वेक्सीन को लेकर इतना भ्रम व्याप्त हो चुका है कि पुरज़ोर कोशिश के बावजूद मेरी ग्राम पंचायत में महज़ पाँच प्रतिशत आबादी को ही वेक्सिनेट किया जा सका है.लोग कोविड से मरने को तैयार है ,पर टीका लगवाने को राज़ी नहीं हैं. ग्राम पंचायत 4418 आबादी में अब तक 272 लोगों ने वेक्सीन का पहला डोज़ लिया है , इसके लिए भी सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों और हेल्थ वर्कर्स को पूरा ज़ोर लगाना पड़ा है.              

बुजुर्ग और पैंतालीस प्लस के लोग टीका लगाने को तैयार नहीं है, जबकि अठारह प्लस के युवक युवतियाँ तैयार है, पर सरकार की नीति के मुताबिक़ उनका नम्बर नहीं आ रहा है.अजीब विडम्बना है कि जो लगाने को तैयार है, उनको नहीं लगाई जा सकती है और जिनको लगाने की घर घर जा कर मनुहार की जा रही है, वो किसी भी क़ीमत पर वेक्सीन नहीं लेना चाहते हैं.

अगर यही हाल रहा तो ग्रामीण भारत का टीकाकरण अगले पाँच साल तक भी नहीं होने वाला है, तब तक जाने कितनी ही लहरें उठेगी और लाखों लोगों को लील जायेगी.वेक्सीन को लेकर गाँवों में बहुत भ्रांतियाँ फैल गई है.अफ़वाहें हैं कि इसे लगाते ही बुख़ार आने लगता है, जो कभी उतरता ही नहीं है. यह भी भ्रम फैलाया जा रहा है कि यह जनसंख्या नियंत्रण का प्रयास है, इससे बाँझपन और नपुंसकता आ जायेगी. इससे भी भयानक ग़लतफ़हमी तो यह है कि इसको लगाने के बाद पंद्रह दिन से दो वर्ष के भीतर लोगों की मौत होने वाली है.

मैने इस लॉकडाउन के दौरान अलग अलग गाँवों में वेक्सीन से मौतों की झूठी अफ़वाहों को सुना और उनका फ़ैक्ट चेक करने पर एकदम निराधार पाया है. मरने वाले अधिकांश लोगों ने तो टीका लगवाया ही नहीं था, बावजूद इसके भी इस तरह की बातें सुव्यवस्थित तरीक़े से फैलाई जा रही है. ऐसा लगता है कि कोई रूमर्स स्प्रेडिंग सोसायटी है जो नियोजित तरीक़े से यह कर रही है.संभव हो कि ये लोग सत्ता पोषित आईटी सेल के लोग हों जो वेक्सीन की देशव्यापी कमी के दौरान इस प्रकार का माहौल बनाकर वेक्सीन की कमी से जूझते सत्ता प्रतिष्ठान की अप्रत्यक्ष मदद कर रहे हों.

एक और भयानक तथ्य यह भी सामने आ रहा है कि ग्रामीण भारत में वेक्सीन से इंकार कर रहे लोगों व समुदायों में सबसे बड़ा प्रतिशत दलित, आदिवासी , घुमंतू और अल्पसंख्यक समुदाय का है. मेरी पंचायत के एक गाँव के आदिवासी बस्ती के लोग तो टीके के भय से गाँव से खेतों में चले गये, वहीं घुमंतू बागरिया समुदाय ने तो साफ़ साफ़ इंकार ही कर दिया. कमोबेश यही स्थिति बलाई और बैरवा समुदाय की बस्तियों का भी रहा है, जहां से वेक्सिनेशन सेंटर तक कोई नहीं पहुँचा.

ऐसा लग रहा है कि अज्ञान और विज्ञान में लड़ाई हो रही है. व्हाट्सएप के फ़र्ज़ी फ़ॉरवर्ड, हर चीज़ में साज़िश खोज लेने वाले घटिया रहनुमा, पथरीले देवी देवता, अज्ञानी बाबा बाबियाँ, मंदिरों मस्जिदों के कुपढ़ महंत मौलवी और बोफे भोपे , ये सब मिलकर विज्ञान के ख़िलाफ़ युद्धरत हैं.

सोच रहा हूँ कि इक्कीसवी सदी में अंधश्रद्धा का यह दौर है तो सवा दो सौ साल पहले आए पहले टीके को कैसे लोगों ने स्वीकार किया होगा. अब तक का वृहद् टीकाकरण बच्चों का होता रहा है , इसलिए वो सफल हुआ, लेकिन जैसे ही सो काल्ड समझदारों के हत्थे टीका चढ़ा, उसकी साँसे हांपने लगी है.

इस वक्त ग्रामीण भारत में अज्ञान और विज्ञान के मध्य भीषण लड़ाई जारी है , कोविड के इस मुश्किल दौर में जबकि विज्ञान मानव प्रजाति को बचाने का भरसक यत्न कर रहा है , वहीं अज्ञान के पैरोकार सकल मानव समाज को बर्बाद करने पर उतारू हैं.

हमें अपना पक्ष चुनना होगा कि हम किधर हैं अज्ञान के साथ या विज्ञान के साथ ?
भंवर मेघवंशी

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