बीते 50 वर्षों में दुनिया में ताजे पानी के जलीय जीवों की संख्या में 83% की कमी आई है। जंगली जीवों के मामले में यह आंकड़ा 69% का है। यानी दुनियाभर में वन्यजीव तेजी से कम हो रहे हैं। यह चौकाने वाले आंकड़े अंतरराष्ट्रीय संस्था वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर (डब्लूडब्लूएफ) की हर दो साल में जारी की जाने वाली प्लैनेट रिपोर्ट (एलपीआर) में सामने आए हैं। वर्ष 2020 की रिपोर्ट में जलीय जीवों के कम होने का आंकड़ा 68%प्रतिशत था।

 

इस रिपोर्ट का आधार 5,230 प्रजातियों के 32,000 जीवों का डेटाबेस है जिसे जूओलॉजिकल सर्वे ऑफ लंदन ने तैयार किया है। इस रिपोर्ट को दुनियाभर के 89 विशेषज्ञों ने मिलकर बनाया है। इसमें शामिल आंकड़े साल 1970 से लेकर 2018 तक के हैं।

रिपोर्ट कहती है कि पूरी दुनिया में वन्यजीवों के आवास में कमी, जंगल और जीवों का अत्यधिक दोहन, इनवेसिव यानी घुसपैठिए प्रजातियों की संख्या बढ़ने, प्रदूषण, बीमारियां और जलवायु परिवर्तन मुख्य कारण हैं। जलीय जीवों के कम होने के पीछे मछलियों के माइग्रेटरी रूट में बाधा एक बड़ी वजह है।

भारत सहित एशियाई देशों में वन्यजीवों की संख्या में 55% की कमी देखी गई है, वहीं अफ्रीकी देशों में 66% वन्यजीवों की संख्या में गिरावट आई है। सबसे अधिक कमी लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई क्षेत्रों में देखा गया है। यहां 1970 से लेकर 2018 तक 94% वन्यजीव कम हो गए हैं।

डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इंटरनेशनल के महानिदेशक मार्को लैम्बर्टिनी इस रिपोर्ट को दुनिया और मानवता के लिए ‘कोड रेड’ यानी खतरे का संकेत मानते हैं। उन्होंने रिपोर्ट में लिखा, “पचास वर्ष के दौरान ही ग्लोबल लिविंग रिपोर्ट में दो तिहाई गिरावट देखी गई है। यह काफी चिंताजनक है।”

उन्होंने आगे कहा, “हम मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता के नुकसान की दोहरी आपात स्थिति का सामना करते हैं। इससे वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों को खतरा है।”

बदल रही नदी और समुद्र की पारिस्थितिकी

विश्व की मात्र 37% नदियां ऐसी हैं जो 1,000 किलोमीटर तक बिना रुकावट के बहती हों। नदियों पर बांध और बिजली उत्पादन सहित अन्य परियोजनाओं की वजह से लंबी दूरी तय करने वाली मछलियों का अस्तित्व संकट में है। रिपोर्ट में पाया गया है कि 1970 से 2016 तक ताजे पानी की मछलियों की संख्या में 76% की गिरावट आई है।

रिपोर्ट में जिन वजहों को जैव विविधता के नुकसान के कारण के रूप में गिनाया गया है वह भारत में स्पष्ट तौर पर देखे जा सकते हैं। रेत खनन, बांध और नदियों में बढ़ते प्रदूषण की वजह से जलीय जीव मुश्किल में हैं। उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी में रेत खनन का बुरा असर दिखने लगा है। इस वजह से नदी का प्रवाह कम हुआ है और एक बड़ी मछली महाशीर विलुप्ति की कगार पर पहुंच गई है।

वहीं गंगा डॉल्फिन के संरक्षण में प्रदूषण और बांध बाधा बनकर सामने आ रहे हैं। प्रदूषण, एक्सिडेंटल बायकैच और अवैध शिकार एवं डैम व बराज के चलते नदी का धीमा प्रवाह, जिससे डॉल्फिन के आवास का बड़े पैमाने पर नुकसान होता है। वहीं उभरते खतरों में नदियों पर औद्योगिक जलमार्गों का विकास और नदी को जोड़ने जैसी बुनियादी ढांचा परियोजनाएं शामिल हैं।

मैंग्रोव के जंगल तूफान और तटीय कटाव जैसे प्राकृतिक आपदाओं की वजह से खत्म हो रहे हैं। इनपर प्रदूषण का प्रभाव भी हो रहा है। मैंग्रोव खत्म होने से जैव विविधता को नुकसान होने के साथ-साथ तटीय समुदायों को भी जमीन का कटाव सहित कई तरीकों से नुकसान होता है। रिपोर्ट में सामने आया है कि 1985 से पश्चिम बंगाल स्थित सुंदरबन मैंग्रोव जंगल का 137 वर्ग किमी क्षेत्र नष्ट हो गया है। इससे वहां रहने वाले एक करोड़ लोगों पर इसका सीधा प्रभाव हुआ है।

