वेदप्रिय
विज्ञान के इतिहास में बहुत सी दिलचस्प एवं महत्वपूर्ण बहसें या यूं कहें कि विवादित मुद्दे दर्ज हैं। इन बहसों का वैचारिक एवं दार्शनिक स्तर पर बहुत योगदान है ।कुछ बहसें ऐसी हैं ,जो वैज्ञानिकों के बीच मान्यताओं एवं सिद्धांतों को लेकर हैं ।ये वैज्ञानिक समझदारियों को आगे बढ़ा रही हैं। सामान्य व्यक्तियों के इनसे सरोकार न के बराबर हैं। इनका सामाजिक स्तर पर तुरंत कोई प्रभाव भी पड़ता नजर नहीं आता। ये बहसें लंबी चलती हैं। ये जल्दी से खत्म होने का नाम नहीं लेती । ‘क्वांटम यांत्रिकी’ की बहस ऐसी ही है। यह सन 1927 में ‘ साल्वे कॉन्फ्रेंस ‘ में उठी थी। यह दो नोबेल वैज्ञानिकों डॉक्टर नील्स बोहर व डॉक्टर अल्बर्ट आइंस्टीन से शुरू हुई। इन्होंने जल्दी ही अनेक दिग्गज वैज्ञानिकों को अपने बीच में लपेट लिया। आइंस्टीन तो जीवनपर्यंत इसमें उलझे रहे ।पहेली तो यह आज तक भी नहीं सुलझी है। डॉक्टर रिचर्ड फिएनमन (नोबेल) तो यह कहकर पीछा छुड़ाने की कोशिश करते हैं कि किसी भी वैज्ञानिक के लिए यह कहना ही अधिक सुरक्षित है कि वह इस ‘क्वांटम रहस्य ‘ को नहीं जानता। जो भी इस बहस में डूबा है सुरक्षित बाहर नहीं निकल पाया है। यह वैज्ञानिकों के बीच उच्च स्तरीय अध्ययन का मामला है। यह कभी अंजाम तक शायद न भी पहुंचे।
कुछ बहसें ऐसी भी हैं जो दार्शनिक स्तर की हैं, जिनमें सामान्य व्यक्ति (पाठक) रुचि रखता है ।ये सीधे-सीधे हर किसी के दैनिक जीवन को प्रभावित करती हैं। अंतिम निर्णयों तक तो ये भी नहीं जा रही। ये दार्शनिकों एवं विचारकों को उलझाए रखती हैं ।कुछ बहसें एवं मुद्दे आस्था के सवालों पर भी हैं।स्थापित मान्यताओं के इतर जाकर कुछ भी कहना इतना सरल नहीं होता। और यह बहुत अर्थ रखता है कि आप कहां स्पष्ट होते हैं। खगोल के क्षेत्र में ऐसी ही एक बहस की शुरुआत ‘सूर्य केंद्रिक ‘ प्रणाली के रूप से कॉपरनिकस ने की थी(15वीं सदी)। यंत्रों के आविष्कार एवं सटीक गणनाओं के द्वारा यह तथ्यों के रूप में जल्दी ही स्थापित भी हो गई। आज यह विवादित नहीं है। कॉपरनिकस के बाद दुनिया में शायद सबसे बड़ा विवाद विज्ञान में चार्ल्स डार्विन की खोज ने किया है। लेकिन डार्विन का मत कैसे सिद्ध करके दिखाया जाए, यह सरल नहीं है ।
‘उत्पत्ति सिद्धांत’ के लिए ‘ इंटेलिजेंस डिवाइन थ्योरी ‘ इस कदर प्रभावी(हावी) है कि इसके विरुद्ध जाकर कुछ कहना खांडे की धार से कुछ कम नहीं ।हम सब जानते हैं कि उत्पत्ति के लिए एक सर्वज्ञ उत्पत्तिकर्ता की अवधारणा एक दार्शनिक विवेचना है ।यह कोई वैज्ञानिक स्तर की खोज या व्याख्या का परिणाम नहीं है। इसके विरुद्ध कहा गया एक भी शब्द सीधे-सीधे उत्पत्तिकर्ता को चुनौती समझ लिया जाता है ।लगभग सभी शास्त्र इसके समर्थन में हैं। यह विचार एक तरह से हमारे ‘जीन’ में रच बस गया है ।अंततोगत्वा इस पर की गई बहस एक आस्तिक /नास्तिक बहस बन जाती है ।वैसे नास्तिकता का सवाल डार्विन से बहुत पहले का ही है ।लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि वैज्ञानिक अध्ययनों ( विस्तृत) के बाद ऐसे निष्कर्ष पर आना मायने रखता है। यूं तो बहुत से ऐसे व्यक्ति मिल जाएंगे जो सहजता- सरलता से नहीं मानने की बात का समर्थन कर देंगे। ऐसा कहने के पीछे वे किसी- न – किसी आइकॉन की तरफदारी से ही प्रेरित होते हैं ,अध्ययन व शोधों से कम।
हम सब जानते हैं कि डार्विन की पुस्तक सन 1859 में आ गई थी। वैसे तो ए आर वैलेस भी समांतर अध्ययनों से इसी निष्कर्ष तक पहुंच रहे थे। लेकिन डार्विन के सबूत व विश्लेषण ज्यादा गहरे( विस्तृत ) थे ।पुस्तक के विचार( आशय ) पर विवाद तो तुरंत शुरू हो गया था। जल्दी ही अंतरराष्ट्रीय स्तर की बहस भी (औपचारिक) बिशप विलबरफोर्स के साथ हो गई थी। हम यह भी जानते हैं कि डार्विन ताउम्र सीधेसीधे इन बहसों में कभी नहीं उलझे। उनकी ओर से अधिकतर पैरवी उनके प्रबल समर्थक हक्सले करते थे ।डार्विन बहुत संकोची थे एवं विनम्र थे। लेकिन विचारों पर दृढ़ थे। ये बहसों में उलझना पसंद नहीं करते थे ।शुरू में तो ये स्वयं भी धार्मिक व्यक्ति ही थे ।ये चर्च जाया करते थे ।
