प्रदीप

ऑल इंडिया पीपुल्स साइंस नेटवर्क (AIPSN) के आह्वान पर अभी देशभर में करीब चार माह व्यापी “साइंटिफिक टेंपर कैंपेन” (वैज्ञानिक चेतना अभियान) का आयोजन किया जा रहा है। यह अभियान अभी हाल ही में नोबेल पुरस्कार विजेता महान वैज्ञानिक सी वी रमन एवं मैडम क्यूरी के जन्मदिन 7 नवंबर पर शुरू हुआ एवं राष्ट्रीय विज्ञान दिवस 28 फरवरी 2024 तक चलेगा। ऐसे में देश में साइंटिफिक टेंपर को प्रोत्साहित करने, आगे बढ़ाने वाले देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का याद आना स्वाभाविक है। आज 14 नवम्बर को पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन है। इस अवसर पर प्रस्तुत है प्रदीप कुमार (प्रमुख विज्ञान लेखक, विज्ञान संचारक एवं तकनीकी विशेषज्ञ) का विशेष आलेख –

‘विज्ञान ही वह इकलौता जरिया है जो भूख और गरीबी को मिटा सकता है.’ यह कथन आज नहीं बल्कि आज से तकरीबन सत्तर साल पहले ही कहा गया था. इस बात को जानने, मानने और कहने वाले महाविभूति थे अपने देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू. नेहरू ने भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास में बेहद रुचि ली. जैसा कि उन्होने स्वयं स्पष्ट शब्दों में कहा है : ‘राजनीति मुझे अर्थशास्त्र की ओर ले गई और उसने मुझे अनिवार्य रूप से विज्ञान और अपनी सभी समस्याओं और जीवन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने की ओर प्रेरित किया. सिर्फ विज्ञान ही भूख और गरीबी की समस्याओं का समाधान कर सकता है.’

भारत की स्वतंत्रता और उसके नए संविधान के लागू होने के साथ ही देश की प्रगति की नींव रखी गई. स्वतंत्रता के तुरंत बाद हमारे देश का नेतृत्व आधुनिक भारत के निर्माता जवाहरलाल नेहरू को सौंपा गया. नेहरू का यह मानना था कि भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का एक ही रास्ता है- विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को विकास से जोड़ा जाए. भारतीय विज्ञान के नेहरू युग को वास्तव में भारतीय विज्ञान के उत्कर्ष का युग कहा जा सकता है. नेहरू युग का सबसे जरूरी तत्व नेहरू की यह प्रबल धारणा थी कि भारत के उज्ज्वल भविष्य के लिए विज्ञान ही एकमात्र कुंजी है. वास्तव में स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले ही नेहरू ने सन् 1938 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस की एक बैठक में कहा था: ‘विज्ञान जीवन की वास्तविक प्रकृति है. केवल विज्ञान की ही सहायता से भूख, गरीबी, कुतर्क और निरक्षरता, अंधविश्वास एवं खतरनाक रीति-रिवाजों और दकियानूसी परम्पराओं, बर्बाद हो रहे हमारे विशाल संसाधनों, भूखों और सम्पन्न विरासत वाले लोगों की समस्याओं का समाधान किया जा सकता है. आज की स्थिति से अधिक सम्पन्न भविष्य उन लोगों का होगा, जो विज्ञान के साथ अपने संबंध को मजबूत करेंगे.’

भारत की स्वतन्त्रता के बाद देश के पहले प्रधानमंत्री को इस बात का भलीभांति बोध था कि वैज्ञानिकों सहित हमारे लोगों को तर्कहीनता, धार्मिक रूढ़िवादिता और अंधविश्वासों ने जकड़ा हुआ है. वैज्ञानिक दृष्टिकोण के महत्त्व को नेहरु ने सन् 1946 में अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में विचारार्थ प्रस्तुत किया था. उन्होने इसे लोकहितकारी और सत्य को खोजने का मार्ग बताया था. दरअसल वैज्ञानिक दृष्टिकोण किसी स्थिति के मूल कारणों के वस्तुगत विश्लेषण करने पर ज़ोर देती है. वैज्ञानिक दृष्टिकोण मुक्त और निर्बंध खोज की प्रवृत्ति पर, सवाल करने और खुद से प्रश्न किए जाने की स्वीकृति की अपेक्षा करती है और वह किसी भी ऐसे व्यक्ति को नहीं स्वीकार करती जिसकी बात अकाट्य हो.