 

पृथ्वी पर दोहरा खतराः जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता का नुकसान

जैवविविधता का सीधा संबंध मनुष्य के अस्तित्व से है। रिपोर्ट के पहले चैप्टर में टाइन्डल सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज रिसर्च के सर रॉबर्ट वॉटसन लिखते हैं कि जंगल, ग्रासलैंड, वेटलैंड, मैंग्रोव के दलदल और समुद्र हमारी मूलभूत जरूरतें जैसे भोजन, दवाई, ऊर्जा आदि का ख्याल रखते हैं। इनका सीधा संबंध पृथ्वी पर मौसम, वायु की गुणवत्ता, ताजे पानी की मात्रा और गुणवत्ता से होता है।

“बीते पचास वर्षों में पौधों और जलीय जीवों के अत्यधिक दोहन से जैव विविधता को नुकसान हुआ है। पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान ऊर्जा, भोजन और अन्य उपभोग की चीजों की मांग के बढ़ने, तेजी से आर्थिक विकास, जनसंख्या में वृद्धि और अंतरराष्ट्रीय व्यापार की वजह से भी हुआ है,” उन्होंने आगे कहा।

इस रिपोर्ट में पृथ्वी के लगातार गर्म होने को भी एक बड़ी चिंता बताया गया है। औद्योगीकरण से पहले के मुकाबले अब पृथ्वी का औसत तापमान 1.2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया है। नतीजतन, गर्म पानी के 50% कोरल खत्म हो गए हैं। अगर पृथ्वी और 1.5 डिग्री सेल्सियस गर्म होती है तो 70 से 90% कोरल खत्म हो जाएंगे।

भारत के संदर्भ में देखें तो लक्षद्वीप में कोरल पर ग्लोबल वार्मिंग का असर दिख रहा है। लक्षद्वीप की कोरल रीफ या प्रवाल समूह को समुद्र के पानी गर्म होने की वजह से सफेद होते हुए देखा जा रहा है। इसका मतलब प्रवाल भित्तियां बीमार हो रही हैं।

ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिए जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल कम करने की कोशिश हो रही है। भारत सरकार ने वर्ष 2030 तक गैर-जीवाश्म ईंधन से चलने वाले 500 गीगावॉट स्थापित बिजली क्षमता को हासिल करने का लक्ष्य रखा है। हालांकि, इसके उलट देश में कोयले का इस्तेमाल बढ़ रहा है। भारत में ऊर्जा की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए कोयला उत्पादन में लगातार बढ़ोतरी हो रही है।

भारत का कुल कोयला उत्पादन सितंबर 2021 के 51.72 % की तुलना में 12.01% बढ़कर सितंबर, 2022 के दौरान 57.93 मिलियन टन (एमटी) हो गया। भारत विश्व में तीसरा सबसे बड़ा ऊर्जा खपत वाला देश है और यहां विद्युत की मांग में हर साल 4.7 % बढ़ोतरी होती है। कोयला बिजली उत्पादन का प्रमुख स्रोत है। ऐसे में कोयला खनन की वजह से छत्तीसगढ़ स्थित जैवविविधता के केंद्र हसदेव जैसे जंगलों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है।

वॉटसन कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता का नुकसान केवल पर्यावरणीय मुद्दे नहीं हैं, बल्कि आर्थिक, विकास, सुरक्षा और सामाजिक मुद्दे भी हैं जिसे यूनाइटेड नेशन की 17 टिकाऊ विकास के लक्ष्यों के साथ देखना चाहिए।

“लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट 2022 से पता चलता है कि कैसे जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता का नुकसान न केवल पर्यावरणीय मुद्दे हैं बल्कि आर्थिक, विकास, सुरक्षा और सामाजिक मुद्दे भी हैं,” डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इंडिया के महासचिव और सीईओ रवि सिंह ने कहा।

उन्होंने भारत के लिहाज से रिपोर्ट के महत्व पर कहा, “भारत में जलवायु परिवर्तन जल संसाधन, कृषि, प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र, स्वास्थ्य और खाद्य श्रृंखला जैसे प्रमुख क्षेत्रों को प्रभावित करेगा। हमें एक समावेशी सामूहिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है।”

हमारे अस्तित्व के लिए क्यों जरूरी है जल, जंगल और जलवायु

डब्लूडब्लूएफ के स्टेफ़नी रो और वर्जीनिया विश्वविद्यालय की डेबोरा लॉरेंस ने रिपोर्ट में जल, जंगल, जलवायु और भोजन के आपसी संबंधों पर विश्लेषण किया है। उनके मुताबिक जंगल बारिश को निर्धारित करते हैं जिससे सीधे तौर पर हमारी खेती जुड़ी हुई है। बारिश की मदद से विश्व में 80% खेत सिंचित होते हैं और विश्व भर के कुल भोजन उत्पादन का 60% बारिश की मदद से ही होता है।

