होली का त्यौहार भारतीय संस्कृति में इसलिए महत्वपूर्ण है कि किसानों की खेत में खड़ी फसल जब पकने पर आती है तो पूरे कृषि मूलक समाज में यह नव ऊर्जा का संवाहन करती है और पृथ्वी की उर्वरा शक्ति का संवेग सम्पूर्ण मानव जाति में भरती है। भारत के अधिसंख्य त्यौहार कृषि क्षेत्र से ही जुड़े हुए हैं जिनका रूपान्तरण समय-समय पर विभिन्न सामाजिक सरोकारों के साथ होता गया। होली भारत में किसी एक जाति, धर्म या क्षेत्र विशेष का पर्व नहीं है. इसकी पहचान देश की संस्कृति के रूप में है. वसंत ऋतु जनजीवन में नयी चेतना का संचार कर रही होती है. फागुन की सुरमई हवाएं वातावरण को मस्त बनाती हैं, तभी होली के रंग लोकजीवन में घुल जाते हैं. इन्हीं दिनों नयी फसल भी तैयार होती है और यह किसानों के लिए उल्लास का समय होता है .
वसंत ऋतु आते ही प्रकृति में एक नवीन परिवर्तन दिखने लगता है। फूलों पर भंवरे मंडराने लगते हैं। वृक्षों पर नए फूल-पत्ते आने शुरू हो जाते हैं। वातावरण में मादकता का अनुभव होने लगता है। ऋतुराज वसंत के आने पर प्रकृति में एक नई रौनक तथा प्राणियों में उत्साह और उमंग की लहर दिखाई देने लगती है। होली के पर्व में वसंतोत्सव की रंगत ही देखने को मिलती है। नर-नारी होली के रंगों में एक-दूसरे को रंगकर एक अद्भुत आनंद का अनुभव करते हैं। आनंद के इस उत्सव को प्राचीनकाल में रति-काम महोत्सव कहा जाता था।
हम मनुष्य कृषि और बागवानी तथा पशुपालन अपनाकर सभ्य और सुसंस्कृत हुए हैं। समझने के लिए कहें तो ‘एग्रीकल्चर’, ‘एनिमल’, ‘हसबैंडरी’ और ‘हर्डीकल्चर’ ने ‘कलचर्ड’ बनाया। विज्ञान ने हमारी मदद की, विशाल प्रकृति को समझने में। इसलिए विगत पांच सौ वर्षों में औद्योगिक क्रांति और योरोपीय पुनर्जागरण के बाद पश्चिम ने अपने असली इतिहास की खोज की। दार्शनिकों, समाज वैज्ञानिकों, कलाकारों ने वैज्ञानिक खोजों पर लिखकर मनुष्यता को आगे बढ़ाने की सीढ़ी दी। भारत में हमें इसी तरह वैज्ञानिक सोच और इतिहास के सच को सामने लाना होगा। तब हमारे त्योहारों, समाज और देश का असली सच सामने आएगा।
भारत की संस्कृति सम्यक कृषि संस्कृति रही है। फाल्गुन मास आते-आते फसलों में दाना आ जाता है। उसे भूनकर खाने को लोकभाषाओं में ‘होरा’, ‘होरहा’ या ‘होला’ कहा जाता है। भूनकर खाने के इस आनंद को प्रतीकात्मक रूप से होरी के रूम में मनाया जाने लगा जिसने कालांतर में ‘होलिकोत्सव’ का रूप ले लिया। होली हो या दीपावली ये दोनो त्योहार कृषि संस्कृति के त्योहार हैं। ये असली अन्नदाता किसान के मन उल्लास के प्रतीक हैं। कुल मिलाकर होली आनन्द और ‘नवात्र’ ‘पक्वात्र’ का त्योहार है।
वर्तमान समय में लकडि़यों तथा उपलों-कंडों आदि का ढेर लगाकर होलिका-पूजन किया जाता है, फिर उसमें आग लगा दी जाती है। श्रद्धालु नई फसल की गेहूं की बालियां तथा गन्ना आदि उस अग्नि में चढ़ाकर, एक तरह से हवन कर लेते हैं। हरे चने को आग में भून लेने पर वह ‘होला’ प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। होलिका जल जाने के उपरांत उसकी विभूति को यज्ञ-भस्म मानकर, उससे तिलक किया जाता है।
मध्य भारत के आदिवासी समुदाय में पाड़वा पुनाल सावरी के नाम से प्रकृति के नवरस होने और कृषि सत्र बदलने के उत्साह में मनाया जाता है। यहां पलाश को फूलों से रंग बना कर होली खेली जाती है। सामूहिक रुप से पारम्परिक गीत और नृत्य का आयोजन होता है। इस दिन से नये वर्ष का आरम्भ माना जाता है। वास्तव यही इस पर्व का मौलिक स्वरुप है, जिसे आदिवासी समुदाय अभी तक संरक्षित- सुरक्षित किये हुए है।
सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है । भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं। सबसे प्रामाणिक मुगल काल की इतिहास की तस्वीरें हैं । अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहाँगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है। शाहजहाँ के समय तक होली खेलने का मुग़लिया अंदाज़ ही बदल गया था। इतिहास में वर्णन है कि शाहजहाँ के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे। मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य में दर्शित कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तृत वर्णन मिलता है।
भारत की संस्कृति सम्यक कृषि संस्कृति रही है। फाल्गुन मास आते-आते फसलों में दाना आ जाता है। उसे भूनकर खाने को लोकभाषाओं में ‘होरा’, ‘होरहा’ या ‘होला’ कहा जाता है। भूनकर खाने के इस आनंद को प्रतीकात्मक रूप से होरी के रूम में मनाया जाने लगा जिसने कालांतर में ‘होलिकोत्सव’ का रूप ले लिया। होली हो या दीपावली ये दोनो त्योहार कृषि संस्कृति के त्योहार हैं। ये असली अन्नदाता किसान के मन उल्लास के प्रतीक हैं। कुल मिलाकर होली आनन्द और ‘नवात्र’ ‘पक्वात्र’ का त्योहार है।