गौरतलब है कि नेहरु ने ही हमारे शब्द-ज्ञान में ‘साइंटिफिक टेम्पर’ (वैज्ञानिक दृष्टिकोण) शब्द जोड़ा. वे डिस्कवरी ऑफ इंडिया में लिखते हैं : ‘आज के समय में सभी देशों और लोगों के लिए विज्ञान को प्रयोग में लाना अनिवार्य और अपरिहार्य है. लेकिन एक चीज विज्ञान के प्रयोग में लाने से भी ज्यादा जरूरी है और वह है वैज्ञानिक विधि जो कि साहसिक है लेकिन बेहद जरूरी भी है और जिससे वैज्ञानिक दृष्टिकोण पनपता है यानी सत्य की खोज और नया ज्ञान, बिना जांचे-परखे किसी भी चीज को न मानने की हिम्मत, नए प्रमाणों के आधार पर पुराने नतीजों में बदलाव करने की क्षमता, पहले से सोच लिए गए सिद्धांत की बजाय, प्रेक्षित तथ्यों पर भरोसा करना, मस्तिष्क को एक अनुशासित दिशा में मोड़ना- यह सब नितांत आवश्यक है. केवल इसलिए नहीं कि इससे विज्ञान का इस्तेमाल होने लगेगा, लेकिन स्वयं जीवन के लिए और इसकी बेशुमार उलझनों को सुलझाने के लिए भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण मानव को वह मार्ग दिखाता है, जिस पर उसे अपनी जीवन-यात्रा करनी चाहिए. यह दृष्टिकोण एक ऐसे व्यक्ति के लिए है, जो बंधन-मुक्त है, स्वतंत्र है.’
प्राकृतिक घटनाओं, क्रियाओं और उनके पीछे के कारण ढूढ़ने की मानवीय जिज्ञासा ने एक सुव्यवस्थित विधि को जन्म दिया जिसे हम ‘वैज्ञानिक विधि’ या ‘वैज्ञानिक पद्धति’ के नाम से जानते हैं. सरल शब्दों में कहें तो वैज्ञानिक जिस विधि का उपयोग विज्ञान से संबंधित कार्यों में करते हैं, उसे वैज्ञानिक विधि कहते हैं. वैज्ञानिक विधि के प्रमुख पद या इकाईयां हैं : जिज्ञासा, अवलोकन, प्रयोग, गुणात्मक व मात्रात्मक विवेचन, गणितीय प्रतिरूपण और पूर्वानुमान. विज्ञान के किसी भी सिद्धांत में इन पदों या इकाईयों की उपस्थिति अनिवार्य है. विज्ञान का कोई भी सिद्धांत, चाहे वह आज कितना भी सही लगता हो, जब इन कसौटियों पर खरा नहीं उतरता है तो उस सिद्धांत का परित्याग कर दिया जाता है.

वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले व्यक्ति अपनी बात को सिद्ध करने के लिए वैज्ञानिक विधि का सहारा लेते हैं. आप सोच रहे होगें कि इस वैज्ञानिक विधि का उपयोग केवल विज्ञान से संबंधित कार्यों में ही होता होगा, जैसाकि मैंने ऊपर परिभाषित किया है. परंतु नेहरू के मुताबिक ऐसा नहीं है, यह हमारे जीवन के सभी कार्यों पर लागू हो सकती है क्योंकि इसकी उत्पत्ति हम सबकी जिज्ञासा से होती है. इसलिए प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह वैज्ञानिक हो अथवा न हो, वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला हो सकता है. दरअसल, वैज्ञानिक दृष्टिकोण दैनिक जीवन की प्रत्येक घटना के बारे में हमारी सामान्य समझ विकसित करती है. नेहरू जी के अनुसार इस प्रवृत्ति को जीवन में अपनाकर अंधविश्वासों एवं पूर्वाग्रहों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है. उनका कहना था कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मतलब महज परखनली को ताकना, इस चीज और उस चीज को मिलाना और छोटी या बड़ी चीजें पैदा करना नहीं है. वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मतलब है दिमाग को और ज़िंदगी के पूरे ढर्रे को विज्ञान के तरीकों से और पद्धति से काम करने के लिए प्रशिक्षित करना.
वैज्ञानिक दृष्टिकोण का संबंध तर्कशीलता से है. वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार वही बात ग्रहण के योग्य है जो प्रयोग और परिणाम से सिद्ध की जा सके, जिसमें कार्य-कारण संबंध स्थापित किये जा सकें. चर्चा, तर्क और विश्लेषण वैज्ञानिक दृष्टिकोण का एक महत्वपूर्ण अंग है. गौरतलब है कि निष्पक्षता, मानवता, लोकतंत्र, समानता और स्वतंत्रता आदि के निर्माण में भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण कारगर सिद्ध होता है.
नेहरु ने भारत में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास के लिए अनेक प्रयत्न किए. इन्हीं प्रयत्नों में से एक है उनके द्वारा सन् 1958 में देश की संसद (लोकसभा) में विज्ञान और प्रौद्योगिकी नीति को प्रस्तुत करते समय वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विशेष महत्त्व देना. उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को सोचने का तरीका, कार्य करने का तरीका तथा सत्य को खोजने का तरीका बताया था. सारी दुनिया के लिए यह पहला उदाहरण था, जब किसी देश की संसद ने विज्ञान नीति का प्रस्ताव पारित किया हो. विज्ञान नीति के प्रमुख लक्ष्य या संकल्प निम्न हैं :

1. विज्ञान तथा वैज्ञानिक अनुसंधान का, इसके सभी शुद्ध, प्रायोगिक और शैक्षिक पहलुओ सहित, सभी उपयुक्त तरीकों से विकास करना, उसे उन्नत बनाना तथा उसे बढ़ावा देना.
2. देश में उच्च कोटि के पर्याप्त वैज्ञानिक पैदा करना तथा देश की ताकत के एक महत्वपूर्ण अंग के रूप में उनके काम को मान्यता प्रदान करना.
3. देश की विज्ञान तथा शिक्षा, कृषि तथा उद्योग तथा रक्षा संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए उपयुक्त पैमाने पर वैज्ञानिक तथा तकनीकी कर्मिकों के प्रशिक्षण कार्यक्रमों को यथासंभव गति से शुरू करना तथा उसे प्रोत्साहित करना.
4. यह सुनिश्चित करना कि महिलाओं और पुरुषों की रचनात्मक प्रतिभा को प्रोत्साहित किया जाएगा तथा वैज्ञानिक क्रियाकलापों में इस प्रतिभा का इस्तेमाल करने का पूरा-पूरा अवसर मिलेगा .
5. ज्ञान के अर्जन तथा प्रसार और नए ज्ञान की खोज की व्यक्तिगत पहल को शैक्षिक स्वतन्त्रता के वातावरण को प्रोत्साहित करना.
6. सामान्यत: देश के लोगों के लिए वैज्ञानिक ज्ञान के अर्जन तथा उपयोग से प्राप्त होने वाले सभी लाभ को सुनिश्चित करना.
इस संकल्प से नेहरू की विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी संबंधी दृष्टिकोण की व्यापकता और गहनता का पता चलता है. उन्होने देश की प्रतिभा और संसाधनों के विशाल भंडार को विकसित करके तथा उसका प्रयोग करके एक औद्योगिक देश के रूप में तथा वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में एक अग्रणी देश के रूप में भारत की कल्पना की. नेहरू का मानना था कि भविष्य उन्हीं के साथ है जो विज्ञान को बढ़ावा देते हैं और वैज्ञानिकों से मित्रता रखते हैं. नेहरू के उदय और भारतीय विज्ञान पर उनके प्रभाव पर प्रसिद्ध विज्ञान लेखक शुकदेव प्रसाद अपने एक आलेख में लिखते हैं :

