चिकित्सा का सफल व्यवसाय छोड़ मैं अंधश्रद्धा निर्मूलन का कार्यकर्ता बना : डा. नरेंद्र दाभोलकर

मैंने सन्‌ 1970 में अपनी एमबीबीएस की डिग्री प्राप्त की। सन्‌ 1982 तक मैंने एक अस्पताल व दो क्लिनिक चलाई । सन्‌ 1982 में मैंने अपनी दोनों क्लिनिक व अस्पताल बंद कद दिए और तभी से मैं अंधश्रद्धा निर्मूलन आंदोलन का पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गया। जब से मैंने अपना चिकित्सक का सफल व्यवसाय छोड़ा और अंधश्रद्धा निर्मूलन का पूर्णकालिक कार्यकर्ता बना, तभी से लोगों ने मुझसे एक प्रश्न किया है और अभी भी कर रहे हैं । डॉक्टर, अंध आस्था व अंधविश्वासों के खिलाफ लड़ाई के लिए क्या यह जरूरी था कि आप अपना सफल व्यवसाय छोड़ दें। उत्तर है हां, यह जरूरी था, और यह जरूरी है।

वह जरूरी क्यों है ? ध्यान दें-यदि एक अंधेरे कमरे में मोमबत्ती जला दें तो कमरे में उजाला हो जाएगा, एक गैस लाइट जला दी जाए तो उजाला बढ़ जाएगा, ट्यूबलाइट और ज्यादा उजाला देगी, यदि दिन निकलता है और सूर्य उदय होता है और सूर्य किरणें चारों ओर फैलती हैं तो अंधेरा छट जाएगा। जिस अनुपात में प्रकाश आएगा उतना ही अंधेरा पीछे हटता जाएगा। मानव समाज में जिस अनुपात में शिक्षा व विज्ञान के विकास की रोशनी बढ़ती जाती है, उसी अनुपात में अंधविश्वास व अज्ञानता रूपी अंधेरा छटता जाता है | इससे ज्यादा जरूरी कुछ और करना नहीं है-हो सकता है सवाल करने वाले लोगों के दिमागों में यही विश्वास हो। यदि वास्तव में ऐसा हो जाता है तो मैं सर्वाधिक प्रसन्न व्यक्ति हूंगा। लेकिन वास्तविकता है क्या ? मैं केवल दो उदाहरण दूंगा। प्रथम रेलगाड़ी सन्‌ 853 में मुंबई से थाने के बीच दौड़ी।

इससे पहले तो भारत के लोगों के लिए यह सम्भव ही नहीं था कि बिना घोड़ों, बैलों, हाथी या अन्य पशुओं की ताकत के बिना एक साथ हजारों मनुष्य एक ही वाहन में इधर से उधर यातायात करें। उस समय स्कूलों में यह गीत गाया जाता था (साहेवाचा पोरा ला अकली रा-विन बलाची गाड़ी काशी हकली रा ?) साहब का बेटा वास्तव में चुस्त है, प्यारे। देखो कैसे बिना बैलों के छकड़ा जा रहा है, प्यारे। उस समय थाने से मुम्बई जाने में छकड़े से 24 घंटे लगते थे। तुलनात्मक रूप में रेलवे बहुत महत्वपूर्ण तथा लाभप्रद साधन था। शुरू में इस यात्रा का कोई टिकट नहीं था। इसके बजाय शुरू में साहब इस यात्रा के लिए एक रूपया और देते थे। यह इसलिए कि लोग गाड़ी में बैठने के इच्छुक नहीं थे। वे गाड़ी को एक प्रकार की जादुई चुड़ैल समझते थे । गोरे हमें गाड़ी से मुंबई ले जाएंगे। वहां वे इमारते बना रहे हैं । वे हमें वहां मार कर इन इमारतों की नीवं में दफना देंगे। लोगों, सावधन गाड़ी में मत जाना, उस समय इस प्रकार की घोषणाएं जारी की गई थी।

वे एक रुपया इसलिए देते थे कि लोग गाड़ी में बैठने के इच्छुक हो जाएं। उस समय एक रुपया बड़ी राशी थी। जब लोग धीरे-धीरे बैठना शुरू हो गए, इनाम की राशी घटा कर आठ आना कर दी गई । बाद में चार आना की गई । बाद में यह मुफ़्त की गई और बाद में गाड़ी की यात्रा के लिए टिकट लेना शुरू हो गया । लेकिन उस समय भी गाड़ी को काला जादू ही समझा जाता था। गाड़ी मुंबई से थाने या थाने से मुंबई चलती इससे पहले पत्नियां आ कर इंजन पर कुमकुम व हल्दी चढ़ाती, उस पर नींबू व मिर्चे बांधती या उलटी गुड़िया लटकाती । जब मैं यह सुना रहा हूं तो आप में से कुछ चेहरों पर मुस्कान देखता हूं। लेकिन सच बताओ, हम आज भी जब अपने घर में बाइक या गाड़ी पहली बार लाते हैं तो क्या ऐसा ही नहीं करते ? इसका अर्थ है, हम विज्ञान का लाभ तो लेना चाहते हैं लेकिन विजन नहीं । हम विज्ञान के उत्पादों को तो लेते हैं लेकिन वैज्ञानिक नजरिया नहीं अपनाते।

