विकास कुमार

भारत के एक प्रमुख आध्यात्मिक गुरु ओशो यानी आचार्य रजनीश का आज स्मृति दिवस है। अपने प्रखर, तार्किक एवं बेबाक विचारों के कारण उनका विवादों से चोली-दामन का संबंध रहा है। उन्होंने धर्म के नाम पर समाज में मौजूद कुरीतियां, पाखंड, रूढ़ परम्पराओं एवं मूढ़ मान्यताओं को न सिर्फ नकारा, महात्मा बुद्ध की तरह तार्किकता के सहारे उसे खुली चुनौती दी, बल्कि बेहतर मनुष्य एवं समाज के निर्माण को लेकर एक विज्ञान सम्मत, तर्कसंगत, वैकल्पिक, मौलिक दृष्टि भी दी।

“न कभी जन्मे, न कभी मरे. वे धरती पर 11 दिसंबर, 1931 से 19 जनवरी 1990 के बीच आए थे.”

( पुणे स्थित अध्यात्मिक गुरु ओशो की समाधि पर लिखे शब्द )

ओशो के पुणे स्थित आश्रम में जब उनकी सेक्रेटरी शीला के कैंसर से पीड़ित पति मृत्यु के निकट थे , तब ओशो ने शीला को अपने कमरे में बुलाया और कहा कि आप उससे गहरा प्यार करते हैं। इस अंतिम समय में उसे आपके चेहरे पर उदासी नहीं दिखनी चाहिए. शीला  हँसते हँसते अपने पति की अंतिम क्रिया में शामिल हुई. आज ही के दिन  यानी 19 जनवरी ,1990  में ओशो की मृत्यु को भी आश्रम में मौजूद उनके हज़ार अनुयायियों ने हँसते खेलते, उत्सव मनाकर उनको अलविदा कहा.

ओशो का नाम सुनकर कई बातें दिमाग में आती हैं : रहस्मयी, महाज्ञानी, विवादस्पद, पाखंडी, सेक्स गुरु आदि. कोई उसे 20वीं सदी का बुद्ध कहता है तो किसी के लिए वह  पिछली सदी का सबसे बड़ा खलनायक रहे, जिन्होंने अपने लाखों अनुयायियों के साथ छल  किया. 20वीं सदी के सबसे चर्चित अध्यात्मिक गुरु में से एक, दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर से यात्रा शुरू करके सन्यासी बने ओशो ने देशभर में घूमकर प्रवचन देना शुरू किया था. अमेरिका में ओरेगॉन में अपना आश्रम भी स्थापित किया, जिसे रजनीशपुरम भी कहा गया  लेकिन विवादस्पद परिस्तिथियों में उनकी गिरफ़्तारी हुई और भारत वापस भेज दिया गया और पुणे स्थित आश्रम में ही वे अपनी मृत्यु तक रहे.

उनकी मृत्यु के 32 साल बाद, डिजिटल क्रांति के युग में ओशो के विचारों की लोकप्रियता पहले से कहीं ज्यादा बढ़ती दिख रही है. Youtube पर उनके भाषणों को सुनने वाले लोगों की संख्या आज भी करोडो में है. उनके द्वारा बोले गए विभिन्न दार्शनिक Quotation को लाखों लोग पढ़ रहे हैं, सोशल मीडिया पर शेयर कर रहे हैं. Osho ने अध्यात्म, धर्म, पूंजीवाद से लेकर सेक्स पर भी प्रवचन दिया. बीते कुछ दिनों में मुझे भी ओशो को पढने , समझने की जिज्ञासा हुई. उनके कई प्रवचनों को सुनने का मौका मिला. उनके अमेरिका के आश्रम के प्रवास पर बनी विख्यात फ़िल्म Wild Wild Country को भी देखने का मौका मिला जिससे उनके विचार को कही अधिक गहराई से समझने में मदद मिली. सामाजिक-राजनीतिक- सांस्कृतिक उथल पुथल के इस दौर में ओशो के विचार क्या प्रासंगिक हैं ? जानिये इस ख़ास आलेख में.

