विकास कुमार

दोपहर 11 बज रहे थे . रविवार का दिन . अक्टूबर का आखरी दिन और गर्मी. रायपुर के इस तरह के मौसम से वाकिफ नहीं था . करीब 6 साल बाद एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में भागीदारी के सिलसिले में रायपुर आया था. इन छह सालों में इस शहर के विकास को देखकर अचंभित था. दिन हो या देर रात , बाजारों में चहलपहल थी . नए निर्मित शॉपिंग काम्प्लेक्स हो या सांस्कृतिक केंद्र , मेट्रो शहरो में पाए जाने वाली सुविधाएं छतीसगढ़ की राजधानी की बढती आर्थिक समृद्धि का बयान करता हैं. 21वीं सदी में छत्तीसगढ़ में शहर की आधुनिकता का प्रत्यक्षदर्शी होने के बाद छतीसगढ़ के इतिहास और विरासत को भी जानने की उत्सुकता हुई . संगोष्ठी में बने नए दोस्तों के साथ महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय की ओर रुख किया. मेरे साथ दिल्ली से आए युवा शोधार्थी धीरज , गुलशन , झारखंड के युवा शोध छात्र राकेश और वरिष्ट समाजसेवी जेरोम कुजूर थे .

संग्रहालय का इतिहास

टिकट काउंटर में मिली पुस्तिका इस संग्रहालय के इतिहास के बारे में बताती है की ऐतिहासिक एवं पुरातत्वीय स्मारकों के संरक्षण के प्रति जागरूकता का परिचय देते हुए वर्ष 1875 में राजनांदगाँव रियासत के राजा महंत घासीदास ने इसकी स्थापना की थी . तदन्तर कलावस्तुओं की लगातार बढती संख्या और स्थानाभाव के कारण वर्ष 1953 में नवीन संग्रहालय भवन का निर्माण किया गया जहाँ आज यह रायपुर संग्रहालय संचालित हैं . उस वक़्त रानी ज्योति ने एक लाख रुपए अनुदान देकर इसके पुर्ननिर्माण में अपना योगदान दिया. सन 1953 को इस संग्रहालय भवन का लोकार्पण गणतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा किया गया. संग्रहालय की ऐतिहासिक इमारत को ब्रिटिश स्थापत्य शैली में स्थापित किया गया है । इमारत का गुंबद ब्रिटिश ताज जैसा दिखता है। लगभग 2 हेक्टेयर भूमि पर स्थित संग्रहालय में 2 मंजिलें और 5 गैलरी हैं। संग्रहालय में एक पुस्तकालय भी बनाया गया है। यह भारत के 10 सबसे पुराने संग्रहालयों में से एक है.

विभिन्न कालखंड को दर्शाती बहुमूल्य प्रतिमाएं

निचले तले में स्थित मूर्ति दीर्घा में प्रवेश करते हैं. मूर्ति दीर्घा में छत्तीसगढ़ के विभिन्न क्षेत्रों से प्राप्त भिन्न भिन्न कालों की पत्थर, मिट्टी और धातु निर्मित प्रतिमाओं को देख सकते हैं . इसमें विशेष रूप से छत्तीसगढ़ के सिरपुर, मल्हार, रतनपुर, आरंग, सिसदेवरी, डीपाडीह, भोरमदेव तथा मध्यप्रदेश के कारीतलाई से प्राप्त प्रतिमाएं रखी गई हैं। 6वीं सदी ईस्वी से लेकर औपनिवेशक काल तक की मूर्तिकला की प्रदर्शनी लगी हुई हैं .

रतनपुर से प्राप्त विष्णु की प्रतिमा , घटियारी से प्राप्त शिव के विविध रूप की प्रतिमायें या 7वीं शदाब्दी की धमतरी का दुर्लभ शिव मंदिर का द्वार, यह सारे दुर्लभ प्रतिमायें विस्मित करती हैं . 5वीं शताब्दी की रूद्र शिव की मूर्ति, संग्रहालय के सबसे आकर्षक प्रतिमाओं में से एक है . इसे बिलासपुर के देवरानी मंदिर , तालाब से 1987-88 में खुदाई से प्राप्त हुआ . पार्वती के भी विभिन्न रूप इस दीर्घा में देखे जा सकते हैं . साथ में जैन धर्म के विभिन्न तीर्थंकर के प्रतिमायें भी मौजूद हैं .

मूर्ति प्रतिमायें देखने पर ज्ञात होता है की छतीसगढ़ के वर्तमान भोगौलिक क्षेत्र में विभिन्न धर्मो ने अपनी पैर जमाई थी . हिन्दू , बौध और जैन धर्मो का इसमें वास रहा . इसमें महानदी के तट पर स्थित छत्तीसगढ़ के सिरपुर का जिक्र करना ज़रूरी है जहाँ पिछले कुछ दशकों में हुई खुदाई से अनेक बहुमूल्य मूर्तियां मिली हैं जिसे इस संग्रहालय में रखा गया गया है . सिरपुर 5वीं और 12वीं शताब्दी ईस्वी के बीच दक्षिण कोसल साम्राज्य की एक महत्वपूर्ण हिंदू, बौद्ध और जैन बस्ती थी। हाल की खुदाई में 12 बौद्ध विहार, 1 जैन विहार, मठ का पता चला है. मूर्ती दीर्घा के पास ही गैलरी में छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों की फोटो प्रदर्शनी भी लगी हैं.

कलावास्तुयें बताती हैं प्राचीन युग का सांस्कृतिक इतिहास

छत्तीसगढ़ के विभिन्न एतिहासिक , पुरातात्विक स्थलों के उत्खनन से प्राप्त कलात्मक पुरावास्तुयों को प्रदर्शित किया गया है जो अपने युग का सांस्कृतिक इतिहास के बारे में बताती है . विभिन्न काल के मानव समुदाय द्वारा दैनिक उपयोग के वस्तुओं की प्रदर्शनी भी की गई हैं.

पुराने मिट्टी के बर्तन

संग्रहालय में मिटटी से बनी प्राचीन वस्तुओं का भी संग्रह है . एक विशाल मिटटी का कोठी अलग से प्रदर्शित हैं . ११वि शदाब्दी को इस प्राचीन वस्तु को सिरपुर उत्खनन से प्राप्त हुआ था. इसके अलावा सिरपुर उत्खनन से प्राप्त मिट्टी के दीये , खिलौने , मृदुभांड आदि भी देखे जा सकते है .

दुर्लभ ताम्र पत्र भी मौजूद

ऐतिहासिक काल में लेखनकला के विकास को रेखांकित करते पत्थर के चिकनी सतह और तांबे के पतले चद्दर पर प्राचीन लिपि में लिखे लिखावटों को यहाँ देखा जा सकता है । प्राकृत और ब्राह्मी लिपि और अधिकांश की भाषा संस्कृत हैं . यह अपने युग के दस्तावेजी प्रमाण हैं जो तत्कालीन घटनाओं , आयोजनों, निर्माण सम्बन्धी जानकारी के साथ प्राचीन समाज , परंपरा , धार्मिक परिदृश्य , शिक्षा और साहित्य , राजव्यवस्था और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में हो रहे सामयिक प्रगति पर भी प्रकाश डालते हैं . ये लिपियां सोमवंशी (पाण्डुवंशी), कलचुरी, फणीनागवंशी आदि शासकों की हैं. संग्रहालय में प्रथम सदी ईस्वी से लेकर 15वीं सदी ईस्वी तक के लेखन कला के प्रमाण हैं।

2वीं शदाब्दी की किरारी का काष्ट स्तंभ काफी ख़ास हैं क्यूंकि यह काष्ठ स्तंभ लेख समूचे भारत में एक मात्र दुर्लभ अवशेष हैं . इस लेख में उस शासनकाल के अनेक शासकीय अधिकारियों का प्रमाण मिलता हैं .

प्राचीन अस्त्र शस्त्र की भी प्रदर्शनी

संग्रहालय की दुसरी मंजिल पर दीर्घा में छत्तीसगढ़ के विभिन्न क्षेत्रों से लाकर संग्रहित विविध प्रकार के युद्धक हथियार जैसे- धनुष, बाण, फरसा, तलवार, ढाल और बंदूक देख सकते हैं. देशी रजवाड़े के अस्त्र शस्त्र के अलावा छत्तीसगढ़ के विभिन्न आदिवासी समुदायों द्वारा उपयोग किए गए पारंपरिक अस्त्र जैसे धनुष बाण भी प्रदर्शित है . यह लगभग 150 से 200 साल पुराने हैं .

