विकास कुमार

महात्मा गाँधी. वकील,राजनेता,समाज सुधारक, स्वतंत्रा सेनानी,उपनिवेश विरोधी राष्ट्रवादी,राजनीतिक नैतिकतावादी. गाँधी के अनेक चेहरे हैं. लेकिन गाँधी के पत्रकार के तौर पर चर्चा कम ही दिखती है. लंदन में पत्रकारिता की शुरुआत करने वाले गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका में उत्पीड़ित भारतीय समाज को आवाज़ देने के लिए इंडियन ओपिनियन नाम से पत्रिका की शुरुआत की थी. भारत में उन्होंने नवजीवन, यंग इंडिया, हरिजन नामक पत्रिकाओं का संपादन किया जिसने भारत के जनमानस में आजादी के आन्दोलन का बिगुल फूंका . आज जहाँ मीडिया व्यवसाय बन चुका है , गांधी के अनुसार पत्रकारिता का एकमात्र उद्देश्य सेवा था. उनके लिए पत्रकारिता एक मिशन था , वे विज्ञापन में विश्वास नहीं रखते थे और जनता को अपने अखबार का पार्टनर समझते थे. मौजूदा दौर में जहाँ मीडिया सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करता दिखता है,गाँधी के लिए पत्रकारिता एकता और सांप्रदायिक सौहार्द का माध्यम थी. अखबार के  माध्यम से वे आम जनमानस में आजादी के मूल्‍य को जीवन का मूल्‍य बनाना चाहते थे. आज गाँधी शाहदत दिवस पर गाँधी के पत्रकारिता के सफ़र, उनके विचार और मौजूदा सामाजिक-राजनीतिक परिपेक्ष्य में गाँधी की पत्रकारिता की प्रासंगिकता को विस्तार से बताता यह ख़ास आलेख

इंग्लैंड में पहली बार शुरू हुआ गाँधी की पत्रकारिता का अध्याय

वर्ष 1888 में गाँधी 18 वर्ष की उम्र में, वकालत की पढाई के सिलसिले में लंदन चले गए थे. गाँधी की पत्रकारिता की शुरुआत उनके लंदन प्रवास के दौरान हुई थी. लंदन में पढाई के दौरान वर्ष 1888 में वे ‘ लंदन वेजीटेरियन सोसाइटी ‘ के सदस्य बने. संस्था की पत्रिका ‘The Vegetarian‘ के लिए उन्होंने लेख लिखना शुरू किया. उनका पहला लेख का शीर्षक ‘ इंडियन वेजीटेरियन ‘था जो 1891 में प्रकाशित हुआ. पत्रिका में उनके लगभग 12 लेख प्रकाशित हुए इसमें शाकाहार, भारतीय खानपान, परंपरा और धार्मिक त्यौहार जैसे विषय शामिल थे. शुरआती लेख से ही तथ्यपरक ढंग के साथ सरल भाषा में विचारों को व्यक्त करने की उनकी कला दिखी. दादाभाई नौरोजी ने जब सन् 1890 ई में लंदन से ‘इंडिया’ नामक अंग्रेजी पत्र प्रकाशित किया तो उन्होंने गांधी को जोहांसवर्ग, डरबन और दक्षिण अफ्रीका में अपने समाचार पत्र का प्रतिनिधि नियुक्त किया.