एक अक्कड़ प्रोफेसर से विख्यात आध्यात्मिक गुरु तक का सफ़र

ओशो का जन्म 11 दिसंबर, 1931 को मध्य प्रदेश के कुचवाड़ा में हुआ था. जन्म के वक्त उनका नाम चंद्रमोहन जैन था. बाद में आचार्य रजनीश कहे जाने लगे. उनके लाखों कट्टर भक्तों के लिए वह भगवान् रजनीश थे. बाद में उन्होंने खुद को ओशो कहलवाना उचित समझा. उनहोनें अपनी किताब “glimpses of my Golden Childhood ” में लिखा है कि उन्हें बचपन में  ही दर्शन के प्रति गहरी रूचि पैदा हो गई थी.

उन्होंने अपनी पढ़ाई जबलपुर में पूरी की और बाद में वो जबलपुर यूनिवर्सिटी में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर के तौर पर काम किया. लेकिन अपने कॉलेज में भी अपने अक्कड़ और बेबाकी स्वभाव के कारण विवादों में फंसे रहे. बाद में प्रोफेसरी की नौकरी छोड़कर 60 के दशक में उन्होंने देश भर में भ्रमण करके प्रवचन देना शुरू किया. कई साल तक बम्बई में उनका घर था, बाद में अपनी अनुयायियों की बढती संख्या के मद्देनज़र उन्होंने अपना ठिकाना बदलकर पुणे कर लिया, जहाँ उन्होंने आश्रम की स्थापना की, जहां देश – विदेश से आए उनके अनुयायी आकर रहने लगे.

पुणे में आश्रम की गतिविधियों पर सरकार की तीखी नजर थी। अंततः सत्ता का दमन शुरू हुआ. आश्रम में बढ़ते ख़तरे को देखते हुए ओशो को भारत छोड़कर 1981 में अमेरिका जाना पड़ा . अमेरिका जाने का निर्णय ओशो ने इसलिए लिया क्यूंकि उन्हें लगता था कि अमेरिका में धार्मिक अल्पसंख्यकों को अमेरिकी संविधान ज्यादा आजादी प्रदान करता है. अमरीकी प्रांत ओरेगॉन में उन्होंने आश्रम की स्थापना की. ये आश्रम 65 हज़ार एकड़ में फैला था.ओरेगॉन में ओशो के शिष्यों ने उनके आश्रम को रजनीशपुरम नाम दिया . इस कम्यून में करीब 10,000 से ज्यादा शिष्य रहते थे. इस कम्यून में खुद का ध्यान केंद्र , स्कूल , अस्पताल , एअरपोर्ट, होटल, बिजली घर,डैम,तालाब,खेत इत्यादि सभी चीजें मौजूद थीं. देखते ही देखते इसकी लोकप्रियता पूरे अमेरिका में छाने लगी. लेकिन यह आश्रम शुरू से ही विवादों में घिरा रहा. इस नई विचारधारा और प्रयोग पर स्थानीय लोगों का संदेह रहा और उन्होंने इसका विरोध किया. बाद में आश्रम के, ओशो के करीबियों ने कई आपराधिक गतिविधियों को अंजाम दिया. उन पर, अमेरिकी सरकारी तंत्र के लोगों की हत्या, आश्रम की जासूसी,ओशो के डॉक्टर को मारने का प्रयास शामिल था. उनकी सेक्रेटरी शीला की गिरफ़्तारी जर्मनी में हुई और अपने आरोपों को मानने पर उन्हें कारावास भी भेजा गया.आश्रम पर बढ़ते दमन और ख़तरे के बीच,ओशो अपने कुछ शिष्यों के साथ प्लेन पर बैठकर फरार हुए लेकिन बाद में उनकी गिरफ़्तारी हुई. उन्हें बाद में अमेरिका छोड़ना पड़ा.

