वेदप्रिय

विज्ञान के विमर्श को प्रायः हम इन्हीं अर्थों में लेते हैं कि यह ज्ञान की प्यास है,यह सत्य की खोज है,यह एक क्रमबद्ध अध्ययन है,यह प्रकृति का अध्ययन है आदि -आदि। ये सभी बातें सही हैं। लेकिन इस प्रकार विज्ञान को समझते हुए हम कई बार अमूर्तता की ओर बढ़ जाते हैं। इस विमर्श को कुछ ठोस,जबाबदेह और भविष्योन्मुखी बनाने के लिए हमें विज्ञान को और कुछ कोणों से देखना होगा। एक पक्ष है कि विज्ञान का अध्ययन विज्ञान के इतिहास का अध्ययन भी है।

विज्ञान के इतिहास का अध्ययन केवल वैज्ञानिकों द्वारा की जाने वाली खोजों के रिकॉर्ड का अध्ययन ही नहीं है। यह दो परस्पर विरोधी विचारों के संघर्ष का एक मुकम्मल बयान भी है। इस संघर्ष में एक और मनुष्य की बहुत मूल्यवान बौद्धिक क्षमता लगी है तथा दूसरी ओर घोर रूढ़िवादी परंपराओं का दबाव व इस दबाव से निकलने की कवायद भी शामिल है। वर्तमान परिस्थितियों में जिस प्रकार संस्कृति व परंपराओं की दुहाई देकर मिथकों को वैज्ञानिक सत्य की जगह स्थापित करने पर जो जोर है, इस वातावरण में जन विज्ञान के लिए यह जरूरी पक्ष बन जाता है कि विज्ञान की प्रगति में बाधक इस संघर्ष को समझा जाये और इस प्रतिरोध का डटकर सामना किया जाए।

एक दूसरा कोण है जो डी.डी.कोसांबी ने विज्ञान को परिभाषित करते हुए कहा है। उन्होंने कहा है कि आवश्यकता की सही पहचान ही विज्ञान है ।अर्थात एक समय विशेष पर मनुष्य की मूलभूत जरूरतों की सही पहचान करना ही विज्ञान है।यदि आवश्यक मुद्दे कई हो जाते हैं तो प्राथमिकताओं के चुनाव की बात हो सकती है। तात्कालिक जरूरतों को रेखांकित किया जा सकता है।इसमें जनता के बड़े हिस्से की जरूरतों की बात है।अभी 3 वर्ष पहले ही हमारी प्राथमिकता कोरोना से निपटने की रही। लेकिन यह भी क्या बात हुई कि यदि आज अधिकांश आबादी भुखमरी ,बीमारियों एवं जाति -लिंग -नस्लभेद आदि के चलते सामाजिक दमन का शिकार हो और दुनिया का आधे से ज्यादा बजट युद्ध, नशीली दवाओं एवं सौंदर्य प्रसाधनों के उद्योगों पर खर्च होता हो।ब्रेख्त के ‘गैलीलियो’ नाटक में नायक अपने शिष्य आंद्रिया से कहता है- सितारों की गतियां तो स्पष्ट हो गई हैं। मगर जनसाधारण के लिए अभी तक उनके मालिकों की गतियों का अनुमान लगाना असंभव है।

नक्षत्रों को नाप लेने की लड़ाई तो जीत ली गई है, लेकिन रोमन गृहिणी की दूध के लिए लड़ाई उसके विश्वास के कारण हर बार हारी जा रही है। हम चाहे कितनी ही बड़ी वैज्ञानिक व तकनीकी ऊंचाइयां हासिल कर ले जब तक जनसाधारण की मूलभूत जरूरतें पूरी नहीं होंगी तो यह विज्ञान व तकनीकी ऊंचाइयां जनसाधारण के लिए उतने ही बड़े शोषण का हथियार बनेंगे ।
हम सब जानते हैं कि विज्ञान एक मानवीय श्रम है।इसे हर समय एक विशेष प्रकार के सामाजिक परिवेश में रहकर ही अपना काम करना पड़ता है ।यह परिवेश विज्ञान के कार्य को प्रभावित करता है। निसंदेह विज्ञान भी सामाजिक परिवेश को प्रभावित करता है। इसलिए विज्ञान को अपने विचारों के समूचे मूल्य व लक्ष्यों तक पहुंचने के लिए जिस संघर्ष व प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है, उसे ठोस रूप में चिन्हित करने की जरूरत है, चाहे वह राजनीति ही क्यों न हो।इस बारे में बोरिस हसन का व्याख्यान पढ़ने योग्य है।यह इन्होंने सन 1931में इंग्लैंड में हुई 2nd International Congress of History of Science में न्यूटन के ग्रंथ प्रिन्सिपिया को आधार बनाते हुए दिया था।प्रोफेसर जे. डी.बर्नल की पुस्तक ‘विज्ञान के सामाजिक कार्य ‘ इस संदर्भ में एक श्रेष्ठ कृति है।जब विज्ञान का कार्य है ही सामाजिक कार्य तो इसका Social Audit क्यो नहीं?विज्ञान के किसी भी क्षेत्र का कोई भी मौलिक कार्य क्यों न हो अंततोगत्वा इसे सामाजिक तानेबाने का हिस्सा होना ही होता है।


सामाजिक ढांचे व वैज्ञानिक संस्थाओं के जनतांत्रिकीकरण किए बिना यह काम कठिन है ।इन सभी ढांचों को जिम्मेदार ठहराये बिना यह आंदोलन अधूरा है। क्योंकि विज्ञान तो हमें Scopes बताएगी जबकि इनके अनुप्रयोग वह न्यायसंगतता की बात तो सामाजिक ढांचे के अंतर्गत ही आएगी ।इसलिए इन पर सवाल क्यों नहीं? वैसे भी यदि विज्ञान के कार्यों का फल अधिकाधिक समाज के तबके तक नहीं पहुंचता है तो उसका विज्ञान विरोधी हो जाना लगभग तय समझो। इससे विज्ञान भी स्वयं घाटे में रहता है। क्योंकि विज्ञान को अपने कार्य का पूरा फीडबैक ही नहीं मिल पाता। इसलिए विज्ञान की पहुंच सब तबकों तक पहुंचना जन -विज्ञान आंदोलन का एक अनिवार्य काम है ।

यदि संक्षेप में कहा जाए तो जन- विज्ञान आंदोलन के समक्ष निम्नलिखित चुनौतियां व कार्य आते हैं :
–जनता की समस्याओं को प्राथमिकता में समझना।
— जनता भी इस बात को समझ सके कि विज्ञान का कार्य हम सब की सांझी जिम्मेवारी है,इसलिए उनके बीच रहकर उनकी भाषा में व उनके स्तर के अनुरूप उतर कर विज्ञान को संप्रेषित करना।
— जनता को ऐसे मुद्दों पर लामबंद करना। उन्हें इस आंदोलन में शामिल करते हुए विज्ञान की इस जरूरत को एक मांग के रूप में स्थापित करना।
— वरिष्ठ वैज्ञानिक, विज्ञान व तकनीक की नीतियों का अध्ययन कर इन्हें जनसापेक्ष दिशा में ले जाने के सुझाव व प्रयास करें।
— शोध व अध्ययन के क्षेत्रों को समझना व इन पर किए जाने वाले अनुदान पर निगाह रखना। क्योंकि यह अनुदान जनता का पैसा है ।
–आज विश्व में विचारों की प्रतिस्पर्धा है ।विचारों की इस होड़ में वैज्ञानिक मंचों का होना बहुत जरूरी है। इसलिए जन -विज्ञान आंदोलन के लिए संस्थाओं का होना, इनका मजबूत होना व इनकी नेटवर्किंग होना बहुत जरूरी है।
— हमें हमारा विश्वदृष्टिकोण इस प्रकार रखना होगा कि सामाजिक परिस्थितियां शाश्वत नहीं होती हैं। यह मानवीय प्रयासों से बदलती है। बदली भी हैं ।और बदलेंगी भी। पिछली सदी में दुनिया में इनका एक प्रयोग अक्टूबर क्रांति के बाद हो चुका है।

— हमें इस बात पर ज्यादा जोर देना चाहिए कि विज्ञान का काम केवल भौतिक यथार्थ को समझना ही नहीं है अपितु सामाजिक समस्याओं के हल के प्रयास भी करना है ।इस तरह यह एक इंट्रडिसीप्लिनरी काम है। ‘विज्ञान- विधि’ न केवल विज्ञान के विषयों तक सीमित है अपितु यह नैतिकता से चलते हुए अर्थशास्त्र व राजनीति तक अपना दखल व औचित्य रखती है ।
–जनता का विज्ञान में भरोसा कायम रहे, यह एक बड़ी चुनौती है ।क्योंकि एक आम आदमी के लिए उसकी कमसमझी व प्रचार माध्यमों के चलते वह युद्ध, कीटनाशकों के प्रभाव, प्रदूषण आदि समस्याओं के लिए विज्ञान को कसूरवार ठहरा देता है । जन विज्ञान आंदोलन का पहला और अंतिम वाक्य यही है कि विज्ञान सामाजिक परिवर्तन के लिए है। यह एक बेहतर कल के लिए है।

      (लेखक हरियाणा के वरिष्ठ विज्ञान लेखक एवं विज्ञान संचारक हैं तथा हरियाणा विज्ञान मंच से जुड़े हैं )

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