दक्षिण अफ्रीका में हुई घटना ने लेखन के लिए किया मजबूर

सन 1893 में गाँधी वकालत करने दक्षिण अफ्रीका प्रस्थान किए. जहाँ लंदन में गाँधी किसी प्रकार का रंगभेद का शिकार नहीं हुए, दक्षिण अफ्रीका में उनके साथ नस्लभेद की अनेक घटनाएं हुई , जिसने गाँधी को प्रेरित किया कि इस पीड़ा की अभिव्यक्ति पत्रकरिता के माध्यम से किया जाए. दक्षिण अफ्रीका पहुंचने के  के तीसरे दिन ही उन्हें कोर्ट में अपमानित किया गया. दक्षिण अफ्रीका में कोर्ट परिसर में गाँधी को पगड़ी पहनने पर पाबंदी लगी. अगले दिन ही गाँधी ने स्थानीय संपादक को पत्र लिखकर अपनी आपति जतायी. उनके विरोध के स्वर को अख़बार ने प्रकाशित किया. पहली बार गाँधी के लेख को अख़बार में जगह मिली थी. पत्र में उन्होंने लिखा की किसी भी देश में कोई  कानून व्यक्तिगत या सांस्कृतिक आज़ादी के खिलाफ नहीं हो सकता. इस घटना से पहली बार दक्षिण अफ्रीका में गाँधी चर्चा में आए और अन्याय के प्रति विरोध की अभियक्ति ने गाँधी के अन्दर पत्रकरिता का बिगुल फूका और शुरू हुआ इस क्षेत्र में उनका लंबा सफ़र.

visual from Richard Attenborough’s film Gandhi

दक्षिण अफ्रीका में 1899 में बोअर युद्ध छिड़ा, जिसने गांधीजी को भारतीय एम्बुलेंस कोर के स्वयंसेवकों के साथ युद्ध के मैदान में जाने का मौका दिया और युद्ध को नजदीक से देखने का अनुभव प्रदान किया । इसके बाद उन्होंने युद्ध का अपना अनुभव द टाइम्स ऑफ इंडिया, बॉम्बे को भेजना शुरू किया। अतः गांधीजी ने युद्ध संवाददाता के तौर पर मानवीय संवेदना से इस युद्ध का वर्णन किया.

दक्षिण अफ्रीका में आम भारतीयों के बारे में काफी अपमानजनक लेख प्रकाशित किए जाते थे. ऐसे में गाँधी ने भारतीय के बारे में दुष्प्रचार का सामना करने के लिए दक्षिण अफ्रीका के शीर्ष अखबारों में लिखने लगे. इसी कड़ी में 1903 में गाँधी ने इंडियन ओपिनियन नामक पत्रिका को डरबन में शुरू किया. मुख्य रूप से यह चार भाषओं में प्रकाशित किया गया. अंग्रेजी, हिंदी, गुजराती और तमिल में.  पत्रिका के पहले अंक में ही गांधी जी ने पत्रकारिता के उद्देश्यों को बताते हुए स्पष्ट किया कि पत्रकारिता का पहला काम जनभावनाओं को समझना और उन्हें अभिव्यक्ति देना है

इंडियन ओपिनियन के ज़रिये उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में रह रहे भारतीयों की परेशानियों का उल्लेख किया. वे अखबार के माध्यम से प्रशासन का, इन समस्यायों की ओर, ध्यान आकर्षित करने लगे. इस पत्रिका में सिर्फ नस्लभेद के मुद्दे ही नहीं, दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समाज के बीच स्वच्छता, आत्म-अनुशासन और अच्छी नागरिकता के बारे में शिक्षित करने का प्रयास किया गया

गांधी ने अपनी आत्मा कथा में लिखा- ‘इस समाचार पत्र की जरूरत के बारे में हमारे मन में कोई संदेह नहीं है. भारतीय समाज दक्षिण अफ्रीका के राजकीय शरीर का निर्जीव अंग नहीं है. उसे जीवित अंग सिद्ध करने के लिए यह पत्र निकाला गया है.’

