संघमित्रा दुबे, राहुल श्रीवास्तव

महुआ की पहली यात्रा और महुआ (दैवीय वृक्ष) से मिलने की यह कहानी, महुआ की जुबानी

महुआ 1- एक युवा महिला।

महुआ – आदिवासी समाज में ‘‘दैवीय वृक्ष’’ और आदिवासी संस्कृति, आजीविका, पोषण, स्वास्थ्य, चिकित्सा सहित जीवन से मृत्यु तक एक परम्परागत व्यवस्था।

आजीविका – का अर्थ वही है, जो वनाधिकार मान्यता अधिनियम 2006 में परिभाषित है।

परम्पराएं, रूढ़ियां, संस्कृति – का अर्थ वही है जो पंचायत उपबन्ध (अधिसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम (पेसा कानून 1996, मध्यप्रदेश पेसा नियम 2022, एफआरए) में परिभाषित हैं।

परम्परांए – किसी तालाब का रूका हुआ पानी न होकर, बहती नदी की स्वच्छ जलधाराएं हैं। सामाजिक कुरीति, कुप्रथा रूपी कचरा किनारे पर ही रह जाता है, जबकि परम्पराएं सतत चलती रहती हैं, जो कि समाज को प्रगतिशील पथ पर संचालित करती हैं। आदिवासी समुदाय व व्यवस्थाएं भी इन्हीं परम्पराओं से संचालित होती हैं, जिन्हें भारतीय संवैधानिक व्यवस्था सहित विभिन्न कानूनों में मान्यतांए भी प्राप्त हैं।

प्रथम सोपान

महुआ की कहानी

मेरी कहानी, जबलपुर शहर की एक मलिन/दलित बस्ती ‘‘बगडा दफाई’’ से प्रारंभ होती है। मैं एक घरेलू कामगार एकल आदिवासी महिला हूं । मेरे माता-पिता ने बड़े प्यार से मेरा नाम ‘‘ महुआ’’ रखा था। कोरोना महामारी 2019 के दौरान मेरे माता-पिता दोनों का देहांत हो गया। सरकार तमाम तरह के वायदे करती है पर मुझे वो लाभ नही मिला, जिसकी सरकारों ने घोषणा की। चूंकि मेरे  माता-पिता कई वर्ष पूर्व डिण्डौरी के गाडासरई के पास के जंगल से अजीविका की तलाश में जबलपुर शहर आए थे और आसरे के लिए तब शहर के बाहर बगडा दफाई बस्ती जो कि अब नए विकसित होते जबलपुर मेट्रो शहर का हिस्सा है, में अपनी झोपड़ी बनाकर रहने लगी।

वहीं मैं महुआ रूपी फूल, उन्हें प्राप्त हुआ। अपने नाम के अनुरूप मेैं जहां जाती वहां अपनी सुंगध से वातावरण को मदमस्त बना देती। भले ही मेरे माता-पिता शहर में मजदूरी करते थे, पर उन्होंने अपनी महुआ को स्कूली शिक्षा प्रदान की थी और वो मुझे बड़ा बनाकर लेखक /पत्रकार बनाना चाहते थे, जो कि उनके गांव, जंगल, जमीन, नदी और पहाड़ो की कहानियां लिखे, विकास के नाम पर संसाधनों की लूट, आजीविका व अस्तित्व को बचाए रखने के लिए आदिवासी व अन्य परम्परागत वन निवासियों का जंगल से शहर में पलायन, और उनके समाज में होने वाली संघर्ष, उत्पीडन को समाज के सामने लाकर जल-जंगल-जमीन और प्राकृतिक संसाधनों सहित जैव विविधता का सरंक्षण की बात कर सके। मुझे यह तो पता था कि डिण्डौरी जिले में मेरा गांव, जो कि पिता बताते थे, कहां है, पर मैं कभी भी वहां जा नहीं पाई।

