आज 15 नवम्बर है। जन नायक अमर शहीद बिरसा मुंडा का जन्मदिन। साथ ही झारखंड राज्य का स्थापना दिवस भी। यहां के शहीदों का बलिदान ही था, जिसमें अलग झारखंड राज्य के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया। ऐसे में बेहद जरूरी है उनके विचारों, कार्यों एवं संघर्षों की विरासत को आगे बढ़ाना। ताकि उनके सपनों के झारखंड का निर्माण संभव हो सके। सभी प्रकार के शोषण- उत्पीड़न एवं अंधविश्वास से मुक्त समतामूलक, विविधतापूर्ण, न्यायपूर्ण एवं वैज्ञानिक चेतना संपन्न झारखंड तथा देश का निर्माण बेहद जरूरी है। शहीदों का संघर्ष एक मशाल की तरह हमें रोशनी दिखता रहेगा। आइए, हम शहीदों के सपने को साकार करने के लिए मिल जुलकर प्रयास एवं संघर्ष करें।
आदिवासियों के महानायक बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के आदिवासी दम्पति सुगना और करमी के घर हुआ था। भारतीय इतिहास में बिरसा मुंडा एक ऐसे नायक थे, जिन्होंने भारत के झारखंड में अपने क्रांतिकारी चिंतन से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आदिवासी समाज की दशा और दिशा बदलकर नवीन सामाजिक और राजनीतिक युग का सूत्रपात किया।
1. पहला तो सामाजिक स्तर पर ताकि आदिवासी-समाज अंधविश्वासों और ढकोसलों के चंगुल से छूट कर पाखंड के पिंजरे से बाहर आ सके। इसके लिए उन्होंने ने आदिवासियों को स्वच्छता का संस्कार सिखाया। शिक्षा का महत्व समझाया। सहयोग और सरकार का रास्ता दिखाया।
सामाजिक स्तर पर आदिवासियों के इस जागरण से जमींदार-जागीरदार और तत्कालीन ब्रिटिश शासन तो बौखलाया ही, पाखंडी झाड़-फूंक करने वालों की दुकानदारी भी ठप हो गई। यह सब बिरसा मुंडा के खिलाफ हो गए। उन्होंने बिरसा को साजिश रचकर फंसाने की काली करतूतें प्रारंभ की। यह तो था सामाजिक स्तर पर बिरसा का प्रभाव। काले कानूनों को चुनौती देकर बर्बर ब्रिटिश साम्राज्य को सांसत में डाल दिया।
2. दूसरा था आर्थिक स्तर पर सुधार ताकि आदिवासी समाज को जमींदारों और जागीरदारों क आर्थिक शोषण से मुक्त किया जा सके। बिरसा मुंडा ने जब सामाजिक स्तर पर आदिवासी समाज में चेतना पैदा कर दी तो आर्थिक स्तर पर सारे आदिवासी शोषण के विरुद्ध स्वयं ही संगठित होने लगे। बिरसा मुंडा ने उनके नेतृत्व की कमान संभाली। आदिवासियों ने ‘बेगारी प्रथा’ के विरुद्ध जबर्दस्त आंदोलन किया। परिणामस्वरूप जमींदारों और जागीरदारों के घरों तथा खेतों और वन की भूमि पर कार्य रूक गया।
3. तीसरा था राजनीतिक स्तर पर आदिवासियों को संगठित करना। चूंकि उन्होंने सामाजिक और आर्थिक स्तर पर आदिवासियों में चेतना की चिंगारी सुलगा दी थी, अतः राजनीतिक स्तर पर इसे आग बनने में देर नहीं लगी। आदिवासी अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति सजग हुए।
बिरसा मुंडा सही मायने में पराक्रम और सामाजिक जागरण के धरातल पर तत्कालीन युग के एकलव्य थे। बिरसा मुंडा की गणना महान देशभक्तों में की जाती है। ब्रिटिश हुकूमत ने इसे खतरे का संकेत समझकर बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया। वहां अंग्रेजों ने उन्हें धीमा जहर दिया था। जिस कारण वे 9 जून 1900 को शहीद हो गए।