सत्ता के विरोध में मुखर रहने पर साल 1906 में अफ्रीकी प्रशासन ने उन्हें जोहान्सवर्ग की जेल में कैद  कर दिया। लेकिन जेल में रहने के बावजूद भी गांधी जी ने कोई समझौता नहीं किया, बल्कि जेल से ही अख़बार का संपादन का काम किया. अखबार ने कई बार आर्थिक तंगी झेली , लेकिन गाँधी ने खुद की आय का बड़ा हिस्सा इसके प्रकाशन में लगाकर इसकी गति धीमी नहीं होने दी. 1893 से लेकर 1914 तक गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका में पत्रकरिता के माध्यम से दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के सामाजिक-राजनीतिक अधिकारों की वकालत की, भारतीय समाज को एकजुट किया और विभिन्न समूहों में आपसी सौहार्द स्थापित किया.

गांधी ने पत्रकारिता को लोगों की सेवा के साधन के रूप में देखा। उन्होंने अपनी आत्मकथा में कहा है: “ “इंडियन ओपिनियन के पहले महीने में ही  मैंने महसूस किया कि पत्रकारिता का एकमात्र उद्देश्य सेवा होना चाहिए . समाचार पत्र एक महान शक्ति है, लेकिन जिस तरह पानी की एक अनियंत्रित धारा पूरे देश को डुबो देती है और फसलों को तबाह कर देती है, उसी तरह एक अनियंत्रित कलम नष्ट करने का ही काम करती है। यदि नियंत्रण बाहर से होता है, तो यह नियंत्रण के अभाव से अधिक जहरीला साबित होता है। यह तभी लाभदायक हो सकता है जब भीतर से व्यायाम किया जाए। यदि तर्क की यह पंक्ति सही है, तो दुनिया की कितनी पत्रिकाएँ कसौटी पर खरी उतरेंगी? लेकिन जो बेकार हैं उन्हें कौन रोकेगा? और न्यायाधीश कौन होना चाहिए? उपयोगी और निकम्मे, भले और बुरे की तरह साथ-साथ चलते रहें, और मनुष्य को अपना चुनाव करना चाहिए।”

दक्षिण अफ्रीका में शुरू हुई गाँधी की मिशनरी पत्रकारिता ने बाद में  भारत में भी वही बदलाव की मशाल जलाई.

भारत में जन जागरण के लिए पत्रकारिता का सहारा

गाँधी के भारत आगमन से पहले भी भारत में अनेक स्वतंत्रता सेनानी  अंग्रेजी उपनिवेश के खिलाफ आम जनता को जगाने के लिए पत्रकारिता का प्रयोग कर रहे थे. श्रेत्रीय भाषायों में अनेक पत्रिकाएं भी यह काम कर रही थी. इसमें आनंद बाज़ार पत्रिका के शिशिर घोष / मोतीलाल घोष , बालगंगाधर तिलक, रामकृष्ण पिल्लई , सुब्रह्मण्यम अय्यर शामिल थे.

भारत में गाँधी के आगमन के बाद पत्रिकारिता को नई उर्जा मिली. यह कह सकते हैं कि 1915 के बाद के कालखंड में गाँधी का भारत की पत्रकारिता में अच्छा ख़ासा प्रभाव रहा.

अंग्रेजों ने प्रथम विश्व युद्ध में समर्थन के बदले भारतीयों से अस्पष्ट रूप से ‘होम रूल’ वादा किया था , इसके उलट ब्रिटिश सरकार ने 1919 में भारतीय जनता पर कठोर रॉलेट एक्ट थोप दिया था। इस बिल ने न केवल तथाकथित ‘देशद्रोही’ दस्तावेज का प्रकाशन बल्कि उसके कब्जे को भी एक दंडनीय अपराध बना दिया गया। इसके विरोध में गांधीजी ने 7 अप्रैल 1919 में एक अपंजीकृत साप्ताहिक सत्याग्रह शुरू किया और उसके संपादक बने । यह सोमवार को प्रकाशित होता था और इसके माध्यम से गांधी के सत्याग्रह के विचार का प्रचार किया गया. इसमें देशभर में हो रहे civil-disobedience आंदोलन की ख़बरे भी रहती थी. civil-disobedience आंदोलन को वापस लिए जाने के बाद उन्होंने यह पत्रिका रोकी.