भारत लौटने के बाद वे पुणे में स्थित अपने आश्रम में वापस लौटे, उनकी मृत्यु 19 जनवरी, 1990 में हो गई.

अध्यात्म विद्रोह है; धार्मिकता रूढ़िवादी

ओशो अध्यात्म के पक्षधर थे और धार्मिकता के विरोधी. वे संगठित धर्म के खिलाफ थे तथा धर्म के नाम पर जारी पाखंड का खुला विरोध किया. उन्होंने विभिन्न संस्थाओं, मान्यताओं पर सवाल उठाए जो मानव के व्यवहार को जकड़ने का काम करता है

ओशो कहते है “ अध्यात्म सनातन का है, और धर्म लौकिक का है। धर्म लोगों के व्यवहार से संबंधित है। इसे वास्तव में पावलोव, स्किनर, डेलगाडो और अन्य लोग व्यवहार की कंडीशनिंग कहते हैं। बच्चे का पालन-पोषण ईसाई करते हैं – तब वह एक तरह से संस्कारित होता है, वह ईसाई बन जाता है। या वह हिंदुओं द्वारा पाला गया है – वह दूसरे तरीके से बद्ध है, वह हिंदू बन जाता है। उसकी कंडीशनिंग एक कारावास है; वह हिन्दू रहेगा। वह एक हिंदू या एक ईसाई की तरह सोचेगा जो उसका है. वह पूरी जिंदगी हिंदू या ईसाई की तरह ही सोचेगा। और वे विचार उसके अपने नहीं हैं, वे दूसरों के द्वारा उसके सिर में डाल दिए गए हैं – निहित स्वार्थों द्वारा, स्थापना द्वारा, राज्य द्वारा, चर्च द्वारा। उनके अपने हित हैं: वे आप पर हावी होना चाहते हैं।

वे कहते हैं कि यह आपको डराने और लालची बनाने की एक सरल मनोवैज्ञानिक रणनीति है। ये दो चीजें हैं जिन पर लोगों का शासन है: भय और लालच। और आध्यात्मिक व्यक्ति वह है जो दोनों से मुक्त है। अध्यात्म विद्रोह है; धार्मिकता रूढ़िवादी है। आध्यात्मिकता व्यक्तित्व है; धार्मिकता भीड़ मनोविज्ञान का सिर्फ एक हिस्सा बचा हुआ है। धार्मिकता आपको एक भेड़ रखती है, और आध्यात्मिकता एक शेर की दहाड़ है।

ओशो का दर्शन  “आध्यात्मिक भौतिकवाद ( Spiritual Materialism )”

पिछले हज़ारों सालों से धर्म और अध्यात्म मानव को प्रबुद्ध ( Enlightened ) बनने का मार्ग बताने का दावा करता रहा है. भारत में भी कई धर्मो / पंथों ने जन्म लिया है –  हिन्दू , बौद्ध , जैन , सिख आदि . भारत की इन अनेक पंथों में आस्तिकता , नास्तिकता सभी शामिल रही है . धर्म और दर्शन में परस्पर संबंध रहा है. भारत में हम सन्यासी से यह अर्थ समझते हैं – जो संस्कारिक सुखों का त्याग करे. ब्रह्मचर्य का पालन करे , धन संग्रह ना करे , आभाव में जिए. ओशो ने इसके विपरीत अलग दर्शन की बात कही जिसमें अध्यात्म और वैभव दोनों का सुख हो.