कुछ समय पूर्व हमने पूने में बीस हजार रिक्शा वालों पर एक सर्वेक्षण किया। हर अमावस पर अठारह हजार रिक्शाओं पर एक नींबू व काली गुड़िया लटका दी। सभी जानते हैं कि नींबू विटामिन सी का एक अच्छा स्रोत है। हम हमारे देश में पोषक तत्वों की बहुत कमी झेल रहे हैं ।॥ फिर भी अठारह हजार पोषक तत्व हम हर मास व्यर्थ कर देते हैं। क्या हमने कभी स्वयं से प्रश्न किया है- वर्ष पुरानी वे कौन सी चीजे हैं, जिन्हें हम आज अपना रहे हैं। 50 वर्ष पुराने कपड़े नहीं पहनते। हम 50 वर्ष पीछे का भोजन नहीं खाते। फिर क्यों हम 50 वर्ष पहले की नींबू-मिर्च व काली गुड़िया अपनाते हैं ? हम इन्हें इसलिए रखे हुए हैं कि हमने विज्ञान का प्रयोग भले ही सीख लिया हो, लेकिन हमने वैज्ञानिक नजरिया नहीं सीखा है।

इन मामलों को जितना हम समझते हैं, उससे ज्यादा गम्भीरता से लेने की जरूरत है। मैं अपने अभियान का एक उदाहरण देता हूं। हाल ही में सत्य साई बाबा गुजर गए। सत्य साई बाबा प्राय: कहते थे-‘ मेरा चमत्कार ही मेरे आगमन का सूचक है।’ उस सर्वशक्तिमान ने मुझे चमत्कार करने की ताकत दी है। इससे आपको तसल्ली हो जानी चाहिए कि उसी ने आपके उत्थान के लिए मुझे भेजा है। इसलिए यदि आप सत्य साई बाबा के पास जाएं. तो हवा में हाथ घुमाएगा और पवित्र भभूत आपकी हथेली पर रख देगा; हवा में हाथ घुमाएगा और सोने या चांदी की अंगूठी पैदा कर देगा, और ऐसी अनेक कहानियां हैं कि उसने हवा में हाथ घुमाया और आगंतुकों को सोने व हीरे के हार उपहार में दिएख। असल बात यह है कि जब आप जैसा साधारण व्यक्ति उसके पास जाता है तो उसे पवित्र भभूत ही मिलती है । यदि वह एक एमएलए या एमपी हो तो उसे सोने या चांदी की अंगूठी मिलती है। एक राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या धनाढ्य व्यक्ति उससे मिलने जाते हैं या उनके बच्चे हों तो वे सोने की जंजीर पाते हैं | यहां तक कि बाबा उनकी हैसियत के हिसाब से उनको देता है । हम तो पवित्र भभूत के लायक ही हैं, आखिर भभूत तो भभूत ही है। जब वह बाबा के हाथ से निकलती है तो वह विभूति या अंगारा बन जाती है, जो भी है।

यह जीवित ही था, उसे जिला लातुर गांव चाकुर में आना था जहां उसके लिए एक बड़ा मंदिर बनाया जाना था। उसी समय हम लातुर में अंधविश्वास व फ्राड के विरुद्ध अभियान चला रहे थे। मैं स्कूलों व कालेजों में जाकर यही कहता था कि मैं उसी तरह सार्वजनिक भाषण देता हूं। जिस दिन सत्य साई बाबा चाकुर आए वह महाराष्ट्र असेम्बली का पहला दिन था। सच में उसी दिन मुख्यमंत्री बिलासराव देशमुख को असेम्बली में उपस्थित रहना था, लेकिन इसकी बजाय वे सत्य साई बाबा के दर्शनार्थ चातुर आए वहां लोगों की भारी भीड़ थी। हमारी टीम वहां धरने के लिए जा रही थी। इसलिए 48 घंटे पहले ही लातुर, बीड़ और नांदेड़ में पुलिस ने हमारे सभी कार्यकर्ताओं को रोक लिया। कार्यक्रम शुरू हुआ और सत्य साई बाबा ने अपना भाषण दिया। भाषण के पांच मिनट बाद वह एक क्षण रुका, उसने अपना बायां हाथ हवा में घुमाया और एक सोने की चैन पैदा की जो उन्होंने मुख्यमंत्री के छोटे भाई दिलीप राव देशमुख को भेंट की । वह आज तक इसे अपने गले में डाले हुए हैं । उसने बीस मिनट फिर अपना भाषण जारी रखा और अचानक एक क्षण के लिए रुका। उसने दायां हाथ हवा में घुमाया और दूसरी सोने की चैन पैदा की जो उसने मुख्यमंत्री विलास राव देशमुख को भेंट की। (यह आज तक उसके गले में है) | जैसे ही उसने अपना भाषण समाप्त किया, उसने अपना हाथ हवा में घुमाया और भभूत पैदा की जिसे उसने वहां एकत्र नर-नारियों में बांट दिया। जो हम कह रहे थे यह उसका प्रत्यक्ष था (याची देही, याची डोला) वहां एकत्र सभी लोगों ने कहा।

