पुस्तक समीक्षा 
पुस्तक का नाम: ” मेरे भीतर और बाहर एक पृथ्वी “( कविता संग्रह)
लेखक: राणा प्रताप सिंह
प्रकाशन: अमन प्रकाशन, कानपुर
संस्करण: प्रथम(2021)
समीक्षक: अली इमाम ख़ाँ

-: अपने भीतर और बाहर की पृथ्वी को बचाने का संकल्प और आह्वान:-

राणा प्रताप सिंह के तीसरे कविता संग्रह,’ मेरे भीतर और बाहर एक पृथ्वी’, को प्रकृति और मनुष्य के बीच के सम्बन्ध, द्वंद और सह – अस्तित्व की पेचीदगियों को समझने तथा सुलझाने की एक इमानदार कोशिश के तौर पर देखा जा सकता है. संग्रह की कविताओं में संवाद है नदी से, बतकही है धूप से और है भूख का सामाजिक सरोकार, साथ ही एक साक्षात्कार है अपने समय से जो व्यवस्था पर ढेर सारे सवाल खड़ा करता है, जवाब की तलाश में.

यहाँ कुछ कविताओं का संदर्भ ज़रूरी जान पड़ता है. कवितायें – नदी से एक बातचीत, थोड़ा- थोड़ा सब कुछ, धूप की हरी कतरन, अपने लिए थोड़ी सी जगह, के कुछ अंश उद्धृत किये जाते हैं.

” थोड़ी खट्टी मीठी यादें
थोड़ी भूली बिसरी यादें
थोड़ी उलझनें
चाय में नमक की तरह
थोड़ी देर अपने भीतर
गहरे उतर जाना
टटोलना चुपचाप
रिशतों की उमड़ खाबड़ सतह को “
( थोड़ा थोड़ा सब कुछ), पृष्ठ-62

यह एहसास है ज़िन्दगी का, चाहत खुलकर जीने की, सहेजना उसे जो अच्छा और सुन्दर है. यह संवाद है ज़िन्दगी से.

” नदी ने कहा
मुझे नहीं पता
सरकारों से पुछो
बांधों
शहरों
कारखानों
और कचरों पर
सरकारों का नियंत्रण है ”
(नदी से एक बातचीत) ,पृष्ठ-74

यह सीधा प्रशन है व्यवस्था से, सत्ता और उसके ज़िम्मेदार लोगों से कि पृथ्वी की संपदा किसकी और इसका मालिक कौन?

” आकाश
जल
जीवन
वायु
अग्नि
पर्वत और
समुद्र को
जोड़े रहती पृथ्वी
कुबेर की तरह |”
(धुप की हरी कतरन), पृष्ठ-93

यह हमारे भीतर की पृथ्वी है जो संभालती है हमारे बाहर की पृथ्वी को अगले समय की ख़ातिर, भावी पीढ़ियों के लिए.

” थोड़ी देर आँखें बंद कर देख सकूँ
अपने आप को भीतर तक
बदलते हुए मौसम के साथ
……….. “
(अपने लिए थोड़ी सी जगह), पृष्ठ-123

यह साक्षात्कार है स्वयं के साथ स्वयं का अपने भीतर की पृथ्वी की तलाश में.
संग्रह की कविताओं में मानवीय गरिमा, सम्बन्धों की उष्मा और निश्चिन्तता, तथा सामाजिक मुल्यों की गुंज एवं अनुगुंज दूर तक हमारा पीछा करती है, हमें स्पन्दित और आन्दोलित करती हैं. यहाँ कवितायें- दादी, माएँ, पिता, सम्बन्ध, प्रेम, और बंधन संदर्भित की जा सकती हैं.