इनके एक प्रबल समर्थक एडवर्ड बी अवेलिंग( 1851- 1898) एक प्रसिद्ध जीव विज्ञानी एवं समाजवादी दिग्गज थे ।ये वही व्यक्ति थे जिन्होंने कार्ल मार्क्स एवं एंगल्स की अधिकतर पुस्तकों का अनुवाद किया था ।इन्होंने डार्विन पर भी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक लिखी थी। ये लगभग अपने अंतिम 10 वर्ष मार्क्स की सबसे छोटी पुत्री अलीनर मार्क्स के साथ (1884) में अनऑफिशियल मैरिज के रूप में रहे थे। ये भी एक जानीमानी हस्ती थे।इन्होंने डार्विन से व्यक्तिगत रूप में सीधे-सीधे पूछा था कि आप अपने मत को स्पष्ट क्यों नहीं करते। डार्विन ने कहा था- इस प्रकार के धार्मिक विश्वासों के सवालों से मैं बचना चाहता हूं। मैं विज्ञान तक सीमित लेकिन दृढ़ रहना चाहता हूं।
एक बार एक युवा बैरिस्टर फ्रांसिस मेकडरमोट का 23 नवंबर, 1880 को डार्विन के पास लिखा एक पत्र आया। इसमें इन्होंने लिखा था ,यदि आपकी पुस्तकें मैं पढ़ लूं तो मुझे उम्मीद है कि मैं बाइबल में अपना विश्वास नहीं खोऊंगा ।क्योंकि उन दिनों प्रायःऐसी चर्चा थी कि डार्विन को पढ़ने के बाद लोग धर्म में विश्वास खो बैठते हैं ।इन्होंने आगे लिखा- मेरा आपके पास पत्र लिखने का एक विशेष प्रयोजन है ।मैं यह वायदा करता हूं कि मैं इस बात को व्यक्तिगत रखूंगा और कभी सार्वजनिक नहीं करूंगा। आप कृपया मुझे केवल हां या ना में स्पष्ट बताएं कि क्या आप न्यू टेस्टामेंट (बाइबल )में विश्वास करते हैं या नहीं ।
डार्विन ने अपनी चुप्पी तोड़ने का निर्णय किया ।इन्होंने अपनी वैचारिक ईमानदारी का परिचय दिया ।अगले ही दिन इन्होंने इस पत्र का अपनी लेटर पैड पर उत्तर दिया। इन्होंने किसी भी प्रकार की दाएं -बाएं कोई बात नहीं की। पत्र इस प्रकार है–
Private
Nov.24′ 1880
Dear Sir
I am sorry to have to inform you that I do not believe in the Bible as a divine revelation and therefore not in Jesus Christ as the son of God.
Yours faithfully
Sd. Ch.Darwin
Francis McDermott ने भी अपना वायदा निभाया। काफी समय तक यह पत्र दुनिया की नजरों में नहीं आया। वैसे तो डार्विन ने हजारों पत्र लिखे थे। आखिरकार 21 सितंबर, 2015(एक सदी से ज्यादा समय बाद ) को यह पत्र दुनिया के सामने खुला ।न्यूयॉर्क की एक कंपनी Bonhams(1793 में स्थापित) के निदेशक Cassandra Hatton ने नीलामी में इसे उजागर किया ।यह कंपनी इस प्रकार के रेयर उपलब्ध चीजों को खरीदती है ।आप जानकर हैरान होंगे कि इस एक पंक्ति के पत्र की कीमत 197000 डॉलर है। यह अब तक का सबसे महंगा एक पंक्ति का ‘दस्तावेज’ है ।यह विश्व रिकॉर्ड है।
इस पत्र के लिखे जाने के लगभग 2 वर्ष बाद डार्विन की मृत्यु हो गई थी । उनके अंतिम दिनों में बहुत जोरों से एक अफवाह फैली थी कि डार्विन का बाइबिल में विश्वास लौट आया है और वेआस्तिक हो गए हैं। इस बारे में डार्विन के परपोत्र Matthew Chapmaanका कहना है कि इस प्रकार की अफवाहें प्रायः फैला दी जाती हैं। मृत्यु से 2 वर्ष पूर्व का लिखा यह पत्र स्पष्ट गवाही है कि …….this is a clear and honest expression of his Atheism.” डार्विन की पुत्री ने भी उस समय इस अफवाह को पूरी तरह नकार दिया था ।
डार्विन आज दुनिया में ‘उत्पत्ति’ की बहस में एक अकेले मजबूत ध्रुव के रूप में अटल खड़े हैं।Chapmaanआगे कहते हैं–” I find his Atheism interesting. When you balance that against his scientific achievements which were so rigorous and so detailed and so prolific,it should be a fairly small thing. Certainly in England and Europe,this would not be much off an issue. He was a great scientist and this was the conclusion he came to.”
डार्विन ने विज्ञान के माध्यम से एक दार्शनिक बहस (सर्वाधिक महत्वपूर्ण और सर्वाधिक विवादित )शुरू की है । विज्ञान के प्रति हमारी निष्ठा का तकाज़ा है कि हम इसे आगे बढ़ाएं।
(लेखक हरियाणा के वरिष्ठ विज्ञान लेखक एवं विज्ञान संचारक हैं तथा हरियाणा विज्ञान मंच से जुड़े हैं )