ओशो कहते हैं “ पूर्व (East) तथाकथित आध्यात्मिकता के कारण एकतरफा बना हुआ है। यह गरीब, अवैज्ञानिक बना हुआ है – बिना किसी तकनीक के, बिना उद्योग के।  और पश्चिम ने भौतिकवाद को चुना है, इसलिए महान तकनीक, सुंदर घर, बेहतर सड़कें, बेहतर कारें, बेहतर हवाई जहाज हैं, लेकिन मनुष्य बहुत खाली और अर्थहीन है।अध्यात्म के बिना कोई केंद्र नहीं है; आदमी टूट जाता है। पश्चिमी आदमी आधा है; पूर्वी आदमी आधा है। मेरा प्रयास यहां संपूर्ण मनुष्य को निर्मित करने का है। मेरे लिए संपूर्ण मनुष्य ही एकमात्र पवित्र व्यक्ति है। इसलिए मैं एक बहुत ही विरोधाभासी दर्शन पढ़ाता हूं। आध्यात्मिक भौतिकवाद वह नाम है जो मैं अपने दर्शन को देता हूं।  “

“ मैं चाहता हूं कि आप संतुलित तरीके से एक साथ भौतिकवादी और अध्यात्मवादी बनें। मैं चाहता हूं कि समाज में विज्ञान और प्रौद्योगिकी द्वारा प्रदान की जाने वाली सभी सुविधाएं हों, और मैं यह भी चाहूंगा कि लोगों के अंदर एक महान जागरूकता हो ताकि वे विज्ञान द्वारा प्रदान की जाने वाली हर चीज का आनंद ले सकें। मैं चाहता हूं कि हर कोई बुद्ध बने, लेकिन साथ ही मैं यह भी चाहूंगा कि दुनिया अधिक से अधिक आरामदायक, अधिक से अधिक प्रेमपूर्ण, अधिक से अधिक सुंदर हो। ”

मैं जाग रहा हूँ, तुम सो रहे हो और तुम भी जाग सकते हो

जहाँ विभिन्न धर्मो केअध्यात्मिक गुरु खुद को ईश्वर का ही रूप मानते हैं. वहीं ओशो अपने शिष्यों को उन्हें मानने की भी सलाह नहीं देते. ऐसे में वे बुद्ध की परंपरा को आगे बढ़ाने का ही काम करते हैं .

ओशो कहते हैं “ मैं किसी भी मायने में खास नहीं हूं. मैं यह दावा नहीं कर रहा हूं कि मैं भगवान का पुत्र हूं, मैं यह दावा भी नहीं कर रहा हूं कि मैं भगवान का अवतार हूं, मैं बस एक ही बात कह रहा हूं कि मैं सो रहा था, अब मैं जाग रहा हूँ, तुम सो रहे हो और तुम भी जाग सकते हो. मैं लोगों को जगाने में मदद करने की कोशिश करता रहूंगा. जाग्रत मनुष्य ही नया मनुष्य होगा. वह ईसाई नहीं होगा, वह हिंदू नहीं होगा, वह मुस्लिम नहीं होगा, वह भारतीय नहीं होगा, वह जर्मन नहीं होगा, वह अंग्रेज नहीं होगा, वह बस एक जागृत प्राणी होगा.”

ओशो का नया जागृत इन्सान एक दूसरे के साथ सद्भाव में रहता है, वह प्रकृति के साथ सद्भाव में रहता है, ओशो की इस दुनिया में सभी राष्ट्रीयताएं, सभी रंग, सभी धर्म एक साथ बैठते हैं। इस नए आदमी के मन में सिर्फ एक दूसरे के लिए सम्मान है . ओशो एक नए विश्व नागरिक की कल्पना करते दिखते है.

गौतम दार्शनिक नहीं हैं, द्रष्‍टा हैं

ओशो गौतम बुद्ध की चिंतन परंपरा से काफी प्रभावित रहे हैं.  सत्य की ख़ोज करने के लिए अपने शिष्यों से बुद्ध की वैज्ञानिक पद्धति को मानने के लिए कहते हैं.