माता-पिता की मौत के बाद मेरे समक्ष ‘‘जीवन जीने का प्रश्न’’ और आजीविका का प्रश्न खड़ा हुआ? मां की कुछ दोस्त शहरी अमीरों/घरों में घरेलू कामगार के रूप में काम करत थीं, उनसे आग्रह किया तो मुझे भी 3 घरों का काम मिल गया। जहां मैं  झाडू-कपडा, बर्तन आदि का काम करने लगी। पगार थी, 1,000 रुपए प्रति माह। कुल मिलाकर एक माह हाड़-तोड़ काम करने के बदले मुझे 3,000 रुपए मिलते थे (न्यूनतम मजदूरी से भी कम, और काम के अतिरिक्त घंटे के बावजूद)।

साथ ही मिलती थी, घर की महिलाओं की गालियां, सामान चोरी का इल्जाम और पुरुषों की कपड़ों के अन्दर झांकती गंदी निगाहें! ऐसा नहीं कि सभी लोग ऐसे ही हों? एक घर अच्छा भी था, जहां मुझे कुछ अतिरिक्त मदद और पढ़ने को कुछ किताबें भी मिल जाती थीं। पर युवा होती एकल लड़की को समाज अपने तरीके से ट्रीट करता है, बस्ती के छोकरे, पुरुष, शराब, छेड़खानी आम बात हो गई थी। सरकारें तमाम तरह के महिला सुरक्षा के वायदे करती थीं, पुलिस अपनी पीठ थपथपाती तो थी, पर वास्तविकता कुछ और ही थी, जो कि केवल वो जानती थी, या उसके जैसे अन्य लड़कियां।

मैं परेशान थी, मैंने सुन रखा था कि जंगल शहर से ज्यादा खूबसूरत ओैर ज्यादा सुरक्षित हेै। वहां जंगली जानवर हिंसक तो हैं, पर शहरी मनुष्यों की तुलना में उन्हें जानवर कहना जानवरों का अपमान होगा। वो हिंसक जानवर भी बिना कारण किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाते। तभी तो जंगलों में जैव-विविधता है। अचनाक मन में सवाल उठा, ‘‘ यह जैव-विवधता’’ क्या है? जंगल कैसा लगता है, नदी तो देखी है, जबलपुर मे नर्मदा नदी! पर वो आई कहां से? अमरकंटक से? वहीं से तो पिता भी आए थे। यहां तो नदी गंदी दिखती है। गंदे पानी के नाले मिल रहे हैं। क्या अमरकंटक में भी ऐसी ही होगी? कि जंगली होगी?”

मुझे लगा, “मुझे जंगल बुला रहा है? पहाड़ बुला रहा है? नदी बुला रही है? महुआ बुला रही है? मेरे अपने लोग परेशान है। कहीं से आवाज आ रही है? कि महुआ आओ, देखो हमारा क्या हश्र हो रहा है? तुम हमसे बात करो। हमारे बारे में, हमारी पीड़ा के बारे में समाज को बताओ। उसे दूर करो।”

ये आवाजें धीरे-धीरे मेरे कानों में गूंजने लगी। लगा कि कुछ छूट रहा है या सब कुछ छूट गया? वैसे भी यहां कौन है? रोटी तो कहीं मिल ही जाएगी? ऐसा सोचते-सोचते मैं सो गई। दूसरे दिन जल्दी उठी, और काम पर निकल गई।

अपने अस्तित्व को तलाशती महुआ – अपनी पहचान,को लेकर परेशान ‘‘महुआ’’ एक दिन सारी शहरी गंदगी को, जिम्मेदारियां, को छोड़ शहरी गंदी बस्ती से मदमस्त जंगल की ओर निकल गई। उसने ये शहर क्योें छोड़ा? या उसके साथ शहरी विकासशील मनुष्य ने क्या किया? उसके साथ क्या ऐसी क्या घटना धटित हुई? उसने किसी को भी नहीं बताया।