यह कहानी जो मैंने आपको सुनाई है अपनी पुस्तक में कही है। ‘अंध आस्था एवं अंधविश्वास के खिलाफ लड़ाई ‘ (लड़े अंधा श्रद्धा से) | लेकिन असली मजाक आगे है । मुझे एक बार महाराष्ट्र राज्य के संस्कृति सचिव श्री पटेल का एक पत्र मिला। इसमें क्या लिखा था ?-‘ आपको बताते हुए हमें खुशी है कि आपकी पुस्तक “लड़े अंधाश्रद्धा से ‘ उत्कृष्ट साहित्य पुरस्कार “क्रान्ति सिंह नाना पाटिल’ के लिए महाराष्ट्र सरकार द्वारा चयनित की गई है। आप से अनुरोध है कि आप मुख्यमंत्री के हाथों पुरस्कार ग्रहण के लिए 25 नवंबर को औरंगाबाद आ जाएं। मुख्यमंत्री को मेरा उत्तर मेरी पुस्तक ‘ऐसे कैसे झाले भोंदू’ में प्रकाशित है। अन्य बातों के इलावा इस पक्ष में मैंने एक महत्त्वपूर्ण पंक्ति लिखी है-‘मैं ऐसे मुख्यमंत्री के हाथों ईनाम नहीं लेना चाहता जो भारतीय संविधान के अन्तर्गत कार्य नहीं करता’। मैं इतना अभिमानी भी नहीं हूं कि जो मेरी प्रशंसा करें उन्हें मैं कहूं “जाने दो मुझे आपकी प्रशंसा नहीं चाहिए।’

मैंने यह पत्र क्यों लिखा ? कारण यह है कि 25 जनवरी 950 को जो संविधान मुझे मिला, उसमें मेरे भारतीय होने के अधिकार शामिल हैं। मुझे चलने-फिरने की आजादी है। मैं देश में कहीं भी आ-जा सकता हूं। मुझे अभव्यक्ति की आजादी है । मैं जो चाहे कह सकता हूं। मुझे सम्पत्ति रखने का अधिकार है मैं सम्पत्ति खरीद सकता हूं। लेकिन जैसे एक बच्चा घर में बड़ा होता है तो हम उसे बताते हैं, आपके अधिकार हैं लेकिन आपको जिम्मेवारियां भी लेनी हैं, इसी प्रकार सन्‌ 1976 में संविधान में एक नागरिक के कर्त्तव्य जोड़े गए। इनमें एक मौलिक कर्त्तव्य है-‘ हर भारतीय नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वैज्ञानिक मानसिकता विकसित करे । इसका अर्थ है कि हर भारतीय नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह वैज्ञानिक नजरिया अपनाए, सोचे, विकसित करे व प्रसार करे। ध्यान रहे नागरिकों से यह नहीं कहा गया है कि वे चाहे तो वैज्ञानिक नजरिया अपनाए, विकसित करे या प्रसार करें । यह उनका कर्त्तव्य है । ऐसे ही सन्‌ 1987 में देश में नई शिक्षा नीति नहीं अपनाई थी। इस शिक्षा नीति में एक महत्त्वपूर्ण केन्द्रिय लक्ष्य इस प्रकार परिभाषित है-‘ वैज्ञानिक नजरिए का विकास ‘। महाराष्ट्र में मूल्यों की शिक्षा दी जाती है। स्कूल स्तर की मूल्य शिक्षा में यह बात शामिल है-‘ वैज्ञानिक नजरिए का पोषण करें।’

वैज्ञानिक मानसिकता

मूल भाषण : डॉ. नरेंद्र डाभोलकर
अंग्रेजी अनुवाद : डॉ. विवेक मोंटेरियो
हिन्दी अनुवाद : वेदप्रिय

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