‘वस्तुतः नेहरू विज्ञान और प्रौद्योगिकी को भारतीय जन-जीवन और भारतीय संस्कृति का अभिन्न और अनिवार्य अंग बना देना चाहते थे. सच यही है कि नेहरू स्वाधीन भारत में वैज्ञानिक क्रांति के अग्रदूत और वैज्ञानिक संस्कृति के जनक थे. उन्हीं के अथक प्रयासों की आधारशिला पर ही आज वैज्ञानिक भारत का भव्य प्रासाद (महल) निर्मित हो सका है. वर्तमान भारत में वैज्ञानिक ज्ञान के प्रसार और प्रौद्योगिक विस्तार का जो ढांचा निर्मित हो पाया है, उसकी समूची योजना भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने तैयार की थी. आजादी के पूर्व तक अंग्रेजों की यही चेष्टा और मंशा रही कि भारत उनके लिए कच्चे माल का आपूर्तिकर्त्ता तथा ब्रिटिश निर्माताओं के उत्पादनों का उपभोक्ता बना रहे. इस नाते ब्रिटिशकालीन भारत में ऐसे उद्योग पनपने ही नहीं दिए गए जो आत्मनिर्भरता की ओर भारत की गतिशीलता में अपनी कोई भूमिका निबाहें और इसी नाते जब-जब देशवासियों ने औद्योगिक तानाबाना बुना तो उन्हें कदम-कदम पर मुसीबतें झेलनी पड़ीं फिर भी भारत धीरे-धीरे विकास की राहें खोजता रहा. उद्योग ही नहीं, शिक्षा, अनुसंधान आदि सभी क्षेत्रों में भारतवासियों की न तो सराहना ही की जाती थी और न कोई प्रोत्साहन मिलता था. लेकिन जब, 1947 में ब्रिटिश उपनिवेश का ध्वंस हो गया तो भारत ने आजादी की नई हवा में सांस ली और विकास के लिए अपने पंख पसारे. ऐसी संक्रमण बेला में महान स्वप्नदर्शी नेहरू ने देश में औद्योगिक विस्तार का ताना-बाना बुना और आजाद भारत में औद्योगिक क्रांति के बीज बोए. नए-नए उद्योगों को उन्होंने न सिर्फ प्रश्रय दिया, अपितु देश में वैज्ञानिक शिक्षा और अनुसंधान का खासा माहौल भी बनाने की हर संभव चेष्टा की. उन्होंने देश में विज्ञान की जो अलख जगायी, उससे जो ‘साइंटिफिक टेम्पो’ बना, वह निरन्तर आगे बढ़ता ही गया और दो दशकों के अन्दर ही विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर खासी धाक जम गयी. नेहरू जानते थे कि अंग्रेजों की लूट-खसोट, प्राकृतिक संपदाओं के अंधाधुंध दोहन, छिन्न-भिन्न अर्थव्यवस्था की विरासतों के साथ भारत को अपनी मंजिल पानी है. अतः बिना औद्योगिक प्रसार के दरिद्र भारत विकास कर ही नहीं सकता, इसलिए उन्होंने इसके लिए ठोस ढांचा निर्मित किया.’

सन् 1950 में नेहरू की अध्यक्षता में राष्ट्रीय योजना आयोग का गठन किया गया. इस आयोग के अंतर्गत पंचवर्षीय योजनाओं की एक शृंखला की शुरुवात की गई. उनमें इस्पात, सीमेंट और उर्वरक के उत्पादों पर विशेष ज़ोर दिया गया. योजना आयोग की स्थापना से नेहरू ने पाया कि अगर भारत को औद्योगिक रूप से विकास करना है तो उसके लिए चार मूलभूत जरूरतें होंगी : भारी इंजीनियरिंग, मशीन निर्माण उद्योग, वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थान और बिजली. इस काम में नेहरू को एक बेहद योग्य और समर्पित वैज्ञानिक पी. सी. माहलनोबिस का भरपूर सहयोग मिला. नेहरू के जीवन-काल में दो पंचवर्षीय योजनाओं पर काम किया गया. उनके कार्यकाल की सरकार ने देश में उच्च शिक्षण के अनेकानेक संस्थानों की स्थापना की जिनमें आईआईटी (इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, खड़गपुर, मुंबई, चेन्नई, कानपुर और दिल्ली), एम्स (ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज, नई दिल्ली), आईआईएम (इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, अहमदाबाद), एनआईटी (नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, कुरुक्षेत्र) सम्मिलित हैं. गौरतलब है कि नेहरू ने 1947 में प्रधानमंत्री बनने के बाद से लेकर अपने जीवन के आखिरी क्षण तक दो मंत्रालय- विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय और विदेश मंत्रालय सदैव अपने पास रखें.