वैसे भी मेरे पास बताने या मुझे सुनने के लिए था ही कौन। भेड़ियों  की कोई जात नहीं होती और एकल महिलाएं तो वैसे भी समाज की विभिन्न कहानियों की पात्र होती हैं? कहीं वो डायन? कहीं चरित्रहीन और न जाने क्या-क्या! वैसे महुआ अपने नाम के अनुसार स्चछंद, मदमस्त तो थी ही, पर वो चारित्रिक रूप से भी उतनी ही सशक्त थी, जिस प्रकार जंगलों में महुआ पूरे वर्ष हरी-भरी पत्तियों से लदी रहती है, मजबूत, विशाल, सम्पूर्ण समाज को पोषण, आजीविका, सरंक्षण और अपने अस्तित्व की समाप्ति के बाद, अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाली।

वैसी ही थी हमारी नायिका ‘‘ महुआ’’ पर इस शहर ने उसकी सारी खूशबू निचोड़ ली थी। उसका शोषण किया था? जैसे महुआ के ताजे और पोैष्टिक फूलों को सड़ाकर, उसमें दुर्गंध पैदा कर शराब में बदल दिया था, जो कि मदहोशी के साथ दिमाग को भी सड़ा देती है। खैर महुआ की कहानी फिर कभी! अभी उसकी यात्रा जो कि अमरकंटक में पूर्ण होनी थी? या कहें कि एक नई यात्रा की शुरूआत थी? का वृतांत प्रारंभ होता है। एक नारी का नारी से संवाद! नारी का प्रकृति से संवाद (प्रकृति को नारी के रूप में भी परिभाषित किया जाता है) महुआ अपने आप को प्रकृति रूपी से खुद का जुड़ा पाती है और उसका प्रकृति के साथ उसी प्रकार समन्वय हो जाता है, जैसे जीवन के लिए सांसों का समन्वय शरीर से होता है।

द्वितीय सोपान

अपनी यात्रा के पहले पड़ाव में ‘‘महुआ’’ जबलपुर से निकलकर मण्डला जिले में प्रवेश करती है, वहां उसे छोटे-छोटे पहाड़/पहाड़ियां-सतपुडा-मैकल’’ के साथ जंगल दिखाई देता है? धीरे-धीरे चलते गर्मी की भरी दोपहरी में एक घना, और हरा-भरा पेड़ व छांव ‘‘जो कि अपने आप में प्रकृति की अलग झटा बिखेर रहा था, दिखाई दिया। उसके चारों और एक मदमस्त महक आ रही है? जिससे पूरा जंगल महक रहा है, छोटे-छोटे फूल चारों तरह बिखरे पड़े हुए हैं। महुआ उस वृक्ष के नीचे पहुंचकर कुछ फूल उठाकर खाती है। फूलोें में अजीब से ठंडक घुली हुई है,खाने के बाद उसके शरीर में अजीब सी शक्ति का संचार होता है। थोड़े मीठे, थोडे कसेले,  स्वाद में लगने वाले फूलों से आने वाली गंध उसे भी मदमस्त कर देती है, बैसे ही जैेसे वो अपने पुराने/पिछली जिंदगी में थी। और वो वहीं फूलों के बीच में लेट जाती है। और उसे पता ही नहीं चलता कि वो कब एक अलग दुनियां में पहुंच गई!

एक अजीब दुनिया, जहां प्रकृति उससे बातें करती हैं, पेड़ बातें करते हैं? पक्षी गाने गाते हैं, उससे बात करते हैं। कई दिनों से सुकुन की तलाश में फूलों के बारे में, स्वयं के बारे में सोचती ‘‘ महुआ ’’ उसी पेड़ से बातें करने लगती है। एक नारी का नारी से संवाद! नारी का प्रकृति से संवाद (प्रकृति और वन को नारी के रूप में भी परिभाषित किया जाता रहा है) महुआ अपने आप को प्रकृति खुद का जुड़ा पाती है, और उसका प्रकृति के साथ उसी प्रकार समन्वय हो जाता है, जैसे जीवन के लिए सांसों का समन्वय शरीर से होता है। उसे अपनी आपबीती सुनाती है, उसके साथ सारे गम साझ करने के बाद उसे अजीब शांति का अहसास होता है। उसे ख्याल आता है कि उसने तो अपनी सरी पीड़ा बता दी, और जिससे बात कर रही है, उसका तो उसने नाम तक नही पूंछा,उसके बारे में, उसके दर्द के बारे में तो बात ही नहीं की? कितनी स्वार्थी/शहरी हो गई ?