” दादी की इच्छाएँ
दिखती नहीं थी कभी भी किसी को|
……………………………………..
दादी की आँखों में
रोज एक सरज उगता था
और रोज ढलती थी एक साँझ
……………………………….
समेट कर ले गयी वह
एक समूचा युग
अपने साथ
जिसमें लोग जीते थे
अपने भी
और दूसरों के लिए भी
साथ साथ |”
( दादी), पृष्ठ-109, 110,111
एक युग बोध जो अब स्मृति में शेष है, लौटता है मन बार-बार उस ओर अपनी तलाश और समय के सच की खोज में.
” माएँ लड़ती हैं
विचारों से
परंपराओं से
बुजुर्गों के ताने से
और हर रोक टोक से
बेटियों की पढ़ाई के लिए
……………………………
माएँ जब बुढ़ी और आसक्त हो जातीं
तो देखती हैं अलग अलग बेटे बहुओं का
अलग अलग तरह से बदलते जाना
माएँ अलग अलग तरह से जीती हैं जीवन
अलग अलग बच्चों के साथ |”
(माएँ), पृष्ठ- 114,117
बदलते समय में माँ की बदलते संघर्ष और जिजीविषा की मार्मिक एवं प्रभावी तस्वीर ,जो हमें सोचने के लिए विवश करती है कि संतति की रक्षा कैसे हो?
” बेल के फल की तरह होता है पिता
भीतर से मुलायम
उपर से कठोर
और बहुत से रोगों की दवाई”
( पिता), पृष्ठ- 120
” इच्छाओं की तरह ही
प्रेम में कोई बंधन नहीं होता|”
(प्रेम), पृष्ठ- 122
” किसी न किसी तरह
किसी न किसी उद्देश्य से
बंधे हैं सब एक दूसरे से
बंधन ही जीवन है और मुक्ति मृत्यु “
(बंधन), पृष्ठ- 72
” सम्बन्ध में होती हैं उम्मीदें
परम्पराएँ हेतु संवेदनाएँ और संस्कृतियाँ |”
( सम्बन्ध), पृष्ठ-144

कविताओं के ये अंश व्याख्या हैं, जीवन की, सृजन की प्रक्रिया और प्रेम के प्रस्फुटन और और उसके जोड़ने की शक्ति की. यह जीवन की संश्लिष्ट जैविक प्रक्रिया है जो लगातार गतिमान है.
हर व्यक्ति के बाहर एक पृथ्वी है, जो विराट, जीवनदायिनी, और पोषक है. इसकी हिफ़ाज़त ज़रूरी है और ज़रूरी है इसका पोषण. एक और पृथ्वी है, जो हमारे भीतर सिमटी हुई है लेकिन है असीम, बहुआयामी और व्यापक. हमारे बाहर की जो पृथ्वी है, वह हमारे इर्दगिर्द फैले हुए स्थुल पिंड का आवर्तन भी है और परावर्तन भी हमारी भीतर की पृथ्वी पर जिसमें विखण्डन और निर्माण की पुरी संभावनाएँ पेवस्त हैं. इन वैज्ञानिक तथ्यों की साहित्यिक अभिव्यक्ति हैं कविताएँ- मेरे भीतर और बाहर एक पृथ्वी, खोया हुआ गाँव, राष्ट्र, उस दिन बदलेगा मौसम.

” बारिश की गिली हवा
ढूँढती रहती है सतरंगी चिड़ियों के पंख
और फूलों के गंध और रंग मेरे साथ साथ
भीतर की पृथ्वी से बाहर की पृथ्वी तक|
……………
जुड़ने और टूटने से ही
बनती है
पृथ्वी
प्रकृति
नयी दुनिया
नये आसमान के साथ
कि जब जन्म होता है नया मनुष्य
तो पैदा होती है
नयी सम्भावनाएँ
नये प्रश्नों
नये उत्तरों
और नई चुनौतियों
के साथ |
………….
एक दिन
मेरे भीतर से निकलकर
मेरी पृथ्वी विलीन हो जाएगी
बाहर की विशाल पृथ्वी में मेरे साथ साथ |
हम दोनों
मिट्टी में प्रवेश कर
विखण्डित करेंगे अपने तत्व
ठीक उसी जगह उगेगा एक पेड़
घर बनाएगी रंग बिरंगी चिड़िया
खिलेंगे फूल गंध और सौंदर्य की सौगात लेकर
हमारे न होने के बावजूद |
(हमारे भीतर और बाहर एक पृथ्वी), पृष्ठ- 30,32,33,33
” बैठा हूँ चौराहे पर
कोई तो मिलेगा
जिसे पता होगा रास्ता मेरे गाँव का
जो खो गया है अनेक नई सड़कों
और चौराहों के बीच “
( खोया हुआ गाँव ), पृष्ठ- 86
” सभी के सपने
एक जैसे होने लगते
सभी प्रतीकों से
गुंफित होने लगती
एक सी ध्वनियाँ
तब बनता है राष्ट्र |
………………….
जब लोगों से बंधते हैं रिश्ते
और रिश्तों से बंधे हैतेरी हैं लोग
जाति, धर्म और वर्ग की
सभी सीमाओं के पार
तब बनता है राष्ट्र |”
(राष्ट्र), पृष्ठ- 70-71
” जब लोगों को भविष्य की चिंता सतायेगी
उस दिन मौसम बदलेगा
हमारे आस पास |”
( उस दिन बदलेगा मौसम), पृष्ठ- 103