नेहरू ने विज्ञान के देशव्यापी विस्तार के लिए ‘वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद’ (काउंसिल ऑफ साईंटिफ़िक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च- सीएसआईआर) की स्थापना की. सीएसआईआर के पहले निदेशक बने डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर. भटनागर को सीएसआईआर के तत्वाधान में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विभिन्न क्षेत्रों के प्रति समर्पित 20 से अधिक राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं के शुभारंभ का श्रेय दिया जाता है. जिनमें से राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला, राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला, ईंधन प्रौद्योगिकी प्रयोगशाला, गैस, चमड़ा, इलेक्ट्रॉनिक तकनीक के लिए प्रयोगशालाएँ प्रमुख हैं. नेहरू ने इन प्रयोगशालाओं को ‘विज्ञान मन्दिरों’ की संज्ञा दी थी. परमाणु ऊर्जा आयोग, भारतीय सांख्यिकी संस्थान (आई. एस. आई) कोलकाता, नेशनल सैंपल सर्वे और इंडियन स्टैण्डर्ड इन्स्टीट्यूशन जैसे संस्थानों का उद्भव और विकास नेहरू के योगदान से ही मुमकिन हुआ.
नेहरू की विज्ञान के प्रति प्रेम की बानगी जनवरी 1961 में ट्रांबे स्थित नाभिकीय ऊर्जा रिएक्टरों के विमोचन के मौके पर दिए उनके भाषण से परिलक्षित होती है : ‘यह सत्य है कि हम वर्तमान के लिए काम कर रहे हैं क्योंकि हम वर्तमान में रहते हैं किंतु अपने इस कार्य द्वारा हम भविष्य पर भी काबू पा लेंगे और वह स्वयं ही खुलकर हमारे सामने स्पष्ट हो जाएगा. इसलिए जब मैं इस शानदार गुंबज को देखता हूँ तो मुझे आनंद मिलता है, उत्साह का अनुभव होता है. इस विशाल गुंबज के अतिरिक्त जिन्हें देखकर मुझे और भी अधिक आनंद और उत्साह का अनुभव होता है, वह हैं यहाँ पर काम करने वाले हजारों नौजवान वैज्ञानिक. जब मैं उनके श्रीपूर्ण दमकते चेहरों को देखता हूँ तो मुझे उनमें शक्ति के, उत्साह के और खोज के लिए इच्छुक दृष्टि के दर्शन होते हैं.’ ऐसी थी नेहरू की विज्ञान और वैज्ञानिकों के प्रति गहन आस्था. वास्तविकता यही है कि अप्रतिम थी नेहरू की विज्ञान भावना और विज्ञान के प्रति उनका समर्पण भाव!

हालांकि यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण होगा कि नेहरू भारत में हरित क्रांति के अग्रदूत थे, मगर नेहरू ने अपने सम्पूर्ण कार्यकाल में कृषि संस्थानों और विश्वविद्यालयों के निर्माण और बुनियादी ढांचे के विकास पर जोर दिया. सिंचाई और बिजली परियोजनाओं, उर्वरक और कीटनाशक उद्योग, और अनुसंधान पर काफी ध्यान दिया. यहाँ सुप्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक और हरित क्रांति के जनक एम. एस. स्वामीनाथन के इस वक्तव्य का उल्लेख करना जरूरी है : ‘गरीबी-अमीरी के बीच की खाई को मिटाने के लिए नेहरू ने विज्ञान का मुँह गाँवों की ओर मोड़ा. आजादी के बाद ही सिंदरी में पहला उर्वरक कारखाना खुला, सिंचाई योजनाएँ शुरू हुईं और कृषि के लिए नए रास्ते खुले. उन्हीं की डाली नींव का फल है कि हम खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता प्राप्त कर पाए हैं.’ देश का पहला कृषि विश्वविद्यालय उत्तर प्रदेश के पंतनगर में स्थापित किया गया था. 17 नवंबर, 1960 को इसके विमोचन के अवसर पर पूरे देश के किसानों को इसे समर्पित करते हुए नेहरू ने कहा था : ‘यह विश्वविद्यालय तो किसानों के घर जैसा होना चाहिए.’ नेहरू ने बांधों के निर्माण और विकास पर खासा ज़ोर दिया. उनका मानना था कि बांधों के निर्माण से सिंचाई में बढ़ोत्तरी होगी और साथ-ही-साथ इसके जरिए भारी मात्रा विद्युत उत्पादन भी किया जा सकता है.