– महुआ का महुआ से संवाद –

महुआ1 – ये प्रकृति मां की पुत्री, मुझे इतनी शांति और अपने रस से मेरी क्षुदा तृप्त और संतुष्टि प्रदान करने वाली आप कौन हैं, आपका नाम क्या है आप अपने बारे में मुझे बताइए?

महुआ ने बड़ी प्रसन्नता के साथ जबाब देते हुए कहा, मैं विगत कई सदियों से इन्हीं जंगलों, पहाड़ांे में रहती हूं। प्रकृति के संतुलन को बनाए रखने, बादलों को अपनी ओर बुलाकर, जंगलों में जल की व्यवस्था करने, जंगल में रहने वाले जीव-जन्तु, मानव,दानव, असुर (जातियां) आदि सहित वंचित समुदाय‘‘ जिन्हें शहरी लोग आदिवासी कहते हैं, जो कि वास्तव में मूल निवासी हैं! डनका पोषण, आजीविका, परम्परा, संस्कृति संस्कार हूं। मेरा नाम ‘‘महुआ’’ है जो कि निश्चित रूप से तुम्हें मुझसे जोड़ता भी है? तुम भी मेरे परिवार के किसी सदस्य का हिस्सा हो, जिसने तुम्हारा नाम भी महुआ रखा।

महुआ1 – तो क्या तुम भी मेरी तरह स्त्री हो? नारी हो? क्या तुम्हें भी वो सब अत्याचार, उत्पीड़न झेलने पड़ते हैं जो कि मुझे या हर स्त्री को केवल इसलिए झेलने पड़ते हैं कि वो एक स्त्री है। आप अपने बारे में और भी बताएं?

महुआ – भारतीय आदिवासी संस्कृति में मुझे कई नामों से पुकारते हैं? हां भी एक स्त्री/नारी हूं? मुझमे उत्पादकता है, मुझमें ही फूल लगते हैं, फल लगते हैं, बीज भी मुझमें ही समाहित हैं। मैं आदिवासी समाज के लिए अत्यंत पवित्र हूं! पर अधिकांशत: शहरी लोगों द्वारा प्रताड़ित होती हूं। जहां एक और आदिवासी समाज मुझे ‘‘महुआ महारानी’’/ महुआ देवी मानता है, और मेरे वृक्ष पर चढ़ता तक नहीं, मेरी डालियों को काटता भी नहीं! इसीलिए मै सालभर हरी पत्तियों से लदी रहती हूं। ये पत्तियां ही मेरा श्रंगार हैं । पिछले कई दशकों में जंगल में शहरी लोगों की घुसपैठ बढ़ गई है, पहले साल के वृक्षों के लिए आए, सारा जंगल खत्म कर दिया? फिर सीषम, सागौन के लिए, उसे भी काट लिया, जंगलों से आम भी खत्म कर दिया!  फिर विकास के लिए? कभी न कभी मेरी भी बारी होगी ।

– इनकी नजरों में विकास क्या है? मैं भी आज तक समझ नहीं पाई? विकास परियोजनाओं के नाम पर बड़े-बड़े बांध, परमाणु बिजली, पृथ्वी के पेट से लोहा, एल्यूमिनियम, सोना, बाक्साइट, पत्थर, मुरम, नदियों से रेत सभी कुछ निकल रहे हैं? फिर कहते हैं कि प्रकृति को संतुलित बनाने के लिए पेड लगायंेगें। हम सदियों से हैं पर जितना पिछले 200 सालों में हमारे जंगलों का विनाष हुआ है! वो कभी नहीं हुआ था। जंगल से कई वृक्ष, पेड़ पौधे, जडी-बूटियां, जानवर, पक्षी या तो विलुप्त हो गए? या इतने घने जंगलों में चले गए कि किसी को भी जानकारी हीं नहीं!

