ललित मौर्या

क्या आप जानते है कि जलवायु समाधान के रूप में पेश की जा रही क्लाइमेट इंजीनियरिंग क्या है? यह कैसे काम करती है और क्यों इसको लेकर दुनिया भर के जलवायु वैज्ञानिक एकमत नहीं हैं। आइए समझते हैं इससे जुड़े कुछ बुनियादी सवालों के जवाब

क्या है क्लाइमेट इंजीनियरिंग?

क्लाइमेट इंजीनियरिंग, जिसे जियोइंजीनियरिंग के रूप में भी जाना जाता है। यह जलवायु में आते बदलावों के प्रभावों को कम करने या उसकी रोकथाम के लिए पृथ्वी की जलवायु प्रणाली में जानबूझकर, बड़े पैमाने पर किए हस्तक्षेपों से जुड़ी तकनीकों का सेट है। इसमें वायुमंडल से हानिकारक ग्रीनहाउस गैसों को हटाने या पृथ्वी के ऊर्जा संतुलन में हेरफेर करने के लिए डिजाइन की गई विभिन्न तकनीकें शामिल हैं। इन हस्तक्षेपों में वायुमंडल, महासागरों या भूमि में बड़े पैमाने पर हेरफेर करना शामिल हो सकता है।

क्यों क्लाइमेट इंजीनियरिंग पर किया जा रहा है विचार?

जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को संबोधित करने के साथ-साथ वैश्विक तापमान को कम करने और वायुमंडल में मौजूद अतिरिक्त ग्रीनहाउस गैसों को हटाने के लिए क्लाइमेट इंजीनियरिंग एक संभावित समाधान पेश कर सकती है। यही वजह है कि इन तकनीकों पर विचार किया जा रहा है।

बता दें कि वैश्विक तापमान नित नए शिखर पर पहुंच रहा है। ऐसे में पेरिस समझौते के तहत जो लक्ष्य निर्धारित किए थे वो अब दूर होते जा रहे हैं। ऐसे में वैज्ञानिक उन सभी समाधानों पर विचार कर रहे हैं जो धरती को जलवायु परिवर्तन के खतरों से सुरक्षित रखने में मददगार साबित हो सकते हैं।

कैसे काम करती है क्लाइमेट इंजीनियरिंग तकनीकें

क्लाइमेट इंजीनियरिंग से जुड़ी तकनीकों का उद्देश्य वायुमंडल से ग्रीनहाउस गैसों को हटाना या फिर ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए पृथ्वी के ऊर्जा संतुलन में संशोधन करना है। इन क्लाइमेट इंजीनियरिंग तकनीकों को मोटे तौर पर दो मुख्य प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है, इनमें पहला सौर विकिरण प्रबंधन (एसआरएम) और दूसरा वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड को हटाना (सीडीआर) है।

बता दें कि सौर विकिरण प्रबंधन के तहत विभिन्न तकनीकों की मदद से सूर्य के प्रकाश को वापस अंतरिक्ष में परावर्तित करना होता है। इसके लिए समताप मंडल में एरोसोल को इंजेक्ट करना या फिर छतों को हल्के रंगों में रंगना जैसे उपाय किए जाते हैं। वहीं सीडीआर के तहत औद्योगिक पैमाने पर कार्बन को हटाने के लिए बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे का निर्माण किया जाता है जबकि प्राकृतिक रूप से कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ2) को अवशोषित करने के लिए पेड़ लगाने जैसे उपाय किए जाते हैं।

क्या हैं इनसे जुड़े खतरे?

क्लाइमेट इंजीनियरिंग से जुड़े खतरों में पर्यावरण पर अनचाहे परिणाम, के साथ-साथ इनसे जुड़ी नैतिक चिंताएं भी शामिल हैं। इनकी वजह से होने वाले संभावित भू-राजनीतिक संघर्ष भी बड़ा खतरा हैं। यूनेस्को ने भी अपनी रिपोर्ट में इनको लेकर चिंता जताई है कि इन जियोइंजीनियरिंग तकनीकों को एक हथियार के रूप में भी उपयोग किया जा सकता है। ऐसे में इनसे सैन्य या भू-राजनीतिक उपयोग का जोखिम पैदा हो सकता है। इन तकनीकें की मदद से पृथ्वी की जलवायु को बड़े पैमाने पर बदलने से अप्रत्याशित प्रभाव सामने आ सकते हैं, और दीर्घकालिक प्रभावों को अब तक पूरी तरह से समझा नहीं गया है।

क्या जलवायु इंजीनियरिंग से संबंधित कोई नैतिक चिंताएं भी हैं?

यह सही है कि क्लाइमेट इंजीनियरिंग से जुड़ी नैतिक चिंताएं भी मौजूद हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक इन उपकरणों को बनाने के साथ-साथ इनके उपयोग का खर्च बहुत ज्यादा है, जो आर्थिक रूप से असमान देशों के बीच खासकर जोखिम से जुड़ी विषमताओं को और बढ़ा सकता है। बता दें कि पहले ही आर्थिक रूप से कमजोर देश जलवायु आपदाओं के साए में रह रहे हैं। ऐसे में यदि अनुकूलन के लिए खर्च होने वाले धन में की गई कटौती उनकी समस्याओं को कहीं ज्यादा बढ़ा सकती है। रिपोर्ट में चिंता जताई है कि क्लाइमेट इंजीनियरिंग मौजूदा जलवायु नीतियों को कमजोर कर सकती है। साथ ही यह उत्सर्जन में कमी और अनुकूलन से जुड़ी पहलों की ओर से धन और ध्यान दूसरी ओर आकर्षित कर सकती है।

क्या अंतराष्ट्रीय सहयोग भी रखता है मायने?

जलवायु परिवर्तन आज किसी एक देश की समस्या नहीं रह गई है, यह पूरी मानवता के लिए खतरा बन चुकी है। ऐसे में इसके किसी भी समाधान में अंतराष्ट्रीय सहयोग बेहद महत्वपूर्ण है। वहीं जब क्लाइमेट इंजीनियरिंग जैसी तकनीकों की बात करें जिसमें पृथ्वी की जलवायु प्रणाली में बड़े पैमाने पर हस्तक्षेप किए जाते हैं तो इनके प्रभाव किसी एक देश तक सीमित नहीं रहते।

ऐसे में देशों के बीच जानकारियों को साझा करने के साथ-साथ आपसी सहयोग भी बेहद मायने रखता है। वैसे भी हितों के संभावित टकराव को दूर करने, पारदर्शिता सुनिश्चित करने और वैश्विक परिणामों वाली एकतरफा कार्रवाइयों को रोकने के लिए एक व्यापक तंत्र जरूरी है।

क्यों इनपर एकमत नहीं वैज्ञानिक?

भले ही यह तकनीकें एक बेहतर भविष्य की उम्मीदें जगाती हैं, लेकिन साथ ही इनको लेकर अनिश्चितताएं भी बनी हुई हैं और जब बात इतने बड़े पैमाने पर प्राकृतिक प्रणालियों से छेड़छाड़ से जुड़ी हो तो जोखिम का खतरा बना रहना लाजिमी भी है। यही वजह है कि अनपेक्षित परिणामों, नैतिक निहितार्थों और संभावित भू-राजनीतिक संघर्षों के बारे में चिंताएं जलवायु इंजीनियरिंग को घेरे हुए हैं।

यूनेस्को के मानव विज्ञान और सामाजिक मामलों की सहायक निदेशक गैब्रिएला रैमोस का इस बारे में कहना है कि, “पर्यावरण आपातकाल को देखते हुए, हमें क्लाइमेट इंजीनियरिंग सहित सभी उपलब्ध विकल्पों पर विचार करना चाहिए।” हालांकि उनके मुताबिक इनका कार्यान्वयन पेरिस समझौते की प्रतिबद्धताओं की कीमत पर नहीं होना चाहिए।

क्या राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय स्तर पर क्लाइमेट इंजीनियरिंग से जुड़े कोई कायदे-कानून मौजूद हैं?

नहीं, वर्तमान में विशेष रूप से क्लाइमेट इंजीनियरिंग को नियंत्रित करने वाले कोई व्यापक अंतरराष्ट्रीय कानून या नियम मौजूद नहीं हैं। हालांकि इस विषय पर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सक्रिय रूप से चर्चा जरूर की गई है, लेकिन नियामक ढांचे अभी भी विकास के शुरुआती चरण में हैं।

क्या यह यह तकनीकें जलवायु अनुकूलन और शमन के पारम्परिक प्रयासों की जगह ले सकती है?

एक बात तो पूरी तरह स्पष्ट है कि क्लाइमेट इंजीनियरिंग, जलवायु अनुकूलन और शमन की  पारंपरिक रणनीतियों का विकल्प नहीं है। ऐसे में ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन को कम करने और मौजूदा जलवायु प्रभावों से निपटने के महत्व पर जोर देते हुए इन्हें एक पूरक उपकरण के रूप में देखा जाना चाहिए।

कैसे आम लोग भी इन तकनीकों का हिस्सा बन सकते हैं?

इन तकनीकों को लेकर आम लोगों में जागरूकता और उनका सहयोग जरूरी है। इतने बड़े निर्णेय लेते समय आम लोगों की राय को दरकिनार नहीं किया जा सकता। लोगों को इससे जुड़ी चर्चाओं का हिस्सा बनने का हक है। साथ ही इससे जुड़ी रिसर्च के बारे में उनको भी जानकारी होनी चाहिए। यह पारदर्शी और समावेशी निर्णय लेने में मददगार साबित हो सकता है। नैतिक विचारों को संबोधित करने और क्लाइमेट इंजीनियरिंग प्रौद्योगिकियों के सही राह पर चलने के लिए आम लोगों की राय महत्वपूर्ण है।

आज क्लाइमेट इंजीनियरिंग से जुड़ी रिसर्च और विकास किस स्थिति में है?

वर्त्तमान में देखें तो क्लाइमेट इंजीनियरिंग अभी अपने शुरूआती चरणों में है। इससे जुड़ी विभिन्न तकनीकों की व्यवहार्यता, जोखिम और संभावित लाभों पर रिसर्च जारी है। हालांकि इन तकनीकों की व्यापक तैनाती में अभी और वक्त लगेगा, क्योंकि बड़े पैमाने पर कार्यान्वयन से पहले उनके नफे नुकसान को बेहतर ढंग से समझने के लिए और रिसर्च की आवश्यकता है।

क्या है भविष्य?

इसमें कोई शक नहीं कि इस तरह की तकनीकें बढ़ते उत्सर्जन और जलवायु में आते बदलावों को सम्बोधित करने में मददगार साबित हो सकती हैं। हालांकि इसके अप्रत्याशित परिणामों से बचने और सही संतुलन बनाने के लिए गहन वैज्ञानिक अनुसंधान, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के साथ इससे जुड़े नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर भी सावधानीपूर्वक विचार करने की जरूरत है।

     (‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार)

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