ओशो कहते हैं “ गौतम दार्शनिक नहीं हैं न ही द्रष्‍टा हैं। दार्शनिक वह, जो सोचे। द्रष्टा वह, जो देखे। सोचने से दृष्टि नहीं मिलती। सोचना अज्ञात का हो भी नहीं सकता। अंधा लाख सोचे, लाख सिर मारे, तो भी प्रकाश के संबंध में सोचकर क्या जान पाएगा! आंख की चिकित्सा होनी चाहिए। आंख खुलनी चाहिए। अंधा जब तक द्रष्टा न बने, तब तक सार हाथ नहीं लगेगा। तो पहली बात बुद्ध के संबंध में स्मरण रखना, उनका जोर द्रष्टा बनने पर है। वे स्वयं द्रष्टा हैं। और वे नहीं चाहते कि लोग दर्शन के ऊहापोह में उलझें।

ओशो नई दृष्टि के लिए सभी विचारधाराओं से मुक्त होने की बात कहते हैं , चाहे वह कोई भी धर्म हो या राजनीति.  वे कहते हैं “ इस विरोधाभास को खयाल में लेना, दृष्टि पाने के लिए सब दृष्टियों से मुक्त हो जाना जरूरी है। जिसकी कोई भी दृष्टि नहीं, जिसका कोई दर्शनशास्त्र नहीं, वही सत्य को देखने में समर्थ हो पाता है। ”

सेक्स का दमन नहीं रूपांतरण

धर्म और अध्यात्म के लिए सेक्स एक निषेध है . मुक्ति के लिए इसे एक बाधा के रूप में देखा गया है. इसका विरोध किया गया. लेकिन ओशो ने सेक्स के दमन के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला था. उनके लिए  ‘सेक्स पहली सीढ़ी है और समाधि अंतिम’ . उनकी  ‘संभोग से लेकर समाधि तक’ नामक किताब विवादों में रहा । सेक्स को लेकर उनकी खुली सोच ने ही उन्हें अन्य अध्यात्मिक गुरुओं से अलग बनाया. देश दुनिया में उनकी आलोचना हुई , तो लाखों प्रशंसक भी जुटे

ओशो कहते हैं : “ अब दो तरीके हैं: या तो सेक्स का दमन करें- जैसा कि दुनिया की सभी तथाकथित धार्मिक परंपराओं ने किया है- या इसे रूपांतरित करें। मैं परिवर्तन के पक्ष में हूं, इसलिए मैं अपने संन्यासियों को रचनात्मक होना सिखाता हूं। संगीत बनाएं, कविता बनाएं, पेंटिंग बनाएं, मिट्टी के बर्तन बनाएं, मूर्तिकला बनाएं- कुछ बनाएं! तुम जो कुछ भी करो, उसे बड़ी रचनात्मकता के साथ करो, कुछ नया अस्तित्व में लाओ, और तुम्हारा काम उच्च स्तर पर पूरा होगा और कोई दमन नहीं होगा। ”

अपने सेक्स  को अधिक से अधिक प्रेम और कम वासना बनने दो। और फिर अंत में अपने प्रेम को भी थोड़ा ऊंचा होने दो—वह है प्रार्थना। वासना कामवासना का निम्नतम रूप है, काम से ऊंचा प्रेम है, और प्रार्थना परम परिवर्तन है।

पहले पूंजीवाद के समर्थक थे  , बाद में कम्युनिज्म को माना मुक्ति का सीढी

ओशो ने “ आध्यात्मिक भौतिकवाद ” दर्शन की बात कही. धन बनाने के पक्षधर रहे. कम्युनिज्म के विपरीत पूंजीवाद को विचारधारा नहीं मानते हैं . पूँजीवाद के बारे में वह कहते हैं “ पूंजीवाद बिल्कुल भी “वाद” नहीं है; बस शब्द से बहुत अधिक भ्रमित न हों। कभी-कभी शब्द हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण हो जाते हैं और हम वास्तविकता को भूल जाते हैं। पूंजीवाद कोई विचारधारा नहीं है; यह समाज पर थोपा नहीं जाता, यह एक प्राकृतिक विकास है। यह साम्यवाद, या फासीवाद, या समाजवाद की तरह नहीं है – ये विचारधाराएं हैं; उन्हें लगाया जाना है। पूंजीवाद अपने आप आया है। वास्तव में, शब्द “पूंजीवाद” पूंजीवाद विरोधी विचारकों द्वारा दिया गया है: कम्युनिस्ट, समाजवादी और अन्य। पूंजीवाद स्वतंत्रता की स्थिति है; इसलिए मैं इसके समर्थन में हूं। यह आपको सभी प्रकार की स्वतंत्रता की अनुमति देता है। साम्यवाद आपको सभी प्रकार की स्वतंत्रता की अनुमति नहीं देगा; साम्यवाद आपको विश्वास करने के लिए केवल एक विचारधारा देगा – पसंद का कोई सवाल ही नहीं है। ( पुणे आश्रम , 1980 )