यहाँ अपने भीतर और बाहर की पृथ्वी के सुक्ष्म और स्थुल दोनों रुप के बनने, बिगड़ने और एकाकार होकर नया सृजन करने की अपार संभावनाओं की वैज्ञानिक सोच और समझ का अनुठा दर्शन हमें देखने को मिलता है. विखण्डन और निर्माण अर्थात कंस्ट्रक्ट और डि कंस्ट्रक्ट की प्रक्रिया प्रकृति और हमारे जीवन में लगतार चलती रहती है और इसी प्रकार जीवन पनपता और पलता है. उर्दू के मशहूर शायर ‘चिकबस्त’ का एक शे’र है-
” ज़िन्दगी क्या है अनासिर में ज़हुर- ए- तरतीब
मौत क्या है इन्हीं अज्ज़ा का परेशान होना “
सृष्टि में जीवन एवं मृत्यु का यह वैज्ञानिक सिद्धांत है जो साहित्य के माध्यम से प्रकट हुआ है. यह इको- लिट्रेचर यानी पर्यावरण साहित्य/ माहौलयाती अदब के दायरे में आता है. प्रस्तुत संग्रह को इस दायरे में रखना निहायत मौज़ूं हो सकता है.
संग्रह की कवितायें- सुख, आपदा, कुछ कठिन प्रश्न, विकास, भूख, मेरे समय की उलझन, धमक, दंगे, निर्भया, बाज़ार, दंगे,सड़क पर पैदल चलते लोग, और प्रवासी मज़दूर अपने समय से साक्षात्कार भी करती हैं और उससे मुठभेड़ भी. व्यवस्था पर सवाल खड़ा करती हैं और सत्ता तथा सत्ताधारियों को कठघरे में खड़ा करती हैं. इतना ही नहीं, भविष्य की चिंता और पृथ्वी की सुरक्षा को जन विमर्श के केन्द्र में स्थापित करते हुए आज के संकट के समाधान के लिए वैज्ञानिक चेतनता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और वैज्ञानिक पद्धति को अवश्यंभावी मानती हैं. वैज्ञानिक चेतनता और मानवीय संवेदना हमारे जीवन मुल्य हैं जो जीवनसंघर्ष में सही राह और दिशा पर लगातार हमें अग्रसर करते रहते हैं.