अंग्रेजों के छक्के छुड़ाए

लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ लगान माफी के लिए आंदोलन की शुरुआत कर दी। जिससे जमींदारों के घर से लेकर खेत तक भूमि का कार्य रूक गया। सामाजिक स्तर पर आदिवासियों के इस जागरण से जमींदार और तत्कालीन ब्रिटिश शासन बौखला गया।

दरअसल, अंग्रेजों ने आदिवासियों को उनकी ही जमीन के इस्तेमाल करने पर रोक लगा दी थी और साहूकार उनकी जमीनों को हथिया रहे थे। अपनी जमीन को फिर से पाने के लिए मुंडा समुदाय के लोगों ने आंदोलन की शुरुआत की और इसे ही ‘उलगुलान’ का नाम दिया था।

बिरसा को पकड़ने के लिए रखा गया इनाम

बिरसा मुंडा ने पुलिस स्टेशनों और जमींदारों की संपत्ति पर हमला करना शुरू कर दिया था। ब्रिटिशों के झंडों को उखाड़कर सफेद झंडा लगाया जाने लगा जो मुंडा राज का प्रतीक था। मुंडा के इतना करने भर से ही ब्रिटिशों की नाक में दम हो गया।

उन्होंने बिरसा को पकड़ने के लिए 500 रुपए का इनाम रखा था जो उस जमाने में बड़ी रकम हुआ करती थी। पहली बार 24 अगस्त 1895 को उन्हें गिरफ्तार किया गया था। उनको दो साल की सजा हुई थी, लेकिन जेल में रहने के दौरान अंग्रेजों से बदले की भावना और तेज हो गई थी। जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ आंदोलन करने के लिए अपने लोगों के साथ गुप्त बैठकें शुरू कर दी थीं।

डोम्बारी पहाड़ पर सैनिकों से हुई मुठभेड़

सन् 1900 आते-आते बिरसा का संघर्ष छोटानागपुर के 550 वर्ग किलोमीटर इलाके में फैल चुका था। सन 1899 में उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष का और अधिक मजबूत कर लिया था। उस दौरान आदिवासी विद्रोह इतना बढ़ गया था कि राँची के जिला कलेक्टर को सेना की मदद माँगने के लिए मजबूर होना पड़ा था।

400 आदिवासियों की गई थी जान

डोम्बारी पहाड़ी पर सेना और आदिवासियों की भिड़ंत हुई थी, जिसमें 400 आदिवासी मारे गए थे लेकिन अंग्रेज पुलिस ने सिर्फ 11 लोगों के मारे जाने की पुष्टि की थी। अंग्रेजों के खिलाफ आदिवासियों के बढ़ते विरोध के चलते ब्रिटिशों को अपनी सरकार गिरने का डर सताने लगा था। इसी के चलते उन्होंने इसे रोकने के लिए साजिश रची थी। अंग्रेजों ने उन्हें रोकने के लिए गिरफ्तारी वॉरंट निकाल दिया था। जिसके चलते 3 मार्च साल 1900 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था।

जेल में हुई थी मौत

जेल में जाने से पहले उन्होंने अंग्रजों के खिलाफ लड़ने का बिगुल फूंक दिया था। भले ही उनकी गिरफ्तारी हो गई थी, लेकिन लोगों के लिए वह तब भी भगवान के समान थे। जेल में जाने के बाद दिन पर दिन उनकी तबीयत खराब होती चली गई थी। जेल में बिरसा को बिल्कुल एकांत में रखा गया था।

9 जून, 1900 को ली थी आखिरी सांस

यहां तक की उन्हें किसी से भी मिलने नहीं दिया जाता था। उन्हें बस एक घंटे के लिए कोठरी से बाहर निकाला जाता था। ऐसे में उनकी हालत बिगड़ती चली गई और 9 जून, 1900 को बिरसा ने सुबह 9 बजे दम तोड़ दिया। हालांकि, उनके दोस्तों का दावा है कि उन्हें अंग्रेजी हुकुमत ने मारने के लिए जहर दिया था। लेकिन अंग्रेजों ने उनकी बीमारी का कारण हैजा बताया था, हालांकि हैजा के कोई भी साक्ष्य नहीं मिले थे।आज भले ही बिरसा मुंडा हमारे बीच नहीं हैं, पर उनके सपने अब भी जीवित है। उनके सपनों का झारखंड निर्माण एक चुनौती है जिसे हर हाल में पूरा किया जाना चाहिए।

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