अपने जीवन के अंतिम वर्षो में वे कम्युनिज्म को मुक्ति की पहली सीढ़ी मानते हैं. वे Spiritual Communism के पक्ष के बात कर रहे थे.

“साम्यवाद हर किसी के लिए सम्मान लाता है क्योंकि सभी संपत्तियां, जमीन और सब कुछ सामूहिक हैं। आपसे ज्यादा अमीर कोई नहीं हो सकता और आपसे ज्यादा गरीब कोई नहीं हो सकता। समानता साम्यवाद के बराबर है, और सभी के लिए समान अवसर है कि वह अपनी क्षमता में जो कुछ भी छिपा है, उसमें खिलें।

साम्यवाद का अर्थ है मानव मन से सभी कल्पनाओं को दूर करना, इसे उस अतीत की अच्छी सफाई देना जिसने इसे कूड़ा-करकट से भर दिया है। मार्क्स की दृष्टि उससे आगे कभी नहीं पहुंची, लेकिन मेरी समझ और मेरी दृष्टि कहीं अधिक परिपूर्ण है। मेरे लिए, साम्यवाद केवल पहला चरण है – अंतिम नहीं

साम्यवाद पहला कदम है। दूसरा चरण अध्यात्मवाद है, और तीसरा चरण अराजकतावाद है। अराजकतावाद तब तक संभव नहीं है जब तक कि लोग वास्तव में, प्रामाणिक रूप से आध्यात्मिक न हों। प्रिंस क्रोपोटकिन, टॉल्स्टॉय, बाकुनिन – सभी इस तथ्य से अनजान थे कि वे फूलों के बारे में बात कर रहे थे लेकिन वे जड़ों ( roots )और ट्रंक ( trunks) के बारे में भूल गए थे। आप बिना जड़ों के, बिना सूंड के फूल नहीं बना सकते। साम्यवाद सिर्फ जड़ें हैं, और सूंड ध्यान होगा। और फूल बिना किसी आधिपत्य के, व्यक्तिगत विकास के साथ किसी भी हस्तक्षेप के बिना एक दुनिया होगी – राज्यों के बिना दुनिया, सीमाओं के बिना दुनिया। बस एक दुनिया जिसमें व्यक्ति शामिल हैं – संगठन नहीं, राष्ट्र नहीं, नस्ल नहीं। ये तीन चरण हैं, और मैं उन्हें स्पष्ट रूप से देख सकता हूं क्योंकि मेरी किसी से कोई पहचान नहीं है – न तो साम्यवाद और न ही अध्यात्मवाद और न ही अराजकतावाद। मैं सिर्फ एक गवाह हूं।

साम्यवाद किसी भी अन्य प्रकार की सामाजिक संरचना की तुलना में एक बेहतर अवसर है क्योंकि यह नकारात्मक है, क्योंकि यह ईश्वर के बिना, स्वर्ग के बिना, नर्क के बिना, पुनर्जन्म के विचार के बिना है। और यह पुरुष और महिला के लिए अवसर की एक निश्चित समानता पैदा करता है … मेरे लिए, साम्यवाद, परम बुद्धत्व की ओर एक बहुत ही महत्वपूर्ण कदम है। ( पुणे आश्रम , 1989 )

क्या ओशो के विचार आज भी प्रासंगिक ?