-मैं हिमालय और पंजाब छोेड़कर सम्पूर्ण भारत में पाई जाती हूं। वैज्ञानिक लोग मुझे ‘‘मधुका लोंगफोबिया’’ कहते हैं, और ‘‘सपोटेसी परिवार’’ का सदस्य बताते हैं। मेरी औसतन आयु लगभग 200 वर्ष है, पर कई बार मैं इससे भी ज्यादा जीती हूं। सनातन धर्म भी मेरी पूजा करता है। संस्कृत में मुझे ‘‘मधुका, मूधक, गुड़-पुष्पा नाम से और हिन्दी में मोवरा, महुआ, अंग्रेजी भाषा में इंडियन बटर ट्री के नाम से भी जानते हैं। भारत में खासकर दक्षिण भारत में मेरी 12 प्रजातियां हैं- जिनमें ऋषिकेश, अष्विनीकेश, जटा पुष्प प्रमुख हैं (ये प्रजातियां 4 से 5 सालों में फूल देने लगती हैं. जबिक मैं 15 वर्षों के बाद फूलती हूं )।

महुआ1 – आदिवासी आपकों किस प्रकार देखते हैं? किस प्रकार अपना उत्सव मानते हैं, और आप उनके लिए क्यों महत्वपूर्ण हैं?

महुआ – आदिवासी समाज मुझे ‘‘मां’’, देवी, महारानी के रूप में पवित्र मानते हैं। इसलिए वो वर्ष मे एक बार मेरी पूजा(इंडूम-पंडूम त्यौहार) करते हैं।  ये त्यौहार खासकर गौंड, घुरवा, दोरली, हलबी आदिवासी समुदाय मनाता है। इस उत्सव में वे मुझे भोग लगाते है, सामुहिक भंडारा, नृत्य व मेरी उपासना करते हैं, और मुझसे अधिक फूलने-फलने का वरदान भी मांगते हैं, जिससे कि उनका पोषण और आजीविका अच्छे ढंग से चल सके। बाकी लोगों की तरह वो मेरे फूल तोडते भी नहीं। जब मैं खुद उन्हें फूल देती हूं, तब वो सब उसे इकठ्ठा करते हैं।

– मैं सम्पूर्ण रूप से बहुउपयोगी हूं। मैं फूल, फल, बीज, लकड़ी, खली, छाल, पत्ती आदि रूप से आदिवासी सहित सभी को पोषण प्रदान करती हूं। साल भर हरा-भरा रहने के कारण मेरे वृक्ष पर जैव-विविधता, जंगली जानवर(गोह, गुहेरा, सांप, चिडिया, विविध पक्षी प्राकृतिक आवास के रूप में निवास भी करते हैं। जो कि पर्यावरण सरंक्षण में अपनी अहम भूमिका का निर्वहन भी करते हैं। इस प्रकार मैं आदिवासी समाज के साथ-साथ जैव-विवधता व पर्यावरण सरंक्षण का काम भी करती हूं।

महुआ1 – क्या आपके उत्पादों का कोई औषधीय-महत्व भी है?

महुआ – हां, मैं औषधि भी हूं। मेरे पत्तों से लेकर बीज में औषधीय गुण होते हैं। आर्युवेद, हिन्दू सनातनी संस्कृति में मुझे अत्यंत पवित्र मानते हुए जीवन दायनी माना गया है। आदिवासी समुदाय सहित उनके द्वारा भी मेरी पूजा-अर्चना, वंदना की जाती है।

‘‘अल्सर’’ में मेरे फूल खाने से लाभ मिलता है, इसके अलावा ब्रोकांइटिस (दमा, सांस), सफेद फूल का रस, बुखार-मेरी छाल के रस से त्वचा रोग, डायबिटीज, हाई ब्लड प्रेषर, अर्थाराइटस, गठिया- छाल को पीसकर जोड़ों पर लगताने, सिरदर्द-महुआ के तेल की मालिश करने से, पुरूष्त्व, महिलाओं में एनीमिया, आखों में जलन, दांतदर्द, मिर्गी आदि रोग के निदान के लिए औषधीय रूप में हूं।  मेरे फूल में फैट, विटामिन सी, प्रोटीन, आयरन, कैलशियम, फास्फोरस, कार्बोहाड्रेड प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। साल में एक बार भी यदि महिलाएं मेरे फूल से बने पारंपरिक व्येजन का सेवन करने से उनमें एनिमिया और कुपोषण को दूर करने में मैं सक्षम हूं। पर मेरा यह गुण शायद ही कुछ लोगों को पता हो- इस पर अध्ययन करने की आवश्यकता है।

महुआ1 – आदिवासियों के दैनिक जीवन में आपकी क्या उपयोगिता है?

