दुनिया में आने वाले समय में खाद्यसुरक्षा संबंधित नए अध्ययन में वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि आने वाले समय में काई या शैवाल, खास तौर से सूक्ष्मशैवाल (Microalgae)की प्रजातियां सुपरफूड बन सकती हैं. इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने बताया है कि कैसे शैवाल भविष्य में प्रोटीन की समस्या को हल कर सकते हैं जिसके लिए व्यवसायिक स्तर पर उत्पादन और प्रयास किए जाने चाहिए.

दुनिया में खाद्य सुरक्षा की समस्या एक गंभीर विषय होता जा रहा है. जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई, बढ़ती जनसंख्या ना केवल जलवायु पर दबाव डाल रहे हैं कृषि उत्पादन पर भी दबाव है. वैज्ञानिक कई सालों से समुद्री काई या शैवाल की भोजन के रूप में क्षमता के महत्व को जानते हैं और इसे खाद्य स्रोत बनाने पर काम कर रहे हैं. नए अध्ययन में दावा किया गया है कि भविष्य में सूक्ष्मशैवाल उच्च प्रोटीन और पोषण तत्वों से भरा सुपरफूड हो सकता है.

वैज्ञानिक लंबे समय से जानते हैं कि वर्तमान कृषि पद्धतियां ही दुनिया में ग्रीन हाउसगैस और पर्यावरणीय प्रदूषण के उत्सर्जन का प्रमुख स्रोत हैं. इससे दुनिया की अरबों की आबादी की दीर्घकालिक खाद्य सुरक्षा को खतरा हो गया है. अब सैन डियागो की कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं की टीम ने कहा है कि हजारों शैवाल की प्रजातियों और जलीय वातावरण में पाए जाने वाले अन्य साइनोबैक्टीरिया जैसे प्रकाश संश्लेषण वाले जीव, जिन्हें सूक्ष्म शैवाल कहते हैं, नए तरह का सुपरफूड होने की क्षमता रखते है.

इसके अलावा विशेषज्ञों ने सूक्ष्मशैवाल या काई की पैदावार कर उसे व्यवसायिक तौर पर उत्पादन करने वाली वर्तमान तकनीकों को रेखांकित किया है. इसके साथ उन्होंने इनके उत्पादन के लिए आने वाले वैज्ञानिक और आर्थिक चुनौतियों का भी जिक्र किया है. यूसीएसजडी के जीवविज्ञान के प्रोफेसर और अध्ययन के सहलेखक स्टीफन मेफील्ड का कहना है कि अब लगभग सभी लोग इस बात को मानते हैं कि अब दुनिया को प्रोटीन उत्पादन में और ज्यादा प्रभावी और कारगर होना होगा.

पिछले अध्ययनों की समीक्षा करने के बाद शोधकर्ताओं ने पाया है कि शैवाल या काई से मक्के की तुलना में उसी भूमि में सालाना 167 गुना ज्यादा उपयोगी जैवभार का उत्पादन हो सकता है. इसके अलावा काई के स्ट्रेन यूरोपीय प्रोटीन खपत की 25 फीसद और वर्तमान में परम्परागत फसलों द्वारा उपयोग में लाई जा रही जमीन पर ही उगाने पर कुल वनस्पति तेल का 50 फीसद खपत की जगह ले सकते हैं.

मेफील्ड का कहना है कि काई या शैवाल का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसमें प्रति एकड़ प्रोटीन उत्पादन ज्यादा हो सकता है. शैवाल सोयाबीन की तुलना में 10 गुना या फिर 20 गुना या उससे भी ज्यादा प्रति एकड़ उत्पादन हो सकता है. इसके अलावा कई शैवाल प्रजातियां आसानी से खारे पानी तक में पैदा हो सकती हैं और कई बार तो डेयरी क्रियाकलापों के अपशिष्ट पानी में भी पैदा की जा सकती है और उससे बहुत सारा साफ पानी तक बचाया जा सकता है.

शैवाल या काई विटामिन, खनिज और अन्य स्थूल पोषक तत्वों में समृद्ध हैं जो इंसानी सेहत के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं जिनमें ओमेगा 3 फैटी एसिड और अमीनो एसिज शामिल हैं. वैज्ञानिकों ने बहुत सारे उपलब्ध वैज्ञानिक उपकरणों की व्याख्या की जो व्यवसायिक रूप से शैवाल उत्पादों का उत्पादन किया जा सकता है. मिसाल के तौर पर एस्टैक्सान्थिन नाम का एंटीऑक्सीडेंट में जेनेटिक म्यूटेशन से इसके उत्पादन और प्रोटीन की मात्रा में भी इजाफा किया जा सकता है.

मेफील्ड के मुबात उच्च स्तरीय शैवाल की खेती का व्यवसायिक विकास को परम्परागत आणविक इंजीनियरिंग के मिश्रण दोनों को शामिल कर सकता है. लेकिन बहुत सारी चुनौतियां का पता तब चलता है जब हम करने के लिए जमीन पर उतरते हैं. दुनिया ने पहले ही स्मार्टफोन, कम्प्यूटर, इलेक्ट्रिक कारों के मामले में भी इसी प्रक्रिया से गुजरे हैं और बेहतर तकनीकों के साथ सामने आए हैं. ऐसा हम काई या शैवाल के साथ ही कर सकते हैं. यह अध्ययन फ्रंटियर्स इन न्यूट्रीशन में प्रकाशित हुआ है.

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