गाँधी प्रेस की स्वतंत्रता के पक्षधर थे. उन्होंने कहा था ‘प्रेस की स्वतंत्रता एक मूल्यवान विशेषाधिकार है, जिसका त्याग कोई देश नहीं कर सकता.’ वे पश्चिम की तरह पूर्व में भी समाचार पत्रों को जनता की बाइबिल, कुरान, जेंद-अवेस्ता और गीता सबको एक में देख रहे थे. हम कोई भी अखबार क्यों पढ़ें? गांधी ने कहा- ‘हमें समाचार पत्र तथ्यों के अध्ययन के लिए पढ़ने चाहिए. उन्हें यह अनुमति नहीं देनी चाहिए कि वे हमारे स्वतंत्र चिंतन को समाप्त करें. स्वतंत्र भाषण, स्वतंत्र साहचर्य और स्वतंत्र प्रेस उनके लिए लगभग ‘पूर्ण स्वराज’ था.’ (यंग इंडिया, 6 अक्तूबर, 1921 के अंंक में)

प्रेस की आजादी के पर काटने के इसी दौर में गाँधी को विभिन्न पत्रिकाओं के संपादन की  ज़िम्मेदारी ली.

नवजीवनः महात्मा गांधी ने 7 सितम्बर 1919 ई. को गुजराती भाषा में ‘नवजीवन’ नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन शुरू किया. इस पत्र के संपादन की ज़िम्मेदारी सितंबर 1919 में शंकर लाल बैंकर और इंदुलाल याज्ञिक ने उन्हें  सौंपी थी. गांधी जी के संपादकत्व में एक आना मूल्य के इस साप्ताहिक पत्र की ग्राहक संख्या देखते ही देखते 1200 तक जा पहुंची।

यंग इंडिया – उमर सोबानी और शंकरलाल बैंकर, होम रूल लीग के दो युवा समर्थक, जिन्होंने भारत में स्व-शासन लाने के लिए लड़ाई लड़ी, ने अपने साप्ताहिक यंग इंडिया का संपादक बनने की पेशकश गाँधी को की थी . 8 अक्टूबर को गाँधी के संपादन में अहमदाबाद से ‘यंग इंडिया’ साप्ताहिक पत्र के रूप में निकलने लगा. यह पत्रिका अंग्रेजी भाषा में थी. ‘यंग इंडिया’ के पहले संपादकीय लेख में गांधी ने जिक्र किया कि देश की 80 % किसान व मजदूर जनसंख्या अंग्रेजी नहीं जानती। ऐसे में यह अंग्रेज़ी पत्र भारत की जनसंख्या के समुद्र के महज बूंद भर लोगों तक अपनी पहुंच रखता है। फिर यह अंग्रेजी पत्र क्यों? जवाब में गांधी कहते हैं कि वह इन मुद्दों को केवल देश के किसानों और मजदूरों तक ही नहीं पहुंचाना चाहते, बल्कि वह शिक्षित भारत के साथ-साथ मद्रास प्रेसीडेंसी के लोगों से भी जुड़ना चाहते हैं और इसके लिए अंग्रेजी जरूरी है। 1922 तक, 40,000 की साप्ताहिक बिक्री के आंकड़े तक यह पहुंच गया।

1919 से 1921 की अवधि में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उछाल के साथ-साथ उनके दो साप्ताहिकों के प्रचलन में भारी वृद्धि देखी गई।

1922 में, यंग इंडिया में सरकार की आलोचना करने वाले तीन लेखों के प्रकाशन के बाद, गांधी पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया।  दोनों पत्रिकाओं  को अंततः 1932 में बंद कर दी गई , जब गांधी को नमक सत्याग्रह के बाद जेल में डाल दिया गया।

