डा. राणा प्रताप सिंह
स्वास्थ्य प्रबंधन के क्षेत्र में बढ़ती जा रही गैर बराबरी, अमीर-गरीब के बीच की खाई, अमीर और गरीब राष्ट्रों के बीच की खाई तथा बाजार तथा धनतंत्र की आपाधापी एक अधारणीय व्यवस्था है। यह संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा हाल ही में निर्धारित किए गए धारणीय विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में कम धनी व अल्प औद्योगिक राष्ट्रों के लिए एक बड़ी बाधा भी है। स्वास्थ्य प्रबंधन पर बढ़ते जा रहे बाजार तंत्र के समर्थन में चिकित्सकीय शोध, दवाइयों, उपकरणों तथा संस्थानों की गुणवत्ता को कायम रखने तथा लगातार इसकी गति बढ़ाने के लिए इसकी आवश्यकता की बात की जाती है।
हमें तेज गति से हो रहे औद्योगीकरण, बाजार प्रबंधन और वैज्ञानिक सिद्धांतों के तकनीकीकरण का खामियाजा तथा कीमती प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित क्षरण के रूप में देखने को मिल रहा है। यह चिंता यहां तक बढ़ गई है कि पानी की कमी से जूझते समाजों में पानी के लिए युद्ध होने तथा मनुष्य की पृथ्वी की प्रकृति के एक प्रजाति के रूप में नष्ट होने तक की संभावनाएं व्यक्त की जाने लगी हैं। जलवायु परिवर्तन तथा ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दे पर औद्योगिक तथा विकासशील वैश्विक नेतृत्व में लगातार समझौते हो रहे हैं तथा नए सिद्धांत, नियम एवं वैश्विक कानून गढ़े जा रहे हैं, तो चिकित्सा एवं स्वास्थ्य प्रबंधन के क्षेत्र में ऐसा क्यों नहीं हो पा रहा है? जलवायु परिवर्तन से जुड़ी बहसों तथा विवादों में संयुक्त राष्ट्रसंघ कार्बन ट्रेडिंग जैसे नए व्यापार क्षेत्रों को विकसित करने की कवायद कर रहा है तो इस तरह की वैश्विक व्यवस्थाएं, शिक्षा, चिकित्सा और खाद्य सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण सामाजिक क्षेत्रों में क्यों नहीं हो रही हैं?
देश में मनीभूत हो रही जनसंख्या वृद्धि को देखते हुए खाद्य सुरक्षा के बाद अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रों में स्वास्थ्य प्रबंधन सबसे प्रमुख हैं, क्योंकि समाज के हर वर्ग में, हर कोई, हर सम्भव स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होना चाहता है। चिकित्सा विज्ञान में प्राचीन भारत में कई महत्वपूर्ण खोजों के आख्यान मिलते हैं। प्राचीन भारत की आयुर्वेदिक परम्परा में पतंजलि, चरक, सुश्रुत, जीवक और वाग्भट जैसे चिकित्सा वैज्ञानिकों, लेखकों तथा चिकित्सकों के कार्य को भारत के अतिरिक्त अनेक देशों में मान्यता मिली हुई थी। उनके शास्त्रीय ज्ञान को आज भी आयुर्वेद में शोध और विकास के आधारभूत सिद्धांतों के रूप में महत्व दिया जाता है। आधुनिक विज्ञान के विकास और इस पर आधारित औद्योगीकरण तथा वैश्विक बाजार तंत्र के प्रभुत्व ने अवश्य एलोपैथी के विकास को जैसी गति दी, आयुर्वेद और अन्य प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों को गति तथा शोध, विकास, औद्योगीकरण एवं बाजार के लिए आ रहे समर्थन से यह अर्थ निकाला जा सकता है कि वे एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति की तुलना में महत्वहीन हैं और अब समकालीन स्वास्थ्य प्रबंधन में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है। ऐसा सोचना एक अवैज्ञानिक एवं बाजार प्रभावित मानसिकता का द्योतक होगा।
