आज 9 जून है। झारखंड के जन नायक, स्वतंत्रता सेनानी, अमर शहीद बिरसा मुंडा का शहादत दिवस। आजादी के 75 वर्ष पूरे हो गए, पर अब तक आदिवासी समूह एवं झारखंड के निवासियों की पीड़ा खत्म नहीं हुई। सन् 2000 में अलग झारखंड राज्य तो बना, पर लूट – मुनाफा केंद्रित व्यवस्था के कारण यहां के लोगों की गरीबी, बदहाली खत्म नहीं हुई। आदिवासी बहुल झारखंड वैसे तो संविधान के पांचवीं अनुसूची में शामिल है, पर अब तक इसका कोई खास फायदा इसे नहीं हुआ। प्रचुर प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण झारखंड के लोग अब भी भूख, गरीबी, अशिक्षा, स्वास्थ्य, कुपोषण, पर्यावरण प्रदूषण, बेरोजगारी, विस्थापन एवं पलायन का दंश झेल रहे हैं। आदिवासी हित में बनाए गए कानूनों की अनदेखी की जा रही है। ऐसे में आइए, आज यह संकल्प दोहराएं तथा समतामूलक, संविधान सम्मत, न्यायपूर्ण, तर्कशील, प्रकृतिपरक, समृद्ध नया झारखंड बनाएं।

आदिवासियों के महानायक और भारतीय स्‍वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा के मन में अपने विद्यार्थी जीवन से ही ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ आक्रोश पैदा हो गया था। मात्र 19 वर्ष की अल्‍पायु में ही बिरसा मुंडा ने अपने क्षेत्र बिहार में अंग्रजों के खिलाफ संघर्ष प्रारंभ कर दिया था। तत्‍समय में आदिवासियों को शिक्षित करने के लिए अंग्रेजों से लडाई लडते रहे। ब्रिटिश हुकूमत ने बिरसा मुंडा को अपने लिए खतरा मानते हुए 3 मार्च 1900 को बिरसा की आदिवासी छापामार सेना के साथ मकोपाई वन (चक्रधरपुर) में ब्रिटिश सैनिकों द्वारा गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। कैद में रहते हुए 9 जून 1900 को रांची जेल में 25 वर्ष की अल्‍पायु में उनकी मृत्यु हो गई। ब्रिटिश सरकार ने उनकी मृत्यु का कारण हैजा बताया, किन्‍तु ब्रिटिश सरकार द्वारा बीमारी का कोई लक्षण नहीं दिखाया गया। दूसरी ओर यह भी माना जाता है कि जेल में बिरसा मुंडा को धीमा जहर दिया था। जिस कारण उनकी मृत्यु हुई। आदिवासियों के महानायक और भारतीय स्‍वतंत्रता सेनानी की 9 जून को हुई शहादत को शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है।

बिरसा मुंडा के प्रमुख कार्य

बिरसा मुंडा ने ब्रिटिश हुकुमत के एजेंडे को सबके सामने लाने के लिए जागरूकता फैलाना शुरू किया तथा आदिवासियों की एक सेना बनाया। बिरसा मुंडा की सेना ने ब्रिटिश हुकुमत के अन्याय और विश्वासघात के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया तथा कई आंदोलन किये। बिरसा मुंडा अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह में एक सक्रिय भागीदार थे। बिरसा मुंडा को स्‍वतंत्रता सेनानी के रूप में याद किया जाता है। बिरसा मुंडा ने आदिवासियों पर अत्‍यधिक प्रभाव डाला, वे अपने साथियों और अनुयायियों को ईश्‍वर की अवधारणा क पालन करने को कहा। बिरसा मुंडा एक प्रभावशाली व्‍यक्ति थे तथा वे अपने उत्‍साह वर्धक व प्रभावशाली भाषण से जनता प्रोत्‍साहित किया।

बिरसा मुंडा का प्रारंभिक जीवन

बिरसा मुंडा का जन्म पिता सुगना मुंडा और माता कर्मी हाटू के घर दिनॉक 15 नवंबर, 1875 को हुआ। बिरसा मुंडा के पिता सुगना अपने  गृह ग्राम उलीहातू, खूंटी, झारखंड में एक खेतिहर मजदूर थे। वे परिवार के चार बच्चों में से सबसे छोटे थे,  उनसे बडा एक भाई – कोमता मुंडा और दो बडी बहने डस्कीर और चंपा थीं। बिरसा मुंडा का परिवार आदिवासी समुदाय से था। चक्कड़ में बसने से पूर्व दूसरे स्थान पर चले गए, जहाँ उन्होंने अपना बचपन बिताया। छोटी उम्र से ही उनकी बासुंरी बजाने में रुचि थी। पारिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने के कारण वे 2 वर्ष तक अपने मामा के घर अयूबतु में रहे। इसके बाद बिरसा की सबसे छोटी मौसी जौनी ने अपने साथ खटंगा लेकर गई। जौनी की  शादी ग्राम खटंगा में हुई थी।