येरवडा जेल में रहते हुए 1933 में उन्होंने साप्ताहिक हरिजन का प्रकाशन शुरू कर दिया. गांधी ने क्रमशः अंग्रेजी, गुजराती और हिंदी में हरिजन, हरिजनबंधु, हरिजनसेवक की शुरुआत की। ये समाचार पत्र ग्रामीण क्षेत्रों में छुआछूत और गरीबी के खिलाफ उनके वाहक थे। इसमें उन्होंने आर्थिक विचारधारा का भी प्रसार किया : भारतीय गांव की समृद्धि को बढ़ाने से राष्ट्रीय विकास हो सकता है.  हरिजन में लम्बे समय तक कोई राजनीतिक लेख नहीं छापी गयी. हरिजन का मुख्य बिंदु भारतीय समाज के सामाजिक कुरीतियों को सामने लाना था.

गाँधी ने अंग्रेजी उपनिवेश के खिलाफ़ आजादी के विभिन्न आन्दोलनों का ताकतवर प्रचार अपने पत्रों के माध्यम से किया. चाहे वह भारत छोड़ो आन्दोलन हो या सविनय अवज्ञा आंदोलन ( Quit India Movement ) , गाँधी ने मीडिया का इस्तेमाल बड़ी ही चतुराई से किया. उनका मानना था की प्रचार रक्षा का एक प्रमुख हथियार है.  9 अगस्त के भारत  छोड़ो आंदोलन से पहले , गाँधी ने हरिजन को अंग्रेजी और आठ अन्य भारतीय भाषाओं में प्रकाशित किया ताकि आन्दोलन की शुरआत से पहले और उसके दौरान भारतीय जनता तक उनके विचारों की पहुँच हो

पत्रकारिता मुनाफे के लिए नही, बल्कि सेवा के लिए

गाँधी ने अपने इन पत्रों में कोई विज्ञापन प्रकाशित नहीं किया, फिर भी इसका दूर दूर तक व्यापक प्रसार हुआ। उन्होंने अपनी आत्मकथा, सत्य के प्रयोग में लिखा है कि अखबार के लिए विज्ञापन लेना पत्रकारिता को बेचने जैसा है। वे मानते थे  कि पत्रकारिता का खर्च पाठक संख्या बढ़ाकर निकालनी चाहिए । वे subscription-model पर विश्वास रखते थे. विज्ञापन नहीं प्रकाशित करने के पालिसी के बावजूद गाँधी की पत्रिका घाटे में नहीं चलती थी. 

आज जहाँ कॉर्पोरेट मीडिया मुनाफ़े की लालच में सनसनीखेज ख़बर चलाने से पीछे नहीं हटते , इसके विपरीत गाँधी ने अपने अखबारों में कभी कोई सनसनीखेज समाचार नहीं चलाया. उनकी पत्रिका में सत्याग्रह, अहिंसा, खानपान, प्राकृतिक चिकित्सा, शिक्षा व्यवस्था, हिंदू-मुस्लिम एकता, छुआछूत, सूत काटने, खादी, स्वदेशी, ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर लेख छपते थे. गांधी जी के लिए पत्रकारिता एक मिशन थी. उन्होंने  लिखा था “मैंने पत्रकारिता को एक मिशन के रूप में लिया है उन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जिनको मैं जरूरी समझता हूँ और जो सत्याग्रह, अहिंसा व सत्य के अन्वेषण पर टिकी हैं।”