देश में पर्याप्त नहीं स्वास्थ्य प्रबंधन का ढांचा
21वीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारत ने वैश्विक व्यवस्था को स्वीकार किया। इससे संचार साधन, औद्योगीकरण और तकनीकीकरण का पारा चढ़ा तो लोगों की स्वास्थ्य सुविधाओं के प्रति जागरूकता भी बढ़ी आर्थिककरण तथा शिक्षा के प्रसार से लोगों में चिकित्सा सुविधाओं के लिए ललक तो बढ़ीं, परन्तु स्वास्थ्य प्रबंधन का ढांचा स्वतंत्र भारत के सात दशकों में भी उस गति से नहीं बढ़ पाया जिस गति से इनमें वृद्धि की आवश्यकता थी। डॉक्टरों, नसों और पैरामेडिकल स्टाफ तथा अस्पतालों की संख्या जनसंख्या वृद्धि की रफ्तार से तालमेल नहीं रख पाई। गांवों को स्वास्थ्य प्रबंधन की व्यवस्था धन की कमी, अच्छे डॉक्टरों के अभाव तथा स्वास्थ्य सुविधाओं से कार्यकारी व्यवस्थाओं में प्रविष्ट भ्रष्टाचार से ग्रामीण स्वास्थ्य प्रबंधन की चुनौतियां और जटिल होती जा रही हैं। अच्छे उपकरण, अच्छे डॉक्टर, अच्छे पैरामेडिकल में दीक्षित लोग शहरों, बड़े अस्पतालों में ही रहना चाहते हैं, गांव-कस्बों में नहीं जाना चाहते, क्योंकि गांवों और कस्बों में न अधिक पैसा है, न रहवास, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं यातायात की अच्छी सुविधाएं। लेकिन लोग बहुत है और बीमारियां भी। अज्ञानता और बेतरतीबी भरा जीवन जीने वाले लोगों की देश में अब भी बहुतायत है। कोरोना की एक के बाद एक आने वाली खतरनाक लहरों ने हमारी भारी जनसंख्या के लोगों की मानसिकता में प्रमुखता से बैठे गैर पेशेवरपन, अराजकता तथा लापरवाही को लगातार रेखांकित किया है। साथ ही, इसने स्वास्थ्य सेवाओं की भारी कीमत वसूले जाने के बावजूद इनकी बदहाली की पोल खोल दी।
शहरों की स्थितियां थोड़ी बेहतर
देश में आज भी शहरों में स्थितियां थोड़ी बेहतर है, पर गांवों-कस्बों की यह बड़ी जनसंख्या एक छूटी हुई आबादी है, जो शिक्षाविहीन है, धनविहीन है, रोजगारविहीन है और धीरे-धीरे कुंठाग्रस्त तथा निराश होती जा रही है। विडम्बना यह है कि गांव-कस्बों के गरीब तथा अशिक्षित एवं अर्धशिक्षित लोग विशेष तौर से युवा, परम्परागत रोजगार छोड़ना चाहते हैं, श्रम से बचना चाहते हैं, मगर जीवन की अनेक अच्छी सुविधाएं हासिल करना चाहते हैं। वे गांव से चलते हैं, तो शहरों और महानगरों में दिहाड़ी मजदूर बन कर एक अलग तरह की कठिन और श्रमसाध्य जीवन स्थितियों में पड़ जाते हैं। वहां से उचटते हैं, तो फिर गांव आ जाते हैं। उनको बेचैनी उन्हें कहीं चैन