ललित मौर्या
वैज्ञानिकों ने अपनी एक नई रिसर्च में खुलासा किया है कि गर्म क्षेत्रों में रहने वाले मरीजों के गुर्दे कहीं ज्यादा तेजी से खराब होते हैं। रिसर्च से पता चला है कि क्रोनिक किडनी डिजीज (सीकेडी) से पीड़ित मरीज जो बेहद गर्म क्षेत्रों में रहने को मजबूर हैं, वो सालाना गुर्दे की कार्यक्षमता में आठ फीसदी की अतिरिक्त गिरावट का अनुभव करते हैं।
गुर्दे की कार्यक्षमता में यह अंतर समशीतोष्ण जलवायु में रहने वाले मरीजों की तुलना में देखा गया है। बता दें कि समशीतोष्ण क्षेत्रों में तापमान बहुत ज्यादा गर्म नहीं होता। साथ ही वहां सर्दी और गर्मी के तापमान में भी बहुत ज्यादा अंतर नहीं होता। यह रिसर्च लंदन स्कूल ऑफ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन (एलएसएचटीएम) और यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन (यूसीएल) से जुड़े शोधकर्ताओं के नेतृत्व में की गई है, जिसके नतीजे जर्नल द लैंसेट प्लैनेटरी हेल्थ में प्रकाशित हुए हैं।
अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने गर्मी और क्रोनिक किडनी डिजीज के बीच संबंधों को उजागर किया है। बता दें क्रोनिक किडनी डिजीज, सालों पुराने वो मर्ज हैं जो गुर्दे को प्रभावित करते हैं। अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं उनके मुताबिक गर्म देशों में किडनी सम्बन्धी बीमारियों से पीड़ित मरीजों के स्वास्थ्य के लिए गर्मी एक बड़ी समस्या है। वहीं जिस तरह वैश्विक तापमान में वृद्धि आ रही है यह स्थिति कहीं ज्यादा गंभीर हो सकती है।
हालांकि इस बात से कोई खास फर्क नहीं पड़ता कि वो देश अमीर है या करीब या इससे पीड़ित मरीजों को मधुमेह जैसी अन्य स्वास्थ्य समस्याएं हैं। आंकड़ों के मुताबिक दुनिया का हर दसवां इंसान आज किडनी सम्बन्धी बीमारियों का शिकार है।
गौरतलब है कि क्रोनिक किडनी डिजीज (सीकेडी) के लिए विभिन्न कारण जिम्मेवार होते हैं। इन सभी की वजह से किडनी की कार्यक्षमता में धीरे-धीरे गिरावट आने लगती है। ऐसे में जब गुर्दे या किडनी मरीज को जीवित रखने के लिए पर्याप्त नहीं रहते तो उन्हें डायलिसिस या किडनी प्रत्यारोपण की आवश्यकता पड़ती है।
सीकेडी का इलाज बेहद महंगा नहीं है, लेकिन किडनी प्रत्यारोपण या डायलिसिस पर बेहद ज्यादा खर्च आता है। इनका इलाज मरीजों का जीवन बेहद कठिन बना देता है। शोधकर्ताओं के मुताबिक केवल गुर्दे की विफलता के इलाज में एनएचएस अपने बजट का तीन फीसदी खर्च करता है।
वहीं यूके में सालाना हर मरीज के डायलिसिस पर 30 से 40 हजार पाउंड का खर्च आता है। यूके में, सालाना करीब 70,000 लोगों को किडनी रिप्लेसमेंट थेरेपी मिलती है, जिनमें से करीब 45 फीसदी डायलिसिस करवाते हैं और 55 फीसदी का किडनी ट्रांसप्लांट हुआ था।
बढ़ते तापमान का कैसे करें सामना, कमजोर देशों में उपचार तक नहीं उपलब्ध
वहीं यदि दूसरी तरफ कमजोर देशों की बात करें तो इसका उपचार तक उपलब्ध नहीं। ऐसे में वहां इस बीमारी से पीड़ित मरीजों के लिए यह घातक साबित हो सकता है। हालांकि यह लम्बे समय से ज्ञात है कि गर्म देशों में क्रोनिक किडनी डिजीज से पीड़ित मरीजों की स्थिति बेहद खराब होती है। लेकिन यह पता लगाना कठिन है कि क्या गर्मी इससे पीड़ित मरीजों में स्थिति को तेजी से खराब कर सकती है।
ऐसा इसलिए है क्योंकि अलग-अलग जगहों पर किडनी से जुड़ी समस्याएं अलग-अलग होती हैं। इसी तरह वहां स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच के बीच गहरी खाई है। इसके साथ ही जब मरीज इससे पीड़ित नहीं होते तो उनसे एक ही तरह की जानकारी एकत्र करना चुनौतीपूर्ण होता है।