नेहरू ने मुख्यत: विज्ञानके दो क्षेत्रों मे अपना ध्यान केन्द्रित किया – परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम का विकास और इसके माध्यम से अंतरिक्ष विज्ञान का विकास और वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अंतर्गत देश में एक के बाद एक कई वैज्ञानिक संस्थाओं और प्रयोगशालाओं की स्थापना. भारत मे नाभिकीय ऊर्जा के व्यवहार्य और दूरदर्शी कार्यक्रम की स्थापना होमी जहाँगीर भाभा और नेहरू के संयुक्त दृष्टिकोणों के परिणामस्वरूप हुई. भाभा की प्रतिभा के नेहरू कायल थे तथा दोनों के बीच काफी मधुर संबंध थे. सन् 1948 में भाभा की अध्यक्षता में परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना की गई. यह नेहरू और भाभा की दूरदृष्टि ही थी कि नाभिकीय विखंडन की खोज के बाद जब सारी दुनिया नाभिकीय ऊर्जा के विध्वंसनात्मक रूप परमाणु बम के निर्माण मे लगी हुई थी तब दोनों ने भारत की ऊर्जा जरूरतों को ध्यान मे रखते हुए विद्युत उत्पादन के लिए परमाणु शक्ति के उपयोग की पहल की. भाभा के नेतृत्व में भारत में प्राथमिक रूप से विद्युत शक्ति पैदा करने तथा कृषि, उद्योग, चिकित्सा, खाद्य उत्पादन और अन्य क्षेत्रों में अनुसंधान के लिए नाभिकीय अनुप्रयोगों के विकास की रूपरेखा तैयार की गई. इस दौरान भाभा को नेहरू की निरंतर सहायता और प्रोत्साहन मिलती रही, जिससे भारत दुनिया भर के उन मुट्ठी भर देशों में शामिल हो सका जिनको सम्पूर्ण नाभिकीय चक्र पर स्वदेशी क्षमता हासिल था.

भाभा और नेहरू ने देश में उपलब्ध यूरेनियम और थोरियम के विपुल भंडारों को देखते हुए परमाणु विद्युत उत्पादन की तीन स्तरीय योजना बनाई थी, जिसमें क्रमश: यूरेनियम आधारित नाभिकीय रिएक्टर स्थापित करना, प्लूटोनियम को ईंधन के रूप मे उपयोग करना तथा थोरियम चक्र पर आधारित रिएक्टरों की स्थापना करना शामिल था. इस त्रिस्तरीय योजना का दो हिस्सा अब तक भारत पूरा कर चुका है. इस प्रकार भाभा और नेहरू की जोड़ी ने परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में भारत को स्वावलंबी बनाकर उन लोगों के दाँतो तले ऊंगली दबा दिया जो परमाणु ऊर्जा के विध्वंसनात्मक उपयोग के पक्षधर थे.
परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग से संबंधित भाभा और नेहरू का विजन सम्पूर्ण मानवता के लिए युगांतरकारी सिद्ध हुआ. उन्होने यह बता दिया कि परमाणु का उपयोग सार्वभौमिक हित और कल्याण के लिए करते हैं, तो इसमें असीम संभावनाएं छिपी हुई है. सन् 1955 में भारत के प्रथम नाभिकीय रिएक्टर ‘अप्सरा’ की स्थापना परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग की दिशा में पहला सफल कदम था. इसके बाद भाभा के नेतृत्व में साइरस, जरलीना आदि रिएक्टर अस्तित्व में आए. हालांकि नेहरू के कार्यकाल में परमाणु परीक्षण नहीं किया गया मात्र विद्युत उत्पादन के लिए नाभिकीय रिएक्टरों का निर्माण किया. यह नेहरू की शांति प्रियता की ही परिचायक है क्योंकि ध्यान देने की बात यह है कि अगर एक देश परमाणु भट्ठी लगा सकता है तो वह परमाणु बम भी बना सकता है. हालांकि भाभा शांतिपूर्ण कार्यों के लिए परमाणु ऊर्जा के उपयोग के पक्षधर रहे, लेकिन 1962 के भारत-चीन युद्ध मे भारत की हार ने उन्हें अपनी सोच बदलने को विवश कर दिया. इसके बाद वे कहने लगे कि ‘शक्ति का न होना हमारे लिए सबसे महंगी बात है’. अक्टूबर 1965 में डॉ. भाभा ने ऑल इंडिया रेडियों से घोषणा कि अगर उन्हें मौका मिले तो भारत 18 महीनों में परमाणु बम बनाकर दिखा सकता है. उनके इस वक्तव्य ने सारी दुनिया में सनसनी पैदा कर दी. हालांकि इसके बाद भी वे विकास कार्यों में परमाणु ऊर्जा के उपयोग की वकालत करते रहे तथा ‘शक्ति संतुलन’ हेतु भारत को परमाणु शक्ति सम्पन्न बनना जरूरी बताया.