नहीं लेने देती। गांवों में शिक्षा की पारिस्थितिकी के खराब हो जाने से एक विचारशील संस्कृति का विकास सम्भव नहीं हो पा रहा है। इसके अभाव में आपसी झगड़े, नशे की लत एवं गैरकानूनी कामों में ग्रामीण युवाओं की लिप्तता उन्हें और मुश्किलों में डालती जा रही है। गांवों में भी बीमारियां लगातार बढ़ती जा रही हैं। एक तरफ श्रम, कसरत, खेल-कूद, योग, प्रातः भ्रमण तथा पोषणयुक्त खाद्य संस्कृतियों की लगातार कमी होती जा रही है तो दूसरी ओर गांवों एवं कस्बों का पानी खराब होता है। भूजल स्तर नीचे चले जाने से आर्सेनिक तथा फ्लोराइड की विषाक्तता कई क्षेत्रों में खतरनाक स्तर पर पहुंच गई है। खेती और बागवानी में इस्तेमाल होने वाले जहरीले रसायन, पानी, हवा, दूध, मांस-मछली, सब्जियों एवं फलों में अनेक तरह के जहरीले रसायनों के अवशेष भरते जा रहे हैं। कैंसर, पेट की बीमारियां और तंत्रिका तंत्र की बीमारिया लगातार बढ़ रही हैं। जलवायु परिवर्तन, वैश्विक गर्मी (ग्लोबल वार्मिंग) तथा प्रदूषकों के प्रभाव से रोग पैदा करने वाले जीवाणु तथा विषाणु लगातार बढ़ रहे हैं तथा अधिक आक्रामक होते जा रहे हैं।
बढ़ती जा रही हैं स्वास्थ्य प्रबंधन की चुनौतियां
एलोपैथी के पास नए दौर के विज्ञान से विकसित दवाइयां, जांच की मशीनें तथा सर्जरी की अच्छी तकनीकें हैं। एलोपैथी में जीवाणु जनित रोगों के लिए, प्रभावी एंटीबायोटिक है, परन्तु फंफूद कुल (फंगस) के सूक्ष्मजीवों तथा वायरस कुल के विषाणुओं के सर्वसुलभ निदान नहीं है। इनकी दवाइयां यदि उपलब्ध भी है़ तो बहुत महंगी हैं और सर्वसुलभ नहीं हैं। कई बीमारियों की भरोसेमंद चिकित्सा, दवाइयों तथा चिकित्सक आयुर्वेद, यूनानी तथा अन्य पद्धतियों में भी है। शारीरिक श्रम, खेल-कूद, व्यायाम, तथा मानसिक क्रियाएं ध्यान आदि भी स्वास्थ्य प्रबंधन के बहुत प्रभावशाली उपाय हैं। अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के रूप में भारतीय योग परम्परा की वैश्विक स्वीकृति इसका ज्वलंत उदाहरण है। स्वास्थ्य प्रबंधन ये चुनौतियां भारतीय गांवों तक नहीं, और पानी और कस्बों तक सीमित हों, ऐसा भी नहीं है। शहरों में भी आबादी घनीभूत होती जा रही है, हवा प्रदूषित तथा खाने की थाली में विषाक्तता बढ़ती जा रही है। खाने की थाली बढ़ती जा रही है तथा लोगों की शारीरिक श्रम करने की इच्छा कम होती जा रही है। शहरों में गांवों की अपेक्षा, स्वास्थ के प्रति जागरूकता तुलनात्मक रूप से अधिक है। योग, प्राणायाम, प्रातः भ्रमण एवं व्यायाम के लाभों, प्रचार-प्रसार के बढ़ने से शहरों में इनका प्रयोग बढा है। जनसंख्या के अनुसार भले ही पर्याप्त न हो, परंतु बड़े और सुविधा सम्पन्न सरकारी और निजी अस्पतालों की संख्या भी गांवों-कस्बों की तुलना में शहरों, विशेष रूप से महानगरों में अधिक हैं। बीमारियां शहरों में भी कम नहीं है। स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ ले पाने की आर्थिक क्षमता और जागरुकता के मामलों में गांव, कस्बे, शहर और महानगरों में भारी अंतर होने के बावजूद बीमारियों की चपेट में आने में संभावनाएं लगभग एक जैसी हैं। बीमारियां लोगों को आर्थिक सामाजिक हैसियत नहीं देखती, हां शरीर की आंतरिक प्रतिरक्षा शक्ति से अवश्य प्रभावित होती है
महंगे चिकित्सा तंत्र में बदल रही एलोपैथ चिकित्सा
बढ़ती जनसंख्या, बार-बार आ रहीं महामारियों, वैश्विक चिंता का कारण बने जलवायु परिवर्तन एवं ग्लोबल वार्मिंग, बढ़ते प्रदूषण एवं घटते शारीरिक श्रम के साथ-साथ मानसिक तनाव एवं बेचैनी के बीच शारीरिक एवं मानसिक बीमारियों का प्रकोप लगातार बढ़ रहा है। क्या शहर क्या गांव, सब इनसे आक्रांत हैं। ये कारक कमोवेश सब जगह एक जैसे हैं। स्वास्थ्य प्रबन्धन की पुरानी और नई चुनौतियों से जूझ पाने और सफलता के नए आयाम पा लेने की तैयारियां हमारे समकालीन विकास की बड़ी आवश्यकता है। इस बीच आयुर्वेद-एलोपैथ का एक अनावश्यक विवाद जो, अचानक सुर्खियों में आ गया है, स्वास्थ्य सुविधाओं के विकास एवं प्रबन्धन की दिशा को दिग्भ्रमित करेगा। यह एक नितांत अवैज्ञानिक विमर्श है, जिससे बचना चाहिए। इस विवाद से स्वास्थ्य प्रबन्धन की चुनौतियों के वास्तविक विमर्श छूटते जा रहे हैं। हमें समझना होगा कि पिछले दो दशकों में वैश्विक आर्थिक खुलेपन के प्रसार के प्रभाव में प्राइवेट मेडिकल कॉलेज तथा पैरामेडिकल के संस्थान विशेष रुप से एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में बड़ी संख्या में खुले हैं, परन्तु ये सबकी पहुंच में नहीं हैं। इन निजी चिकत्सा संस्थानों से विशेषज्ञ चिकित्सक बन कर निकलते निकलते प्रत्येक शिक्षार्थी का करोड़ों रुपया खर्च हो जाता है। बात सिर्फ यह नहीं है कि केवल अमीर लोग ही इन संस्थानों में शिक्षा ले सकते हैं। बात एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति के एक अत्यन्त महंगे चिकित्सा तंत्र में बदलते जाने की ही नहीं है बल्कि काफी बड़ी आबादी को चिकित्सीय लाभ से वंचित करता है।
इस तरह हम एक संवैधानिक दायित्व को पूरा करने में पिछड़ रहे हैं। प्रश्न यह है कि क्या एलोपैथी चिकित्सा के स्थापना एवं संचालन तंत्र को वास्तव में इतना ही महंगा होना चाहिए? डॉक्टर को भगवान की तरह मानने वाली जनता के प्रति डॉक्टर और चिकित्सा तंत्र का दायित्व बाजार की शर्तों पर चिकित्सा उपलब्ध कराना है। तो सेवा और भगवान जैसा होने की पात्रता का क्या ? क्या स्वास्थ्य प्रबंधन की कुल लागत व्यय लाभ और गरीब जनता से इसकी दूरी घटाई नहीं जा सकती ? यह विचारणीय प्रश्न है। पूरे एलोपैथी चिकित्सा तंत्र में संस्थानों अनेक विभागों एवं डॉक्टरों के स्तर पर भारी भ्रष्टाचार की बातें आम हैं। सरकारी, सरकार समर्थित कमीशनखोरी तथा निजी, हर तरह के एलोपैथी चिकित्सा तंत्र में दवाओं, उपकरणों में एवं अन्य आवश्यक संसाधनों के निर्माण, विपणन और मरीजों के लिए अनुशंसित