महुआ-  मैं, आदिवासियों के लिए एक जीवनशैली हूैं। उनके पारंपरिक भोजन में ‘‘ महुआ की मीठी पूड़ी(गुड, गेंहू/मक्का का आटा और गुली तेल से निर्मित), महुआ की घुघरी (दही, चना, गुड़ से निर्मित), महुआ की चाय(सौंठ, पत्ते, तुलसी,इलायची, गुड, चायपत्ती के साथ), महुआ का लाटा(महुआ, गुड केक), महुआ-अलसी के लड्डू आदि के सेवन से न केवल महिलाओं में एनीमिया(रक्त की कमी) को दूर करती है। अपितु बच्चों का (दूध पिलाने वाली माताओं के दूध में पौष्टिकता बढ़ाते हुए) में कुपोषण को भी समाप्त करती हूं। आदिवासी क्षेत्रों यदि बच्चों में कुपोषण दूर करना है? तो इन्हें महुआ-अलसी-गुड के लड्डू खिलाने उनमें प्राकृतिक रूप् से पोषण प्राप्त होता है। इसलिए आदिवासी इनका सेवन करते हैं, और आदिवासी महिला-पुरूष दोनों ही शारीरिक रूप से सशक्त होते हैे।

– आदिवासी संस्कृति में महुआ – आदिवासी विवाह के समय मेरे पत्तों का पारंपरिक मंडप बनाया जाता है, साथ ही साल का खाम लगाया जाता है, और इसी मंडप के नीचे आदिवासी परम्परा के अनुसार विवाह किया जाता है। यहां एक बात और महत्वपूर्ण हैं, जब मुझमें फूल आते हैं, तभी आदिवासियों में पारम्परिक रूप से विवाह की प्रक्रियाएं प्रारंभ होती है। जबकि इस दौरान बाकी सनातनी धर्म में विवाह आदि शुभ कार्य निषेध रहते हैं। मैं आदिवासी जीवन के लिए अत्यंत शुभ और पवित्र हूं, ऐसा आदिवासी समुदाय मानता है? और मैं हूं भी।

– महुआ( नॉन टिम्बर फारेस्ट प्रडयूस)- मैं आदिवासी अर्थव्यवस्था की रीढ होकर उनके लिए वरदान भी हूं- महुआ फूलों का औसत कारोबार व अनुमानित उत्पादन 0.85 मेट्रिक टन(राष्ट्रीय स्तर पर),  आंध्र प्रदेष में  13706, म0प्र0 में 5730 मि0टन, उडीसा मे 2100 मि0टन है। औसतन हर आदिवासी व्यक्ति 70-80 क्रिगा सूखा महुआ फूल 4 से 6 सप्ताह में एकत्र करता है(मार्च से मई तक)। मै प्रति पेड़ लगभग 50 से 60 किलो सूखा फूल प्रदान करती हू। इस प्रकार यदि परिवार में 5 से 8 क्विटंल महुआ एकत्र करते हैं जो कि स्थानीय व्यापारी को 50 से 60 रूप्ये प्रतिकिलो के हिसाब से अपने उपयोग के लिए निकलने के बाद विक्रय कर देते हैं । इस प्रकार कम से कम 25 से 30 हजार रूप्ये का महुआ फूल आदिवासी परिवार विक्रय करता है। इसके अलावा फल(गुली) आदि का भी आदिवासी संकलन कर उसका विक्रय करता है। कुल मिलाकर वर्ष में मैं प्रति आदिवासी परिवार को लगभग 40 हजार रूप्ये की आजीविका प्रदान करती हूं।

