सैम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम ने हाल ही में अपनी नई रिपोर्ट जारी कर दी है. इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में नवजात शिशु मृत्यु दर 28 फीसदी हो गई है, ग्रामीण भारत में यह 31 है और शहरी भारत में 19. इस मामले में सबसे गंभीर स्थिति वाले मध्यप्रदेश ने तीन अंकों का सुधार किया है, पर चिंता की बात यह है कि इस सुधार के बावजूद राज्य इस मामले में देश भर में टॉप पर बना हुआ है. आखिर क्या वजह है कि देश के दिल में बच्चे महफूज नहीं हैं ?
एक हजार जीवित शिशु मां की कोख से पैदा होते हैं उनमें 43 बच्चे असमय दम तोड़ देते हैं और यह स्थिति सालोंसाल से गंभीर रूप से बनी रहती है. वह भी तब जबकि राज्य में शिशु मृत्यु दर कम करने, बच्चों, किशोरियों और महिलाओं को सुपोषित बनाए रखने के लिए तमाम योजनाएं चलाई जा रही हों, आखिर चूक कहां हो रही है? यह राज्य केरल जैसी स्थिति में कब आएगा जहां कि मृत्यु दर छः या गोआ की तरह पांच होगी, या जापान जैसा जहां कि 1000 में केवल दो ही नवजात शिशुओं की की मृत्यु की आशंका होती है.
इस रिपोर्ट में नवजात शिशु मृत्यु के मामले में दूसरे नंबर पर उत्तरप्रदेश और छत्तीसगढ़ हैं जहां कि यह 38 है. उसके बाद 37 मृत्यु के साथ आसाम और ओड़िसा हैं. राजस्थान, हरियाणा, बिहार और झारखंड का नंबर इनके बाद आता है.
यदि राष्ट्रीय परिदृश्य को देखें तो पिछले दशक की शुरुआत में यह आंकड़ा 44 था, दस सालों में 16 अंकों का सुधार क्या ठीक कहा जा सकता है? वैसे तो किसी भी समाज में एक भी बच्चे की मृत्यु स्वीकार नहीं होनी चाहिए क्योंकि हर बच्चे को जीवन का अधिकार है, लेकिन हम जिस विकास के दावे करते हैं, क्या यह संकेतक उनकी खिल्ली नहीं उड़ाते हैं. इसकी एक वजह हमारे स्वास्थ्य ढांचे का लचर होना माना जा सकता है, लेकिन कई और वजहों पर भी गौर करना होगा जिनके बगैर यह स्थिति तेजी से बेहतर नहीं हो सकती है.
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की चौथी और पांचवी रिपोर्ट के बीच चार साल का वक्त गुजरा है. इन पांच सालों में भारत के बच्चों, महिलाओं, किशोर—किशोरियों में एनीमिया यानी खून की कमी का स्तर और गंभीर हो चला है. 2016 में 52.6 प्रतिशत महिलाएं एनिमिक थीं जो 2020 में 53 प्रतिशत हो गईं. भारत की आधे से ज्यादा महिलाओं के शरीर में लौह तत्व की कमी पाई गई है. 59 प्रतिशत किशोरी बालिकाओं में खून की कमी है, जो शादी के बाद जब मां बनती हैं तो कहीं न कहीं इस खून की कमी का असर उनकी गर्भावस्था पर पड़ता है और उसका नतीजा उच्च शिशु और बाल मृत्यु दर के रूप में देखने को मिलता है.
दो सर्वेक्षण की इसी अवधि के बीच यह भी पाया गया कि गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों के आंकड़ों में भी कोई कमी नहीं पाई गई, पहले 7.5 प्रतिशत से बढ़कर 7.7 प्रतिशत हो गया है. इस पूरी समस्या की जड़ कहीं न कहीं भूख और गरीबी से जाकर जुड़ती है, और इस वक्त देश ग्लोबल हंगर इंडेक्स में दुनिया में 94वें शर्मनाक पायदान पर खड़ा है. यह बात ठीक से समझ नहीं आती है कि एक ओर हम दुनिया को खाद्यान्न निर्यात करते हैं वहीं दूसरी ओर हमारे अपने समाज में कैसे भुखमरी है? क्या हम समावेशी विकास की ओर बढ़ रहे हैं या आर्थिक असमानता धीरे—धीरे बढ़ती जा रही हैं?
आक्सफेम की रिपोर्ट बताती है कि देश में 98 लोगों के पास जितनी दौलत है, वह देश के बाकी 555 मिलियन गरीब लोगों के पास है, ऐसे में हमें देश के आंकड़े तो मजबूत दिखाई देते हैं, तरक्की, विकास, जीडीपी, शेयर बाजार सभी जगहों पर हम खुद को मजबूत पाते हैं, लेकिन अंदर ही अंदर हमारे कमजोर होते जाने का सबूत मानवीय विकास के यह संकेतक होते हैं. ऐसे में सबसे जरूरी होता है कि सरकार उन योजनाओं को मजबूती से लागू करे जो ऐसे संकेतकों में सुधार में सकारात्मक भूमिका अदा कर सकती हैं, लेकिन इनके प्रति ऐसा नैरेटिव बना दिया जाता है जिससे लगता है कि यह देश पर एक बोझ हैं और सरकार इन पर जबरन ही खर्च कर रही है.
इस सच्चाई को जमीन पर ही जाकर देखा जा सकता है कि वह कितनी और क्यों जरूरी हैं? यदि दूर ही किया जाना चाहिए तो उन योजनाओं का लीकेज या उनमें व्याप्त भ्रष्टाचार. वादा न तोड़ो अभियान की हालिया जारी रिपोर्ट में यह बताया गया है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली से जर्मनी के बराबर जनसंख्या लगभग 98मिलियन बाहर हो चुकी है, वहीं इस योजना को लागू करने वाले खादय एवं सार्वजनिक वितरण प्रणाली विभाग के बजट में पिछले वित्तीय वर्ष में तकरीबन 28 फीसदी की कमी कर दी गई है. मिड डे मील या अब पीएम पोषण के बजट में भी 11 प्रतिशत की कमी है. नवजात शिशुओं की मौत का मसला केवल हेल्थकेयर की विफलताओं से नहीं जुड़ा है.
यह सच है कि किसी भी देश का स्वास्थ्य ढांचा इतना मजबूत होना चाहिए जो ऐसी परिस्थितियों में खुद को बेहतर साबित करके संकेतकों को ठीक कर सके, लेकिन केवल इससे ही बात नहीं बनने वाली है. जब तक नवजात शिशुओं की मौत के अंदरूनी कारणों की पड़ताल कर, उन्हें खोजकर दुरुस्त नहीं किया जाता, तब तक यह स्थिति तेजी से ठीक नहीं होने वाली है. इसके लिए एक समग्र दृष्टिकोण को अपनाया जाना बेहद जरूरी है.