किए जाने में परिलक्षित भ्रष्टाचार तथा सामानांतर अवैध अर्थतंत्र पर विमर्श नहीं हो पा रहा है। आयुर्वेद-एलोपैथ का आपसी विवाद हमें इन परिस्थितियों में कोई राहत देने वाला नहीं है, यह समझना बहुत आवश्यक है। पिछले कुछ वर्षों में राष्ट्रीय एवं राज्य समर्थित सरकारी मेडिकल कॉलेजों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि तो हुई है, परन्तु स्थापित सरकारी मेडिकल संस्थानों से भी अनुभवी तथा सफल डाक्टर मोटे आर्थिक पैकेज की लालच में महानगरों के बड़े निजी अस्पतालों में जाने लगे हैं। गांवों में डॉक्टर जाना नहीं चाहते।
सरकारी अस्पतालों में नौकरी करनी भी पड़े तो उनकी नियमित उपस्थिति तथा पेशेगत समर्पण के उदाहरण लगातार घटते जा रहे हैं। प्रश्न है कि समकालीन वैश्विक व्यवस्था में हर व्यवसाय को वैश्विक अर्थतंत्र ही नियंत्रित करेगा, तो उन गरीब और अशिक्षित या अर्धशिक्षित रोजगार विहीन छूटे हुए गांव-कस्बों तथा शहरों की मलिन आबादी को चिकित्सा सुविधा कैसे मिलेगी। क्या प्राकृतिक संसाधनों तथा ज्ञान-विज्ञान विकास पर सिर्फ धनाढ्यों का ही अधिकार है? इस महत्वपूर्ण प्रश्न को लेकर न तो कोई विवाद है, न ही यह हमारे विमर्श में आ पा रहा है। क्या सबने मान लिया है कि वैश्विक अर्थक्षेत्र के ऊपर कोई और सर्वजनीय, सर्वहिताय मानवीय व्यवस्था निर्मित ही नहीं हो सकती? हम इस बात से अनभिज्ञ है कि ऐसी निराशा मानवता के विकास और मानव युग की सबसे बड़ी त्रासदी भी हो सकती है। यह मात्र आर्थिक मुद्दा नहीं है और न मात्र राष्ट्र के प्रशासनिक प्रबंधन का मुद्दा है। यह मात्र मानवीय संवेदना का मुद्दा भी नहीं है। यह विश्व एवं पृथ्वी के सुखद भविष्य की तलाश में एक नई मानवीय संस्कृति तथा मानवीय व्यवस्था की आवश्यकता तथा उसके खोज का प्रश्न है। यह मानवीय समाजों के धारणीय विकास और सहजीविता के सिद्धांतों का प्रश्न भी है, जिस पर पृथ्वी की समूची प्राकृतिक व्यवस्था आश्रित है।
अधारणीय व्यवस्था है स्वास्थ्य प्रबंधन में गैर बराबरी
आयुर्वेद एक महत्वपूर्ण भारतीय चिकित्सा पद्धति है, जिसने अपना एक बहुआयामी वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित किया है, परन्तु एलोपैथी, होम्योपैथी तथा अन्य चिकित्सा पद्धतियां भी अपने वैज्ञानिक दृष्टिकोणों एवं अपने अपने विज्ञान दर्शन के साथ विकसित हुई हैं। सभी अपनी-अपनी तरह से मनुष्य, पशु और प्रकृति की सेवा कर सकती हैं, जो उन्हें करना भी चाहिए। लेकिन यह अमानवीय तथा अवैज्ञानिक अर्थतंत्र, गैर पेशेवर लालचतंत्र, मूल्यविहीन संस्कृति तथा विज्ञान मनुष्य के सम्यक विकास की जगह हमारी ज्ञान-विज्ञान की परम्परा के क्षरण के द्योतक हैं। एक चैतन्य समाज को धारणीय विकास के लिए इस तरह के सांस्कृतिक शैक्षणिक क्षरण को रोकना होता है।