– जन्म से मृत्यु तक –  मुझसे आदिवासी को ब्रेड, बटर और वाइन तीनों ही मिलती है, इसलिए मैं उनके जन्म से मृत्यु और मृत्यु संस्कारों में भी उपयोगी हूं। मेरी पत्तियों से दोना-पत्तल, धार्मिक अनुष्ठानों में महुआ की शराब और तेल का उपयोग किया जाता है। हल्वा समाज मुझ पर कुल्हाडी नहीं चलता। इस समाज  में अबोध बच्चे की मृत्यु पर उसकी कब्र पर महुआ का पौधा लगाया जाता है, आदिवासी देवी-देवताओं को महुआ शराब का तर्पण किया जाता है।

– लोकसंस्कृति और लोकनृत्यों में – आदिवसी अपने देवी देवताओं को महुआ का फूल चढाते हैं , उनकी मान्यता हैं कि पूजा के फूल सडना नहीं चाहिए, उससे दुर्गंध नहीं आना चाहिए, बल्कि उसे समय के साथ और महकना चाहिए। महुआ फूल को 20-25 वर्षाें तक संरक्षित कर रखा जा सकता है। आवष्यकता होने पर सूखे फूल को पानी में डालने पर वो ताजा व खुखबूदार होकर महकने लगता है। महुआ की छाल से निकलने वाली गोंद का भी आदिवासी कुछ औषधीय उपयोग करते हेै।

– म0प्र0 में महुआ विरासत शराब(हैरिटेज लिकर) – मध्यप्रदेष में आदिवासियों की आजीविका और आय को बढ़ाने के लिए महुआ शराब की मांग को देखते हुए मध्यप्रदेश शासन 2021 में आदिवासियों के लिए आदिवासी क्षेत्रों में डिस्टलरी स्थापित करने के लिए नीति भी लाई है।  देखना यह है कि इससे क्या वास्तव में आदिवासियो का भला होता है? या किसी और का… बैसे यह स्वयं सहायता समूह के द्वारा स्थापित किया जाना प्रस्तावित है।

महुआ हैरान हेै, उसे जंगल में केवल आए एक दिन हुआ है? और केवल एक वृक्ष महुआ से संवाद हुआ है, उसकी कहानी और जीवन को सुना? पता नहीं अभी तो जंगल में क्या-क्या है? महुआ की नींद खुलती है…

चारों तरफ बस एक मदमस्त महक फैली है, और ये पूरे जंगल को मदमस्त बना रही है, महुआ महारानी जंगल में फूलों की बारिस कर रही हेै, महुआ प्रकृति रूपी महुआ को धन्यवाद देती है…

महुआ, महुआ(प्रकृति) से और भी अधिक बहुत अधिक बात करना चाहती थी, क्योंकि उसे लग रहा था कि वह अपने ही हिस्से/अपने आप से ही बात कर रही है, लेकिन नीदं टूटती ओैर मधुर सपना टूट जाता है, और जीवन की वास्तविकता सामने आने लगी…

विश्लेषण: महुआ अपनी प्रथम यात्रा के दौरान कई प्रकार के प्रश्न खडा करती दिखाई देती है। विकास परियोजनांए, विस्थापन, पलायन, अजीविका, दलित और मलिन शहरी बस्ती और मूलभूत सुविधाओं का अभाव व उत्पीडन, एकल युवा महिला के समक्ष रोजमर्रा के जीवन में आने वाली परेषानियां, पितृसत्तामक व्यवस्थाएं, छेडछाड़, अत्याचार, जीवन जीने के संवैधानिक अधिकार, न्यूनतम मजदूरी, महिलाओं के हित में बने विभिन्न कानून और उनके क्रियान्व्यन की दयनीय स्थितियां, जंगल और जैव-विविधता,  वनाधिकार, आदिवासी जीवन, परम्पराएं, रीति-रिवाज, जल व नदी संरक्षण, और मानवीय अधिकार  आदि… महुआ की यात्रा सतत जारी है… नर्मदा की ओर…जंगल की ओर… जीवन की ओर…

क्रमश: अगले अंक में

       (‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )

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