जंगल वातावरण से कार्बन का अवशोषण भी करते हैं जो कि ग्लोबल वार्मिंग का एक प्रमुख कारक है। वर्ष 2001 से 2019 तक जंगलों ने हर साल 7.6 गीगाटन कार्बन अवशोषित किया है जो कि मानव गतिविधि से पैदा हुए कुल कार्बन का 18% है। जंगल पृथ्वी को 0.5 डिग्री सेल्सियस तक ठंडा रखने में भी मदद करते हैं। इन सब लाभों के बावजूद हर साल पृथ्वी से लगभग एक लाख हेक्टेयर जंगल खत्म हो रहे हैं।

समस्याओं का समाधान है नेचर-पॉजिटिव सोसायटी

रिपोर्ट का तर्क है कि संरक्षण की कोशिशों को और तेज कर और जो नुकसान हो चुका है उसे दुरुस्त कर स्थितियां ठीक की जा सकती हैं। भोजन उत्पादन का टिकाऊ तरीका और उपभोग को प्रकृति आधारित बनाना पृथ्वी को सेहतमंद बना सकता है। अर्थव्यवस्था को न सिर्फ मौद्रिक बल्कि प्रकृति के प्रति संवेदनशील करने की जरूरत है।

रिपोर्ट में सभी क्षेत्र में डिकार्बेनाइजेशन यानी कार्बन मुक्त करने को भी समाधान के तौर पर शामिल किया गया है। इसके लेखक नीति निर्माताओं से अर्थव्यवस्थाओं को बदलने का आह्वान करते हैं ताकि प्राकृतिक संसाधनों का उचित मूल्यांकन किया जा सके।

डिकार्बेनाइजेशन को लेकर भारत में कई कोशिशें हो रही हैं। पेरिस संधि के अंतर्गत भारत को उर्त्सजन सघनता 2005 के स्‍तर से 2030 तक अपने GDP का 30-35% तक घटानी है। भारत सरकार ने हाल ही में नेशनल ग्रीन हाइड्रोजन पॉलिसी को अधिसूचित किया है। इस नीति के तहत वर्ष 2030 तक पचास लाख टन (पांच मिलियन टन) ग्रीन हाइड्रोजन उत्पादन करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। हाल ही में भारत सरकार ने घोषणा की है कि देश 2070 तक वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों में अपना योगदान शून्य कर लेगा।

रिपोर्ट में जंगलों के विखंडन को रोकना भी एक समाधान के रूप में शामिल है। रिपोर्ट के मुताबिक वन्यजीवों का आवास विखंडित होना या एक दूसरे से अलग-थलग होना एक बड़ी समस्या है। इसका मतलब वन्यजीव एक जंगल से दूसरे जंगल के बीच विचरण नहीं कर सकते। जंगलों को आपस में जोड़ना इसका एक उपाय हो सकता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस समय दुनिया के मात्र 10% संरक्षित जंगल आपस में जुड़े हुए हैं। इन संरक्षित क्षेत्रों को जोड़ने वाले दो-तिहाई महत्वपूर्ण संपर्क क्षेत्र या गलियारे संरक्षित नहीं हैं।

समुद्र के आसपास रहने वाले समुदायों की सुरक्षा के लिए मैंग्रोव लगाने के एक समाधान के तौर पर रिपोर्ट में शामिल किया गया है। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के लिए मैंग्रोव एक प्रमुख प्रकृति-आधारित समाधान हैं। 

भारत में मैंग्रोव बचाने 

के कई उदाहरण दिखते हैं। सुंदरबन के झरखाली गांव की महिलाओं ने चक्रवात के असर को कम करने के लिए मैंग्रोव लगाना शुरू किया है और अपने उद्देश्य में सफलता पाई है। इन महिलाओं का नेतृत्व अकुल बिस्वास कर रहे हैं जो अपनी आंखों से देख नहीं सकते।

देशज या पारम्परिक ज्ञान भी इन समस्याओं का समाधान हो सकता है। ब्रिटिश कोलंबिया यूनिवर्सिटी की सेंटर फॉर इंडिजिनियस फिशरीज से जुड़ी एंड्रिया रीड ने रिपोर्ट कहा कि लोगों को प्रकृति से दूर रखकर संरक्षण की कोशिशें नाकाम हो रही है। उन्होंने मछली पकड़ने से जुड़े पारंपरिक ज्ञान का जिक्र किया, जिसमें लोग न सिर्फ नदी का संरक्षण करते हैं बल्कि मछली पकड़ना उनकी संस्कृति और भाषा को समृद्ध करती है।  

रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्लोबल सप्लाई चेन यानी वैश्विक आपूर्ति की श्रृंखला का भी प्रकृति पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसके सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों के लिए अंतर्राष्ट्रीय व्यापार प्रणाली को सुधारने की जरूरत है ताकि जैव विविधता को कम से कम हानि हो।

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