इस रिसर्च में शोधकर्ताओं ने हीट इंडेक्स के साथ एस्ट्राजेनेका द्वारा सीकेडी क्लिनिकल ट्रायल के आंकड़ों का विश्लेषण किया है। वो देखना चाहते थे कि क्या बेहद अधिक गर्मी के संपर्क में आने से सीकेडी से पीड़ित मरीजों में गुर्दे की कार्यक्षमता पर असर पड़ता है। इस अध्ययन में 21 देशों के 4,017 लोगों को शामिल किया गया। यह सभी लोग अलग-अलग जलवायु क्षेत्रों से सम्बन्ध रखते थे। इनमें से कुछ उच्च जबकि कुछ मध्यम आय वाले देशों के थे।
इस रिसर्च के जो नतीजे सामने आए हैं उनके मुताबिक बेहद गर्म जलवायु में रहने वाले मरीजों के गुर्दे की कार्यक्षमता में हर साल आठ फीसदी की अतिरिक्त गिरावट आती है। हालांकि शोधकर्ताओं ने इसपर राष्ट्रीय आय का कोई प्रभाव नहीं देखा। साथ ही न ही मरीज के वजन, मधुमेह या रक्तचाप ने उसपर असर डाला था। देखा जाए तो वैश्विक तापमान में जिस तरह से इजाफा हो रहा है वो एक चिंता का विषय है, क्योंकि इससे मरीजों के स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ सकता है।
बढ़ते तापमान से निजात नहीं
वैश्विक स्तर पर देखें तो बढ़ता तापमान अपने आप में एक बड़ा खतरा है। वहीं औद्योगिक काल से पहले की तुलना में देखें तो वैश्विक तापमान में होती वृद्धि पहले ही 1.1 डिग्री सेल्सियस को पार कर चुकी है।
हालांकि वैश्विक स्तर पर इस बढ़ते तापमान को डेढ़ डिग्री सेल्सियस पर सीमित करने के प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन जिस रफ्तार से बढ़ते तापमान को सीमित करने के प्रयास किए जा रहे हैं उसको देखते हुए आशंका जताई जा रही है कि सदी के अंत तक वैश्विक तापमान में तीन डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है।
इस बारे में यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन और अध्ययन से जुड़े वरिष्ठ लेखक, प्रोफेसर बेन कैपलिन ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि, “हम पहले से जानते थे कि दुनिया भर के कई गर्म और गरीब देशों में गुर्दे की बीमारी से पीड़ित मरीजों की स्थिति कहीं ज्यादा बदतर है। लेकिन यह स्पष्ट तौर पर कहना असंभव था कि क्या तापमान और आद्रता इसके लिए मुख्य रूप से जिम्मेवार हैं या स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच, खानपान, मधुमेह जैसे कई अन्य कारक इसको प्रभावित करते हैं।
उनके मुताबिक लेकिन अब रिसर्च से स्पष्ट हो गया है कि इस गर्मी के संपर्क में आने से उन मरीजों की किडनी की कार्यक्षमता तेजी से खराब हो जाती है, जिन्हें पहले से ही क्रोनिक किडनी रोग है। उन मरीजों के लिए यह बेहद मायने रखता है। उनका यह भी कहना है कि ऐसे समय में जब जलवायु में आते बदलावों की वजह से पृथ्वी गर्म जो रही है यह चिंताजनक है।
उन्होंने आशा जताते हुए कहा है कि अब जब हम यह जानते हैं कि इस बीमारी में गर्मी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है तो इससे निपटने के लिए हम विभिन्न तरीकों की मदद ले सकते हैं, जैसे बहुत अधिक पानी पीना, सूरज से बचना और अत्यधिक गर्मी के सम्पर्क में आने से बचना।
साथ ही उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि यह अध्ययन क्रोनिक किडनी डिजीज से पीड़ित मरीजों पर केन्दित था, ऐसे में यह नहीं किया कह सकते कि सामान्य किडनी वाले लोगों में गर्मी उनकी किडनी की कार्यक्षमता को कैसे प्रभावित करती है।
शोधकर्ताओं के मुताबिक दुर्भाग्य से कुछ सबसे कमजोर और गर्म देशों में जहां किडनी प्रत्यारोपण की सुविधा तक उपलब्ध नहीं है, वहां सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए एक यह बड़ी चिंता का विषय है। इन क्षेत्रों में बढ़ते तापमान से समस्या कहीं ज्यादा गंभीर रूप ले सकती है। आंकड़ों की मानें तो भारत की 16 फीसदी आबादी क्रोनिक किडनी डिजीज से पीड़ित है। वैश्विक स्तर पर देखें तो 2018 के दौरान डायलिसिस प्राप्त करने वाले मरीजों की संख्या भारत में सबसे अधिक थी, जो 175,000 दर्ज की गई।
(‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )