ललित मौर्या
दुनिया में एक तिहाई से भी ज्यादा लोग ऐसे हैं जो अपने परिवार के लिए सेहतमंद थाली का खर्च नहीं उठा सकते। मतलब की यह वो लोग हैं जो यदि अपने पेट भरने का इंतजाम कर भी लें तो उनके भोजन में उतना पोषण नहीं होगा जो उन्हें और उनके परिवार को स्वस्थ रखने के लिए जरूरी है।
देखा जाए तो कहीं न कहीं तेजी से बढ़ती महंगाई पोषण से भरपूर आहार को लोगों की पहुंच से दूर कर रही है। यह बात भारत पर भी लागू होती है। इस बारे में संयुक्त राष्ट्र ने अपनी नई रिपोर्ट “द स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रिशन इन द वर्ल्ड 2024” में जानकारी दी है कि दुनिया में 35.4 फीसदी आबादी यानी 282.6 करोड़ लोग पोषण युक्त आहार का बोझ उठा पाने में असमर्थ हैं।
वहीं 2019 से जुड़े आंकड़ों पर गौर करें तो उस साल यह आंकड़ा करीब 282.3 करोड़ दर्ज किया गया था। मतलब दुनिया में 36.4 फीसदी लोग इस खर्च के बोझ तले दबे थे। वहीं कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जहां कोरोना महामारी से हुए नुकसान से अभी पूरी तरह उबरना बाकी है।
यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ), अन्तरराष्ट्रीय कृषि विकास कोष (आईएफएडी), यूनिसेफ, विश्व खाद्य कार्यक्रम (डब्ल्यूएफपी) और विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने संयुक्त रूप से प्रकाशित की है। रिपोर्ट के मुताबिक जहां 2022 में खाद्य कीमतों में इजाफा देखा गया, जिसने स्वस्थ आहार की कीमतों को बढ़ा दिया। लेकिन आर्थिक सुधारों और बढ़ती आय से यह कीमतें संतुलन में रही। हालांकि यह सुधार सभी क्षेत्रों के लिए एक जैसा नहीं रहा।
इस बारे में एफएओ के मुख्य अर्थशास्त्री मैक्सिमो टोरेरो ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि, “2022 के दौरान समृद्ध देशों में उन लोगों की आबादी घट गई जो महामारी से पहले स्वस्थ आहार का खर्च उठा पाने में असमर्थ थे। हालांकि दूसरी तरफ कमजोर देशों में 2017 के बाद से स्वस्थ आहार का खर्च न उठा पाने को मजबूर आबादी उच्चतम स्तर पर पहुंच गई।“
आम लोगों पर पड़ती महंगाई की मार
रिपोर्ट में जो आंकड़े साझा किए गए हैं, उनके मुताबिक अफ्रीका में जहां 64.8 फीसदी लोग स्वस्थ आहार का खर्च वहन करने में असमर्थ थे, वहीं एशिया में यह आंकड़ा 35.1 फीसदी दर्ज किया गया। इसी तरह दक्षिण अमेरिका और कैरिबियन क्षेत्र में 27.7 फीसदी, ओशिनिया में 20.1 फीसदी, जबकि उत्तरी अमेरिका और यूरोप में 4.8 फीसदी लोग पोषण युक्त आहार का खर्च उठा पाने के काबिल नहीं थे।
निम्न और निम्न-मध्यम आय वाले देशों को देखें तो वहां 2019 से 2022 के बीच स्वस्थ आहार का खर्च उठा पाने को मजबूर लोगों की संख्या बढ़ी है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जहां समृद्ध देश महामारी से बेहतर तरीके से उबर पाए और उन्होंने आपूर्ति-श्रृंखला से जुड़ी समस्याओं और बढ़ती खाद्य कीमतों को अधिक प्रभावी ढंग से संभाला। नतीजन यह खाद्य कीमतों पर बढ़ती कीमतों के दबाव से निपटने में बेहतर स्थिति में थे।
रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि जहां निम्न-मध्यम आय वाले देशों में 167.7 करोड़ और निम्न-आय वाले देशों में 50.3 करोड़ लोग स्वस्थ आहार का खर्च उठा पाने में असमर्थ थे। कुल मिलकर देखें तो यह उन लोगों का 77 फीसदी हिस्सा है जो स्वस्थ आहार का खर्च वहन नहीं कर सकते।
मुख्य बात यह है कि कीमतों में काफी इजाफा देखा गया, यदि क्रय शक्ति समता (पीपीपी) के लिहाज से देखें तो यह 2020 में छह फीसदी से बढ़कर 2021 में 11 फीसदी पर पहुंच गई। हालांकि उच्च आय वाले देशों में इसका प्रभाव कम गंभीर रहा, जहां आय में तेजी से वृद्धि हुई और लोगों ने अपने बजट का छोटा सा हिस्सा अपने आहार पर खर्च किया।
ऐसे में रिपोर्ट का कहना है कि स्वस्थ आहार तक पहुंच में असमान प्रगति के कारण 2030 तक भूखमरी को समाप्त करना और कठिन हो गया है। रिपोर्ट में भारत को लेकर जो आंकड़े साझा किए गए हैं उनसे पता चला है कि देश की कुल आबादी का आधे से अधिक हिस्सा (55.6 फीसदी) स्वस्थ आहार का खर्च उठा पाने में असमर्थ है।
हालांकि 2017 में यह आंकड़ा 69.5 फीसदी दर्ज किया गया था। रिपोर्ट के अनुसार भारत की स्थिति दक्षिण एशिया के औसत से कहीं ज्यादा खराब रही, जहां पोषण युक्त आहार 53.1 फीसदी लोगों की पहुंच से बाहर था। वहीं पाकिस्तान में यह आंकड़ा 58.7 फीसदी रिकॉर्ड किया गया था।
ऐसे में टोरेरो के मुताबिक हमें अपनी खाद्य प्रणालियों में तेजी से बदलाव करने की जरूरत है, ताकि उन्हें मजबूत बनाया जा सके और असमानताओं को दूर किया जा सके। इससे हर कोई स्वस्थ आहार खरीद सकेगा। उनके अनुसार हमें यह भी सुनिश्चित करने की जरूरत है कि लोग वास्तव में स्वस्थ आहार खा सकें।
(‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )