विकास कुमार

सन 1948. फिलिस्तीन के एक गांव में एक लड़की है जिसका नाम है फराह । उसे पढ़ने का काफी शौक था । गांव में धार्मिक शिक्षा ग्रहण कर रही फराह शहर जाकर स्कूल में पढ़ना चाहती थी क्योंकि उसके गांव में लड़कियों के लिए कोई अलग स्कूल नहीं था । उसका ख़्वाब था की वह बड़ी होकर टीचर बने और लडकियों के लिए स्कूल खोले । उसके पिता जो मेयर के पद पर थे, शुरू में इंकार करते हैं पर बाद में उसकी बात मानकर उसे शहर के स्कूल में दाखिला कराने के लिए फॉर्म घर ले आते हैं । फराह के पंख शहर की ओर उड़ान भरने के लिए तैयार थे, लेकिन इसी बीच एक खूनी संघर्ष की शुरुआत होती हैं, जब इजरायली फोर्स उसके गांव पर हमला कर देती है । फराह के जीवन का रुख किस ओर मुड़ेगा ? क्या वह अपने सपने को पूरा कर पाएगी ? 1948 के नकबा की सच्ची घटनाक्रम के इर्द गिर्द घूमती यह फिल्म इजरायल में काफी विवादों में फंसी है और इसके प्रदर्शन पर रोक लगी है । हाल में ही इसे नेटफ्लिक्स पर रिलीज किया गया ।

“मुझे इतिहास, विज्ञान और भूगौल पढ़ना है “

फिलिस्तीन के एक गांव में 14 वर्षीय फराह ( अरबी में खुशी ) के धार्मिक शिक्षक जब उसके पिता को कहते हैं की “फराह ने कुरान की शिक्षा ग्रहण कर ली है, उसे आगे कौन सी शिक्षा की जरूरत है “। यह सुनकर फराह गुस्से से तिलमिलाते हुए उनके पास जाकर कहती है की उसे इतिहास, विज्ञान और भूगोल जैसे विषयों की पढ़ाई करनी है. फराह के यह शब्द उसके बागी तेवर को बयां करते हैं । फराह के सपने बड़े हैं. फराह की सबसे करीबी दोस्त फ़रीदा जो शहर में रहती है, उससे मिलने आती हैं। ग्रामीण परिवेश फ़रीदा को पसंद है, लेकिन फराह अपने दोस्त से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखती। ग्रामीण परिवेश में बुनियादी शिक्षा का अभाव उसे परेशान करता हैं. लेकिन मेयर पद पर बैठे उसके पिता उसे शहर भेजने से कतराते हैं । उनके क्षेत्र में तेजी से बदलती राजनीतिक घटनाक्रम में उसे बेटी की सुरक्षा ज्यादा प्यारी है, उन्हें लगता है गाँव में बेटी ज्यादा महफूज है । वह उसकी शादी भी जल्द कराना चाहते हैं । लेकिन फराह की ज़िद के आगे उन्हें झुकना पड़ता है और वे उसे शहर भेजने को तैयार होते हैं ।

पेड़ पर झूले पर झूलते हुए फराह अपनी दोस्त को यह खुशखबरी सुनाती है और अपने सपनों को साझा करते हुए बताती है की वह स्कूल टीचर बनना चाहेगी और लडकियों के लिए स्कूल खोलेगी, फ़रीदा जब बताने लगती है उसे बड़ा होकर क्या बनना है, इसी बीच एक बड़ा विस्फ़ोट होता है. यह आने वाली तबाही की शुरुआत है ।

युद्ध का मानसिक आघात और फरहा का प्रतिरोध

फराह का गांव इजरायली फोर्स द्वारा हिंसा का शिकार होता है। इजराइल के सैनिकों के हिंसा के प्रतिरोध में गांव के लड़ाके भी गोलाबारी शुरू करते हैं. खून की नदियां बहने लगती हैं , तबाही का मंजर चारो तरफ था । उसके पिता उसे अपने मित्र और उसकी बेटी के साथ उसे कार में बैठाकर शहर रवाना करते हैं । लेकिन फरहा बीच रास्ते ही कार से उतरकर अपने पिता के पास चली जाती है, क्यूंकि वह उन्हें अकेला छोड़कर नहीं जा सकती । उसके पिता उसे घर के एक पैंट्री रूम में छुपा देते हैं और हौंसला देते हुए कहते है , की वह उसे लेने जल्द आएंगे ।

