसित नहीं हुई और जनजातियों के बीच तनाव रहा, भेदभाव रहा तो आदिवासी लोग अंततः दुतरफा आत्मसातीकरण के शिकार होंगे।
वे धार्मिक और कारपोरेटवादी आत्मसातीकरण के शिकार होंगे। वनवासी_ गिरिजन की धारणा आत्मसातीकरण का ही एक रूप है। आदिवासियों के बीच काफी हद तक यह अंतर्विरोध पैदा किया जा चुका है! वे काफी आत्मसात किए जा चुके हैं।

10) जैसे जैसे वैश्वीकरण के त्रासद नतीजे सामने आएंगे, आदिवासियों के जीवन दर्शन की सार्वभौम उपयोगिता स्पष्ट होती जाएगी!

11) जयपाल सिंह मुंडा ने कहा था, ’आप आदिवासियों को लोकतंत्र नहीं सिखा सकते। आपको खुद उनसे लोकतांत्रिक मूल्यों के बारे में सीखना होगा। आदिवासी जीवन लोकतंत्र की पहली पाठशाला है!’ यह सही कथन है।

12) आज पूछा जा सकता है, कारपोरेट कंपनियों ने अपने वर्क कल्चर के बारे में कहां से सीखा? बेखटके कहा जा सकता है, आदिवासियों की श्रम संस्कृति से! कारपोरेट कंपनियों के वर्क कल्चर के प्रमुख तत्व हैं : सामूहिकता, एक दूसरे का परस्पर आदर, श्रम का महत्व, साझा लक्ष्य और अंतरनिर्भरता। ये सभी गुण आदिवासी जीवन के हैं!

अंत में दो विडंबनाओं की ओर संकेत करना है : एक, आज के महानगर की सारी बुराइयां आदिवासी जीवन में घुस रही हैं और आदिवासी जीवन की एक भी अच्छाई शहरवासियों में नहीं आ पा रही है!
दूसरे, फिलहाल राजनीति के अधीन संस्कृति है और इसकी खूब काट- छांट, खींचतान हो रही है , राजनीतिज्ञों की छवियां सांस्कृतिक चिन्हों से बड़ी हो गई हैं। जबकि राजनीति को उदारवादी मिश्रणशील संस्कृति के अधीन होकर अपना बहुआयामी विकास करना चाहिए!

 

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