जिस तरह से भाभा के प्रयासों से परमाणु अनुसंधान कार्यक्रम शुरू हुए, उसी तरह डॉ. विक्रम साराभाई के प्रयासों से देश में अतरिक्ष अनुसंधानों का श्रीगणेश हुआ. सन् 1962 में साराभाई के नेतृत्व में परमाणु ऊर्जा विभाग की देखरेख में बाह्य अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण प्रयोग के लिए ‘अंतरिक्ष अनुसंधान की भारतीय राष्ट्रीय समिति (इनकोस्पार) गठित की. आगे चलकर यही समिति ‘भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन’ (इसरो) के रूप में अस्तित्व में आया जिसने नेहरू, भाभा और साराभाई के सपनों को किया और भारत ने विश्वमंच पर अपनी एक प्रतिष्ठित राष्ट्र की छवि भी बनाई. हालांकि भारत के परमाणु और अंतरिक्ष कार्यक्रमों का बहुत विरोध किया गया लेकिन नेहरू टस से मस न हुए और वे इन दोनों कार्यक्रमों को जीवनपर्यंत अपना समर्थन और सहयोग देते रहे.   बहरहाल, इस लेख का समापन हम डॉ. होमी भाभा के इन शब्दों के साथ करते हैं. ‘जवाहर लाल नेहरू के लिए युग का सबसे बड़ा काम था, इंसान को युगों पुरानी गरीबी के जीवन से ऊपर उठाकर एक ऐसे सामाजिक जीवन के स्तर पर पहुँचा देना, जहाँ सुरक्षा, सुख, साधन और इन सबसे भी ज्यादा जीवन के सर्वोच्च आदर्शों को पूरा करने का अवसर प्राप्त हो सके. वह जानते थे कि इन उद्देश्यों को केवल विज्ञान और उसके व्यावहारिक पक्षों से ही हासिल किया जा सकता है. उनका विश्वास था कि आधुनिक विज्ञान को आधार बना कर ही भारत फिर से एक महान राष्ट्र बन सकता है.’ नोबेल विजेता खगोलभौतिकविद एस. चंद्रशेखर के अनुसार, ‘जवाहरलाल नेहरू ने अपनी मृत्यु से एक रात पहले जो अनुभूति प्राप्त की थी, उससे हमें शिक्षा मिल सकती है. जिस सुबह उन्हें दिवंगत पाया गया था, उनके बिस्तर पर रॉबर्ट फ्रास्ट की कविता का वह पृष्ठ खुला हुआ था, जिस पर लिखा था :
‘वन बहुत सुंदर और भीतर तक घना है.
किंतु हमें अपना वादा निभाना है.
नींद में जाने से पहले मीलों जाना है.
नींद में जाने से पहले मीलों जाना है.’

(‘न्यूज़ 18 हिंदी’ से साभार )
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