कमरे में बंद फरहा अगले कुछ दिनों तक दरवाजे के छेद से इजरायली फोर्स द्वारा उस अमानवीय घटनाओं को देखती है जिससे मानवता भी शर्मशार हो जाएगी । आगे की फिल्म फरहा के संघर्ष की कहानी दिखाती है. फरहा के किरदार के माध्यम से युद्ध की इस बर्बरता का काफी भावनात्मक चित्रण होता है. युद्ध का बच्चों पर पड़ने वाला मनोवैज्ञानिक प्रभाव और किस तरह उनका भविष्य और सपने तार तार हो जाते हैं । फराह उन लाखों फिलिस्तीनी बच्चों की कहानी है जिनके सपने हिंसा की वास्तविता में कहीं गुम हो गए ।

अभिनय और निर्देशन का अच्छा तालमेल

फराह का किरदार करम तहर द्वारा निभाया गया है जिसने इस फिल्म में अपना डेब्यू किया है । अपनी पहली फिल्म में ही उन्होंने काफी प्रभावशाली तरीके से फराह की भावनात्मक यात्रा को निभाया है । आक्रोश, जिद्दीपन, मायूसी , तनाव जैसे सारे भाव को वह बखूबी निभाती है । 90 मिनट लंबी इस फिल्म का ज्यादातर हिस्सा बंद कमरे में घटित होता है । ऐसे में जब उसके किरदार के डायलॉग ना के बराबर हों, करम की आंखे कई कहानियां बयान करती हैं । ख़ामोशी में भी वह हर वक्त ऑडियंस से संवाद करती दिखती है । युद्ध से उत्पन्न होने वाली दयनीय परिस्तिथियों को हम उसकी आंखो से हर वक्त महसूस कर सकते हैं ।

फ़िल्म की निर्देशिका डरिन सलेम ने फरहा के द्वारा 1948 के इतिहास के उन पन्नों को बड़े पर्दे पर उकेरा है जिससे इसराइली सत्ता काफी असहज होती है । लेकिन निर्देशिका ने फिल्म में इस इतिहास को संवेदनशीलता से हैंडल किया है । फिल्म के कई दृश्य काफी विचलित करने वाले है । लेकिन अच्छी बात यह है की फिल्म खुद को एक राजनीतिक हथियार बनने नही देती, जिसकी संभावना कमोबेश ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित फिल्मों में बनती है । प्रोपगंडा से बचते हुए , फिल्म फरहा की यात्रा को बताती है और साथ ही यह भी कि कैसे युद्ध से लोग अपनी भूमि , परिवार और घरों से उजड़ने को मजबूर होते हैं । यह एक यूनिवर्सल कहानी है, फराह के किरदार में खुद को रखकर हर कोई उस दर्द को महसूस कर सकता है । फ़िल्म उन हाशिये में रह चुके आवाजों को जगह देने की कोशिश करती दिखती है, जिनको मुख्यधारा इतिहास में जगह कम मिल पाती है ।

क्यों हो रहा फिल्म पर विवाद ?

फ़िल्म दरअसल 1948 की नकबा की घटनाओं के इर्द गिर्द घूमती है । नकबा एक अरबी शब्द है, जिसका अर्थ है ‘तबाही’. उस दौर को फिलिस्तीनी तबाही के रूप में याद करते हैं । 1948 में ही इजराइल अलग देश की स्थापना हुई थी । फिलिस्तीनी लोगों का आरोप है कि इस दौरान इजरायली फोर्स ने हमला किया जिसमें लाखों फिलिस्तीनियों को अपने घरों से भागना पड़ा या उनको उनके घरों से जबरन निकाल दिया गया । क़रीब 7,50,000 फिलिस्तीनी अपनी जमीन से अलग हुए । क़रीब 78 प्रतिशत ऐतिहासिक फिलिस्तीन पर कब्जा कर लिया गया था । इजराइल का कहना है कि फ़िल्म में इसरायली सैनिकों को गलत तरीके से पेश किया गया है और इस तरह की बर्बरता से वो इंकार करते हैं ।

विकास कुमार स्वतंत्र पत्रकार , रिसर्चर और प्रगतिशील  सिनेमा आंदोलन से जुड़े हैं . वैज्ञानिक चेतना टीम के साथ भी जुड़े हैं.

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