बिरसा मुंडा की शिक्षा
बिरसा मुंडा की प्रारंभिक शिक्षा सलगा में जयपाल नाग द्वारा संचालित एक स्कूल मे हुई। बिरसा मुंडा कुशाग्र छात्र थे, जिस कारण जयपाल नाग ने उन्‍हें जर्मन मिशन स्कूल में पढ़ने के लिए राजी किया, जिस कारण उन्हें बिरसा डेविड के रूप में ईसाई धर्म अपनाना पडा। उन्होंने कुछ वर्ष पढाई पूरी होने तक इसी स्कूल में अध्ययन किया।
बिरसा मुंडा का संघर्ष

बिरसा मुंडा का परिवार 1886 से 1890 तक चाईबासा में रहता था,  मुंडा का परिवार सरदार विरोधी गतिविधियों के प्रभाव में आया था। बिरसा मुंडा भी सरदार विरोधी गतिविधियों से प्रभावित थे और सरदार विरोधी आंदोलन में भाग लिया। बिरसा मुंडा के परिवार ने सरदार आंदोलन के समर्थन में 1890 में जर्मन मिशन से अपनी सदस्‍यता त्‍याग दी।

बाद में बिरसा मुंडा ने स्‍वयं को पोरहत क्षेत्र में संरक्षित जंगल में मुंडाओं के पारंपरिक अधिकारों पर अंग्रजों द्वारा लागू किए गए अन्यायपूर्ण कानूनों के खिलाफ लोकप्रिय आंदोलन में शामिल किया। 1890 के दशक की शुरुआत में मुंडा ने ब्रिटिश कंपनी की योजनाओं के बारे में आम लोगों में जागरूकता फैलाना शुरू किया।

बिरसा मुंडा के नेतृत्व में, आदिवासी आंदोलनों में बढोत्‍तरी हुई और अंग्रेजों के खिलाफ कई विरोध प्रदर्शन किए गए। बिरसा मुंडा एक सफल नेता के रूप में सामने आये।

अंततः बिरसा मुंड के निधन के बाद अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन समाप्त हो गये। किन्‍तु इनके द्वारा किये गये आंदोलनों का उल्लेखनीय रूप से महत्वपूर्ण स्‍थान था। ब्रिटिश सरकार कानूनों को लागू करने के लिए मजबूर हुई ताकि आदिवासी लोगों की भूमि को डिकस (बाहरी लोगों) द्वारा आसानी से दूर नहीं किया जा सके। बिरसा मुंडा ईश्‍वर के दूत के रूप में हिंदू धर्म के सिद्धांतों का प्रचार किया और आदिवासी लोगों से सिफारिश की कि जो आदिवासी लोग ईसाई धर्म अपना चुके हैं, वे अपने मूल धर्म में लौट आयें।

बिरसा मुंडा की मृत्यु
ब्रिटिश हुकूमत ने बिरसा मुंडा को अपने लिए खतरा मानते हुए 3 मार्च 1900  को बिरसा की आदिवासी छापामार सेना के साथ मकोपाई वन (चक्रधरपुर) में ब्रिटिश सैनिकों द्वारा गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया था। कैद के दौरान ही रांची जेल में 9 जून 1900 को 25 वर्ष की अल्‍पायु में उनकी मृत्यु हो गई। ब्रिटिश सरकार द्वारा बिरसा की मृत्यु हैजा बीमारी से होना बताया गया, लेकिन ब्रिटिश सरकार द्वारा बीमारी का कोई लक्षण नहीं दिखाया गया। दूसरी ओर यह भी माना जाता है कि जेल में बिरसा मुंडा को धीमा जहर दिया था। जिस कारण उनकी मृत्यु हुई।
स्मारक
बिरसा मुंडा एक महान क्रांतिकारी, आदिवासी महानायक और स्‍वतंत्रता सैनानी थे, जिनको सम्मानित करने के लिए, कई शिक्षण संस्थानों / कॉलेजों और स्थानों का नाम उनके नाम पर रखा गया है। जैसे कि ‘बिरसा इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी – सिंदरी’, ‘बिरसा कृषि विश्वविद्यालय- रांची’, ‘बिरसा मुंडा एथलेटिक्स स्टेडियम- रांची’ और ‘बिरसा मुंडा एयरपोर्ट- झारखण्‍ड’ आदि हैं।
Spread the information