” सुख गौरैया के पंखों पर पड़ी
बूँद की तरह चमका है अभी अभी
जाने कब
गली का कोई लड़का
फेंक दे एक पत्थर अपनी गुलेल से |”
( सुख), पृष्ठ- 17
” सूरज की रौशनी में
फूलों में उतर आते
होली के रंग |”
……………..
इन्हीं रंगों से रौशन हैं
पृथ्वी की दिशाएं
और संस्कृतियों की
सतरंगी संभानाएँ |”
( होली के रंग), पृष्ठ- 19-20
” चकित है विज्ञान
और उलझ गए हैं
अर्थशास्त्रियों के
तमाम सिद्धांत
…………………
कलेंडर के पन्नों पर टंगा समय
घूर रहा है लोगों की आँखों में आँखे डाल
घड़ी की सुई की नोक पर
चिपके समय की टिक टिक
पैदा कर रही है डर
……………………
कि हमारी हर इच्छा से बड़ी है पृथ्वी की स्वायत्तता
और पृथ्वी से भी बड़ा है हमारा और आपका सपना |”
( आपदा), पृष्ठ- 21,27,28
” समेटे रहते
कठिन प्रश्नों के उत्तर
भविष्य की अनेक संभावनाएँ
…………………………… ….
कई बार प्रश्न घर बना कर रहते हैं
मन के समीकरणों में
संवेदना तंत्र के जैविक रसायनों के
संजाल की तरह
……………………………………
घरों की हवा ठंडी की जाती है
तो सड़क का क्यों बढ़ जाता है तापमान?
………………………………..
गर्मी में सुखे हुए नदी नाले
बरसात में क्यों ले आते बाढ़?
(कुछ कठिन प्रश्न), पृष्ठ- 52,53
” एक अफसर
बढ़ाता है फ़ाइल सरकार में दस्तखत के लिए
और शुरू हो जाता है पेसों का बहाव
एक ओर से दूसरी ओर
तब होता है विकास |
……………………..
जब पृथ्वी घूम जाती है
अपनी धुरी पर
दिन को रात
और रात को दिन करते हुए
क्षितिज पर उग आता है
लाल नारंगी गोला
और खुल जाती
सिकुड़ी हुई भुजाएँ
असंख्य लोगों की एक साथ
तब होता है विकास |”
( विकास), पृष्ठ- 56-57

ये चंद कवितायें प्रकृति एवं सृष्टि के रहस्य खोलती हैं ताकि जड़ता टूट सके, विकास के माॅडल को जन हित और जन कल्याण की कसौटी पर परखती हैं, आपदा की वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत करती हैं और सवाल उठाने के लिए प्रेरित करती हैं, कठिन पर ज़रूरी सवाल.इस प्रकार संग्रह की कवितायें सत्ता द्धारा प्रस्तुत आख्यान के विपरीत एक वैकल्पिक जन पक्षीय आख्यान गढ़ती हैं कि एक बेहतर दुनिया और व्यवस्था संभव है और इसे हासिल करना लोगों का अधिकार है.
विज्ञान, साहित्य, कला और संस्कृति का आपसी मेलजोल तथा आदान प्रदान, कल्पना, चेतना, संवेदना, और सृजन की अपार संभावनाओं को अपने में समेटे हुए है. इनका खुलना, विमुक्त होना हमें गति, दिशा, अन्वेषण, संघर्ष और परिवर्तन के लिए प्रेरित करता है. इनके दृष्टांत के तौर पर संग्रह की कवितायें- पृथ्वी: एक कथा, कुम्भ, कोई और नहीं मन जैसा, स्मृति शेष, अपने लिए थोड़ी सी जगह , एक ख़ास अंदाज़ की हैं.
ये कवितायें सृष्टि, जीवन, और जीवों को सम्बोधित हैं तथा इनके भौतिक गुण एवं इनके जैविक समीकरण की जाँच पड़ताल करती नज़र आती हैं. यह इन्हें स्थान- काल की संतति में जानने, समझने और महसूस करने का उपक्रम उत्पन्न करती हैं.
विज्ञान और प्रकृति के गुढ़ सवालों को सहज, सरल और रोचक भाषा में प्रस्तुत किया गया है जिससे भाषा की तरलता और उसका प्रवाह अंत तक बने रहते हैं. यह संग्रह विज्ञान और सृजन की सिंथीसिस है और इसलिए पठनीय है.

समीक्षक : डॉ अली इमाम खां प्रमुख साहित्यकार एवं शिक्षाविद् हैं तथा साइंस फार सोसायटी झारखंड के अध्यक्ष हैं।

लेखक :  डा राणा प्रताप सिंह बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय , लखनऊ में पर्यावरण विज्ञान के प्रोफेसर एवं अकादेमिक विषयों के संकायाध्यक्ष हैं एवम बहुभाषाई जन विज्ञान पत्रिका कहार के अवैतनिक मुख्य संपादक हैं।

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