स्वास्थ्य प्रबंधन के क्षेत्र में बढ़ती जा रही गैर बराबरी, अमीर-गरीब के बीच की खाई, अमीर और गरीब राष्ट्रों के बीच की खाई तथा बाजार तथा धनतंत्र की आपाधापी एक अधारणीय व्यवस्था है। यह संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा हाल ही में निर्धारित किए गए धारणीय विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में धनी व अल्प औद्योगिक राष्ट्रों के स्वास्थ्य राष्ट्रों लिए प्रबंधन ! एक बड़ी बाधा भी है। पर बढ़ते जा रहे बाजार तंत्र के समर्थन में चिकित्सकीय शोध, दबाइयों, उपकरणों तथा संस्थानों की गुणवत्ता को कायम रखने तथा लगातार इसको गति बढ़ाने के लिए इसकी आवश्यकता की बात की जाती है। हमें तेज गति से हो रहे औद्योगीकरण, बाजार प्रबंधन और वैज्ञानिक सिद्धांतों के तकनीकीकरण का खामियाजा प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन तथा कीमती प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित क्षरण के रूप में देखने को मिल रहा है। यह चिंता यहां तक बढ़ गई है कि पानी की कमी से जूझते समाजों में पानी के लिए युद्ध होने तथा मनुष्य की पृथ्वी की प्रकृति के एक प्रजाति के रूप में नष्ट होने तक की संभावनाएं व्यक्त की जाने लगी हैं।
हम आवश्यक तथा अनावश्यक जहरीला एवं न गल पाने वाले कचरे के ढेर इकट्ठा करते जा रहे है़। एक तरफ हम नदियों को, वायु को तथा भोजन की थाली को प्रदूषित करके खतरनाक बीमारियों की आशंका को बढ़ा रहे हैं, तो दूसरी ओर चिकित्सा सुविधाओं को महंगा करके लोगों की नए चिकित्सकीय अनुसंधानों तक पहुँच कम कर रहे हैं। प्रश्न है कि यदि बाजार और उद्योग अपने कुप्रबंधन तथा असीमित मुनाफा कमाने की बढ़ती प्रवृत्तियों के कारण प्रदूषण-जनित बीमारियां बढ़ाने के लिए जिम्मेदार हैं, तो इनसे होने वाले रोगों से जुड़े खर्च को उठाने में उनकी कोई जवाबदेही क्यों नहीं है?
जलवायु परिवर्तन तथा ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दे पर औद्योगिक तथा विकासशील वैश्विक नेतृत्व में लगातार समझौते हो रहे हैं तथा नए सिद्धांत, नियम एवं वैश्विक कानून गढ़े जा रहे हैं, तो चिकित्सा एवं स्वास्थ्य प्रबंधन के क्षेत्र में ऐसा क्यों नहीं है?” जलवायु परिवर्तन से जुड़े समझौते में प्रदूषण बढ़ाने तथा जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार औद्योगिक देशों को लगातार अतिरिक्त जिम्मेदारियां दी जा रही हैं तथा कम औद्योगिकीकरण वाले जिन देशों में तकनीकी सहयोग के रुप में ग्रीन हाउस गैसों को अपने कोटे से अधिक जुड़ी बहसों तथा विवादों में संयुक्त राष्ट्रसंघ कार्बन ट्रेडिंग जैसे नए व्यापार क्षेत्रों को विकसित करने की कवायद कर रहा है तो इस तरह की वैश्विक व्यवस्थाएं, शिक्षा, चिकित्सा और खाद्य सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण सामाजिक क्षेत्रों में क्यों नहीं हो रही है।
डा. राणा प्रताप सिंह
प्रोफेसर, इन्वायरनमेंटल साइंस
बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर यूनिवर्सिटी, लखनऊ, उत्तरप्रदेश