कोरोना महामारी के डेढ़ साल (18 महीने) बाद देश में स्कूल खुलना शुरू हो चुके हैं। बच्चे, अभिभावक और शिक्षकों में इसे लेकर खुशी है. देश के कई राज्यों में कुछ दिन पहले से स्कूल खुल चुके हैं और कई राज्यों में एक सितंबर से खुले हैं। 20 सितंबर, सोमवार से झारखंड में भी 6 से 8 क्लास तक के बच्चों की आफलाइन पढ़ाई शुरू हो रही है । लेकिन स्कूल खुलने के बाद उन बच्चों का क्या होगा जो कोरोना महामारी में शिक्षा से पूरी तरह से दूर हो चुकें हैं . इसके लिए कई तरह के सर्वे किये जा रहे हैं .
बीबीसी में छपे रिपोर्ट के अनुसार मशहूर अर्थशास्त्री ज़्यां ड्रेज़ ने झारखंड के लातेहार ज़िले के दलित-आदिवासी गांव डुम्बी में एक सर्वे किया. सर्वे में बच्चों को पढ़ाई के लिए स्कूल से मिलनेवाली मदद, टीचर का घर आकर बच्चे को मिलना, ऑनलाइन क्लास, निजी स्तर पर की जा रही ट्यूशन और मां-बाप की साक्षरता दर इत्यादि की जानकारी इकट्ठा की गई. सर्वे में पाया गया कि ज़्यादातर प्राइमरी स्कूल के बच्चे पढ़ने-लिखने में पिछड़ गए हैं और पिछले डेढ़ साल में उन्हें पढ़ाई के लिए ना के बराबर मदद मिली थी. “ये बहुत चौंकाने वाला था कि प्राइमरी स्कूल जानेवाले 36 बच्चों में से 30 एक शब्द तक पढ़ या लिख नहीं पाए.”
पढ़े नहीं पर पास हो गए
भारत के शिक्षा के अधिकार क़ानून के तहत पांचवीं क्लास तक स्कूल किसी छात्र को फ़ेल नहीं कर सकते. इसका मक़सद बच्चों को सीखने का अच्छा माहौल देना और उन पर नंबर लाने का दबाव कम करना है. लेकिन स्कूलों ने इस नियम का पालन महामारी के दौरान भी किया जबकि कई बच्चे इस वक्त में पढ़ाई से बिल्कुल महरूम रहे. आदिवासी गांव में ज़्यादातर मां-बाप अशिक्षित हैं और पढ़ाई में अपने छोटे बच्चों की मदद नहीं कर पाते, यानी बच्चों का स्कूल बंद तो सीखना भी पूरी तरह से बंद.
छोटे बच्चों को चाहिए मदद
ज़्यां ड्रेज़ कहते है “बड़ी क्लास में पहुंचने तक आप पढ़ना-लिखना सीख चुके होते हैं, आप थोड़ा पिछड़ भी जाएं तो आगे बढ़ना जारी रख सकते हैं. ख़ुद को और शिक्षित बना सकते हैं. लेकिन अगर आपने मूल पढ़ाई ही नहीं की है और आप पीछे छूट गए हैं, पर आपको आगे की क्लास में बढ़ा दिया गया है तो आप बहुत पिछड़ जाएंगे. ये स्कूल ही छोड़ देने के हालात पैदा कर सकता है.”
ज़्यां ड्रेज़ और कुछ अन्य अर्थशास्त्री असम, महाराष्ट्र, ओडिशा, दिल्ली, पंजाब, उत्तर प्रदेश, झारखंड, बिहार और मध्य प्रदेश – में 1,500 बच्चों का सर्वे किया जा रहा है इस सर्वे में घर-घर जाकर पांच से 14 साल की उम्र तक के बच्चों से बात कर उनकी साक्षरता दर आंकेंगे ताकि 2011 की जनगणना की दर से उसकी तुलना की जा सके.
लड़कों के लिए ट्यूशन
महामारी ने शिक्षा के लिए लड़के और लड़कियों को मिलने वाली मदद के अंतर को भी और गहरा कर दिया है. कुछ परिवार ट्यूशन का ख़र्च उठा सकते हैं, लेकिन इनमें से ज़्यादातर ऐसा सिर्फ़ बेटों के लिए करते हैं. कई परिवार लड़कों को बुढ़ापे का सहारा मानते हुए उन पर ख़र्च करना पसंद करते हैं, जबकि माना जाता है कि बेटियां शादी के बाद दूसरे घर चली जाएंगी. शोध बताते हैं कि कम साधन वाले परिवारों में ज़्यादातर मां-बाप अपनी बेटियों को मुफ़्त शिक्षा देने वाले सरकारी स्कूल में दाख़िला दिलवाते हैं ताकि बेटों को प्राइवेट स्कूल भेज सकें.
छोटी बच्चियों पर असर
समयुक्ता सुब्रमणियन बाल शिक्षा के क्षेत्र में भारत की सबसे बड़ी गैर-सरकारी संस्था, ‘प्रथम’ में छोटे बच्चों के प्रोजेक्ट्स पर काम करती हैं. वो कहती हैं, “लड़कियां ये विश्वास करने लगेंगी कि कुछ चीज़ें ऐसी हैं जो उसे चाहिए पर उसके छोटे भाई को ही मिलेंगी. ये उसके मन में घर कर जाएगा, उसके अत्म विश्वास पर असर पड़ेगा, वो ख़ुद को कम समझने लग सकती है.”
अक्तूबर 2020 में प्रथम ने अपनी सालाना ‘ऐनुअल स्टेट ऑफ़ एजुकेशन रिपोर्ट’ (असर) के लिए एक सप्ताह के दौरान फ़ोन से देशव्यापी सर्वे किया. उन्होंने पाया कि उस अवधि में दो-तिहाई बच्चों को पढ़ाई-लिखाई के लिए किसी तरह की सामग्री या क्लास करने को नहीं मिली.
स्कूल खुलने के बाद, टीचर्स को बच्चों के साथ खेल के बहाने सामूहिक ऐक्टिविटीज़ करनी चाहिए ताकि उन पर बहुत दबाव डाले बग़ैर उनकी शिक्षा के स्तर का अंदाज़ा लगाया जा सके. उन्होंने कहा, “क्लासरूम में होने वाली पढ़ाई को हर बच्चे की सीखने की क्षमता के मुताबिक करना होगा, वर्ना बहुत से बच्चे जो पिछड़ गए हैं, वो बाकि बच्चों से क़दम नहीं मिला पाएंगे.”