यह आजादी का 75 वां वर्ष है। सरकार की ओर से देश भर में इसे आजादी का अमृत महोत्सव के रूप में मनाया जा रहा है। पर महत्वपूर्ण सवाल यह है कि आखिर आजादी के बाद के इतने वर्षों में हम कहां पहुंचे ? भारतीय संविधान ने वैज्ञानिक मानसिकता के विकास को नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों में शामिल किया है। यह 21 वीं सदी का दौर है तथा कई विसंगतियों विकृतियों के बावजूद देश में विज्ञान-तकनीक ने उल्लेखनीय प्रगति की है। बावजूद इसके देश की काफी बड़ी आबादी अब भी मानसिक संकीर्णता, कट्टरता, धर्मांधता एवं अंधविश्वास के मकड़जाल में उलझी हुई है। कुछ पढ़े-लिखे लोग भी रूढ़ परम्पराओं, मूढ़ मान्यताओं, कुरीति एवं पाखंड के चंगुल में फंसे हैं। लोगों के अधकचरे, आधे-अधूरे ज्ञान से भी समाज में अंततः अंधविश्वास को ही बढ़ावा मिलता है।


प्रस्तुत है इसी मुद्दे पर केंद्रित  डॉ रणबीर सिंह दहिया का यह आलेख –

हमारे देश में और खास कर हरियाणा में अधखबड़े, यानी आधे अधूरे मनुष्यों  की बाढ़ सी  आती दिखाई देती हैं। कुछ साल पहले गणेश की मूर्तियों ने दूध पीना शुरू किया । देश के महानगरों में और विदेशों में यह खबर जंगल की आग की तरह फैल गई। भौतिक प्रयोगशाला का एक साइंसदान भी दूध पिलाने वालों की भीड़ में खड़ा पाया गया। कुछ साल पहले बम्बई के मशहूर टाटा इन्स्टीट्यूट ऑफ फण्डामेंटल रिसर्च के एक माने हुए खगोल शास्त्री के बारे में चर्चा थी कि वो ग्रहण लगने के वक्त नहाने का पाखण्ड किया करते।

अगर ऐसे  अंधविश्वासी साइंस दान देश में वैज्ञानिक नजरिए की एक धुरी हैं तो दूसरे छोर पर वो मोची है जिसने टी.वी. पर ये साबित कर दिया था कि उसका तीन टांगों वाला औजार भी गणेश की तरह दूध पी सकता है । इस बात से एक बात तो साफ उभर कर आती है कि हमारे देश में वैज्ञानिक शिक्षा और वैज्ञानिक सोच में कोई सीधा रिश्ता नहीं है। कोई जमाना था जब शिक्षा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण एक प्रक्रिया का हिस्सा थे। मतलब आधुनिकता का हिस्सा थे।

पढ़े- लिखे लोग अंध विश्वासों से अपनी मुक्ति को अनपढ़ों के मुकाबले में अपनी श्रेष्ठता का कारण बताते घूमा करते। पर आज वो बातें नहीं  रह गई हैं । कई लोग वैज्ञानिक दृष्टिकोण को कुदरत और व्यक्तिगत जिन्दगी तक ही लागू करते हैं पर समाज के प्रति उनके दृष्टिकोण को वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण का हिस्सा नहीं मानते। बस यही अध खबड़ापन यानी आधा अधूरापन है उनका कि वे विज्ञान के नजरिए को समाज से अलग करके रखते हैं ।

हमारी आज की संस्कृति ने एक अधखबड़ा इंसान तैयार करने का ठेका सा उठा रखा है। यह अधखबड़ा इंसान एक तरफ तो विचारशील होता है, वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी होता है उसका, वैज्ञानिकों वाले काम भी सारे करता है पर दूसरी तरफ वो विवेकहीन भी है और अवैज्ञानिकता का शिकार भी है। और यह बात हरियाणे में तो हर शहर और गांव में  दिखाई देती है पर ऐसे अधखबड़े इंसान सारी दुनियां में हैं।

एक डॉक्टर (अधखबड़ा इंसान ) मरीज का ऑपरेशन करके यह कहेगा कि ले हमको तो जो करना था सो कर दिया,अब बाकी ऊपर वाला जाने। मास्टर जी स्कूल में तो बालकों को पढ़ाएंगे कि बरसात बादलों से होती है और घर आकर अड़ कर बैठ जाएंगे कि बरसात हवन करने से होती है। बताओ ऐसे मास्टर बालकों में कैसा वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा करेंगें ? इन अधखबड़े लोगों ने ब्रूनो नाम के साइंसदान यानी वैज्ञानिक को जिन्दा जला दिया था। ब्रूनो का कसूर इतना ही था कि उसने एक सच्चाई दुनिया के सामने लानी चाही थी कि हमारी धरती सूरज के चारों तरफ घूमती है।

इससे पहले दुनियां ये मानती थी कि हमारा सूरज हमारी धरती के चारों तरफ घूमता है। आज जब जमाना इतना आगे बढ़ गया, विज्ञान ने इतनी तरक्की करली तो भी इन अधखबड़े इंसानों ने राजस्थान में भंवरी बाई के साथ सामूहिक बलात्कार किया। उसका कसूर इतना ही था कि उसने बाल विवाह का विरोध किया था। पता नहीं हमारे संविधान (जिसमें बाल विवाह कानूनन जुर्म माना गया है) के रखवाले भंवरी बाई को बचाने क्यूं नहीं आए। उल्टा बलात्कारियों के पाले में जा खड़े हुए। और भी कई कारण रहे होंगे इसके, पर मुझे लगता है कि ये अधखबड़े लोग थे और उनकी अधखबड़ी सोच थी जिसने भंवरी बाई को न्याय नहीं मिलने दिया।

हमारे समाज को, हमारी मानवता को, इन्सानियत को अगर सबसे ज्यादा खतरा किसी से है तो इस अधखबड़े इंसान से है इसकी अधखबड़ी सोच से है और उस समाज व्यवस्था से है जिसने ये अधखबड़े इंसान बनाने के बड़े बड़े कारखाने लगा रखे हैं।

डॉ रणबीर सिंह दहिया,
अध्यक्ष, हरियाणा ज्ञान विज्ञान समिति, हरियाणा

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