गाँधी पत्रकारिता के माध्यम से जनता की कमजोरियों, बुराइयों को आत्‍मसुधार और आत्‍मचिंतन के माध्‍यम से दूर करना चाहते थे. जनता में स्‍वचेतना का निर्माण कर व्‍यापक जनमत तैयार उनका लक्ष्य था, वे आजादी के मूल्‍य को जीवन का मूल्‍य बनाना चाहते थे। इस कारण वे अपने पत्रों में निरंतर लिखते थे और जनता के विचारों को भी महत्त्व देते हुए प्रकाशित करते थे. वह संपादक को लिखे आलोचनात्मक पत्रों को छापने के लिए सहमत हुए , लेकिन धैर्य के साथ उनका उत्तर दिया, सुसंगत रूप से अपने दृष्टिकोण को सामने रखा । गाँधी को उनके बहु-प्रतिभाशाली सचिव महादेव देसाई ने काफी सहायता की, जो गुजराती और अंग्रेजी दोनों में कुशल थे। गांधी के अन्य सहयोगी जैसे कार्यकर्ता और लेखक स्वामी आनंद, काका कालेलकर, नरहरि पारिख ने नवजीवन में योगदान दिया और गुजराती भाषा के अनुवाद को सही आकार दिया।

पत्रकारिता के क्षेत्र में भी नैतिक मूल्यों को स्थापित किया

गांधी ने पत्रकारिता के विभिन्न पहलुओं के बारे में अक्सर लिखा। उनके लिए संपादकीय स्वतंत्रता, सत्य का पालन और आत्म-संयम पत्रकारिता के लिए तीन प्रमुख विचार थे. एक संपादक के रूप में और एक पत्रकार के रूप में गांधी ने सरल भाषा के उपयोग के महत्व पर जोर दिया। वे मानते थे की थे कि लेखन की भाषा स्पष्ट, सरल हो. लेखनी में किसी भी तरह की नफरत ना हो. मवी कामथ ने लिखा है कि गांधी इस प्रकार लिखते थे कि प्रत्येक व्यक्ति उसे समझ सके. ‘उनमें साहित्यिक महत्वाकांक्षा नहीं थी, पर उन्होंने जो भी लिखा, वह साहित्य है.’ चाहे किसी भी भाषा की पत्रिका की जिम्मेदारी उन्होंने ली लेकिन सत्य,अहिंसा,  निष्पक्षता जैसे मूल्यों पर जोर दिया.

गाँधी प्रकाशन से पहले किसी भी ख़बर को जांचने परखने पर जोर देते थे. आज फेक न्यूज़ के दौर में जब बड़े मीडिया हाउस भी बिना वेरीफाई किए ख़बर छापते हैं , गाँधी की बातें प्रासंगिक लगती है :

“ समाचार पत्र मुख्य रूप से लोगों को शिक्षित करने के लिए होते हैं। वे लोगों को समकालीन इतिहास से परिचित कराते हैं। यह कोई कम जिम्मेदारी वाला काम नहीं  है। हालाँकि, यह एक सच्चाई है कि पाठक हमेशा समाचार पत्रों पर भरोसा नहीं कर सकते। अक्सर तथ्य जो रिपोर्ट किए गए हैं, उसके बिल्कुल विपरीत पाए जाते हैं। अगर अखबारों को यह एहसास हुआ कि लोगों को शिक्षित करना उनका कर्तव्य है, तो वे इसे प्रकाशित करने से पहले एक रिपोर्ट की जांच करने के लिए इंतजार कर सकते थे । यह सच है कि अक्सर उन्हें कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। उन्हें थोड़े समय में असत्य से सत्य को छांटना होता है और केवल सत्य का अनुमान लगा सकते हैं। फिर भी, मेरी राय है कि अगर किसी रिपोर्ट को सत्यापित करना संभव नहीं पाया गया है तो रिपोर्ट को प्रकाशित नहीं करना बेहतर है।”

गांधी ने कभी यंग इंडिया में जो कुछ लिखा था, वह आज तक एक पत्रकार के लिए उपयोगी सलाह है। “अपने विश्वास के प्रति सच्चे होने के लिए, मैं क्रोध या द्वेष में नहीं लिख सकता। मैं मूढ़ता से नहीं लिख सकता। मैं केवल जोश को उत्तेजित करने के लिए नहीं लिख सकता। पाठक को इस बात का अंदाजा नहीं हो सकता है कि विषयों के चुनाव और मेरी शब्दावली में मुझे सप्ताह-दर-सप्ताह किस संयम का प्रयोग करना पड़ता है। यह मेरे लिए प्रशिक्षण है।”

आज बाजारीकरण और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के दौर में गाँधी की पत्रकारिता कितनी  प्रासंगिक ?