तकनीकी क्रांति के युग में , जब हम चौथे आद्योगिक क्रांति के बात कर रहे हैं,ओशो के विचारों की लोकप्रियता बढती ही जा रही है. Late Capitalism के इस चरण में दुनियाभर में लोग एकांगी पन में रह रहे हैं. सोशल मीडिया में हजारों दोस्त हों लेकिन फिर भी लोग अकेलेपन का शिकार हैं. लोग अवसाद का शिकार हो रहे हैं. पूँजीवाद की आर्थिक संरचना और इससे जुडी गैर बराबरी पर दुनियाभर में सवाल उठ रहा है. आज दुनियाभर में लोग विकल्प की तलाश कर रहे हैं. सोवियत यूनियन के टूटने के चार दशकों बाद आज राजनीतिक स्तर पर कार्ल मार्क्स फिर से चर्चा में हैं. आज दुनियाभर की आबादी का संगठित धर्मो से मोह भंग हो रहा है. पुराने रीती रिवाजों में लोगों की आस्था कम हो रही है. तेज़ी से बदलती दुनिया में युवा पीढ़ी अध्यातम का रास्ता ढूढ़ रही है. मन की शांति की तलाश में वे पूर्व का रुख कर रहे हैं, जहाँ अध्यात्म की लम्बी परंपरा रही है. धर्मगुरु पहले से ज्यादा डिमांड में हैं. लेकिन बीते दशकों में भूमंडलीकरण के दौर में, धर्म गुरु भी पूंजीवादी व्यवस्था का अंग बन चुके थे, जिसे हम Spiritual Capitalism कह सकते हैं. आज लोग अध्यात्म में भी नए विकल्प की तलाश कर रहे हैं. अन्य धर्म गुरुओं से विपरीत, ओशो सिर्फ जीवन का सत्य ढूँढने में ही लोगों की मदद करने तक सीमित नहीं थे , वे एक नए समाज और दुनिया की कल्पना भी कर रहे थे. इस कल्पना को पूरा करने के लिए उन्होंने इसी तरह का एक बड़ा सफल प्रयोग अमेरिका में किया, लेकिन धार्मिक रूढ़िवादियों से उन्हें हारना पड़ा. उनके आश्रम के क़रीबी लोगों ने भी सत्ता में मोह में डूबकर अपराधिक काम किया और ओशो के सपने को अधूरा छोड़ दिया. फलस्वरूप एक सफ़ल प्रयोग अंजाम तक नहीं पहुँच पाया. उनका मौत भी रहस्य रहा और उनकी वसीहत पर आज भी विवाद है. बुद्ध की तरह ओशो के शिष्यों ने भी उनकी बड़ी विरासत को विलुप्त होने के कगार पर ला खड़ा किया.आज मुख्यधारा में उन्हें सेक्स गुरु तक ही सीमित करके रख दिया.

लेकिन आज उनकी बढती लोकप्रियता ने फिर साबित कर दिया है कि इन्सान मरता है, विचार नहीं. आज धार्मिक कट्टरता, हिंसा, गैरबराबरी, प्राकृतिक दोहन / आपदा के दौर में दुनियाभर में लोग नए आर्थिक- सामाजिक विकल्प की तलाश कर रहे हैं. आज मार्क्स, बुद्ध, गाँधी आदि  के विचार प्रासंगिक लग रहे हैं. ओशो भी इसी कड़ी में शामिल होते दिख रहे हैं. क्यूंकि नए इन्सान और नए कम्यून की ज़रुरत पहले से कहीं ज्यादा है. एक विश्व नागरिक, जो पुरानी मान्यताओं, जाति, धर्म, रंग, लिंग, नस्ल, भाषा , देश की जकड़न से बाहर निकलकर एक नया मानव बने और नई दुनिया का निर्माण करे.

                                                           

       विकास कुमार स्वतंत्र पत्रकार और रिसर्चर है 

      वे वैज्ञानिक चेतना के साथ भी जुड़े हैं

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