जनजातीय दीर्घा में दिखती है छत्तीसगढ़ की अनूठी संस्कृति

छत्तीसगढ़ आदिवासी बहुल राज्य है जहाँ अनेक आदिवासी समुदाय वास करते हैं . इसमें गोंड , विमारिया , कोरकू, उरांव , बैगा , कँवर, बिंझवार, भैना, भतरा, मुंडा, कमार, हल्बा, भरिया, नगेशिया, मंझवार, खैरवार और धनवार जनजाति प्रमुख हैं. इन विभिन्न समुदायों की अलग अलग सांस्कृतिक पहचान है . संग्रहालय के दूसरी मंजिल पर विभिन्न आदिवासी समुदायों की जीवनशैली, वस्त्राभूषण, पात्र और वाद्ययंत्रों के अलावा उनके दैनिक उपयोग की अन्य वस्तुओं की प्रदर्शनी हैं . इसके अलावा आदिवासी समाज के परिवेश , दिनचर्या तथा आवास व क्रियाकलापों की रचना का भव्य रूप भी देखने को मिलता है .

आदिवासी समाज के वाद्ययंत्र , नृत्य-परिधान , पारंपरिक आभूषण – ककनी , हसुली , बिछिया , सूता आदि देख सकते है . इसके अलावा वृक्ष के पत्तों से निर्मित रेनकोट , सुराही , तुला , घास / बीज का माला , पत्तों की टोकरी इत्यादि भी प्रदर्शित हैं .

इसके अलावा इस दीर्घा में सिरपुर के धातु शिल्पियों को भी देखा जा सकता है । ये धातु प्रतिमायें 7वीं से 11वीं सदी ईस्वी के मध्य के दक्षिण कोसल के धातुशिल्प का अच्छा उदाहरण हैं। इनका निर्माण धातु को पिघलाकर और सांचे में ढालकर किया गया था.

प्राकृतिक इतिहास ( वन्यजीव दीर्घा ) और लाइब्रेरी भी मौजूद

प्रथम तले पर स्थित दीर्घे में विभिन्न जन्तुओं और पक्षियों के मॉडल की प्रदर्शनी लगी हुई हैं . इसमें 100 से अधिक प्रजातियों का संग्रह हैं. कौवा , तोता, उल्लू , कबूतर, गिद्ध, मोर और तेंदुआ, चीता, भालू, सियार प्रदर्शित हैं. इसके अलावा संग्रहालय के भीतर ही राजनांद रियासत के महंत सर्वेश्वर दस की स्मृति में एक सार्वजनिक पुस्तकालय भी स्थापित किया गया हैं जिसमें विज्ञान, कला , साहित्य , धर्म, दर्शन , इतिहास , पुरातत्व से जुडी किताबों का विशाल संग्रह है.

कीमती धरोहरों को बचाने की ख़ास ज़रुरत

आज धार्मिक ध्रुवीकरण के दौर में अपनी सांकृतिक धरोहर की ज़रुरत पहले से ज्यादा ज़रूरी लगती है. भारत में कई प्राकृतिक, सांस्कृतिक धरोहर सरकारी उपेक्षा का शिकार हो रही है. प्राचीन धरोहर के रखरखाव के आभाव में कई ऐतिहासिक इमारतें जर्जर हालत में देखी जा सकती हैं . नवम्बर 19 – 26 जब देशभर में राष्ट्रीय धरोहर सप्ताह मनाया जा रहा है , ऐसे में सरकार की जवाबदेही और आम लोगों के बीच जागरूकता हो कि राष्ट्रीय धरोहरों को बचाना हम सब की सामूहिक जिम्मेदारी है। क्यूंकि यह सभी भारतवासियों की साझी विरासत है

विकास कुमार स्वतंत्र पत्रकार और रिसर्चर है. वे वैज्ञानिक चेतना के साथ भी जुड़े हैं

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