आज, जब मीडिया पर बाजार की ताकतों के बढ़ते प्रभाव के बारे में व्यापक चिंता है, और पत्रकारिता अब समाज सेवा नहीं मुनाफा का जरिया बन चुका है , पत्रकारिता के मूल्यों पर गांधी के विचार पेशे  की नैतिकता पर ध्यान आकर्षित करते हैं.

“अक्सर यह देखा गया है कि समाचार पत्र किसी भी मामले को प्रकाशित करते हैं जो उन्हें सिर्फ जगह भरने के लिए होता है। वजह यह है कि ज्यादातर अखबारों की नजर मुनाफे पर है…पश्चिम में ऐसे अखबार हैं जो इतने कूड़े-कचरे से भरे हुए हैं कि उन्हें छूना भी पाप होगा। कई बार वे विभिन्न परिवारों और समुदायों के बीच भी कड़वाहट और कलह पैदा कर देते हैं। इस प्रकार, समाचार पत्र आलोचना से केवल इसलिए नहीं बच सकते क्योंकि वे लोगों की सेवा करते हैं।”

आज जब पत्रकारिता ने पेशा का रूप ले लिया और पत्रकार और संपादक अपने मालिक के दिए एजेंडे पर काम करते हैं, गाँधी की बात विचारणीय है  ‘‘ पत्रकारिता कभी भी निजी हित या आजीविका कमाने का जरिया नहीं बनना चाहिए. और अखबार या संपादक के साथ चाहे जो भी हो जाय लेकिन उसे अपने देश के विचारों को सामने रखना चाहिए नतीजे चाहे जो हों. अगर उन्हें जनता के दिलों में जगह बनानी है तो उन्हें एकदम अलग धारा का सूत्रपात करना होगा.’ वे कहते थे की “एक संपादक को माफी नहीं मांगनी चाहिए अगर उसने कुछ ऐसा  प्रकाशित किया जो सरकार को नाराज करता है, बल्कि इसके लिए जिम्मेदारी स्वीकार करना चाहिए.

आज जब पत्रकरिता जन मुद्दों से हटकर मंदिर-मस्जिद के मुद्दे पर केन्द्रित है. समाज के बीच अलगाव की भूमिका निभा रही हैं , गाँधी की पत्रकारिता में विरासत को याद करना ज़रूरी है. गाँधी की पत्रकारिता समुदायों के बीच पुलों का निर्माण का काम करती थी. आज नफरत के इस दौर में गाँधी के Peace and Ethical Journalism की पहले से ज्यादा ज़रुरत है. गाँधी ने एक दौर में पत्रकारिता के गिरते स्तर पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा था –

“अखबारवाले बीमारी के वाहक बनते जा रहे हैं. अखबार तेजी से लोगों के गीता, कुरान और बाइबिल बनते जा रहे हैं. एक अखबार यह अनुमान तो लगा सकता है कि दंगे होने वाले हैं और दिल्ली में सभी लाठियां और चाकू बिक गए हैं. एक पत्रकार की जिम्मेदारी है कि वह लोगों को बहादुरी का पाठ सिखाए ना कि उनके भीतर भय पैदा करे.’

मौजूदा दौर में गाँधी की तरह निर्भीक पत्रकारों की ज़रुरत है, जो सत्ता से ना डरे और जनता के बीच बहादुरी का पाठ पढाए.

  विकास कुमार स्वतंत्र पत्रकार और रिसर्चर है 

      वे वैज्ञानिक चेतना के साथ भी जुड़े हैं

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