कोरोना महामारी के दौरान वैश्विक स्तर पर लोगों को भारी नुकसान हुआ. लाखों लोगों को अपनी नौकरी गंवानी पड़ी. सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे के मुतािबक, 37% लाेगों को छह महीने से एक साल तक घर बैठना पड़ा. 4.1 लाख लोगों पर जुलाई 2020 से जून 2021 के बीच किए गए सर्वे में ये आंकड़े सामने आए हैं. आंकड़ें बताते हैं कि यह दौर लोगों के लिए काफी मुश्किल रहा. 24 प्रतिशत लोगों को 1-2 वर्ष तक नौकरी की तलाश में भटकना पड़ा .
आंकड़ों के अनुसार जुलाई 2020 से जून 2021 के बीच 15% लोगों को 6 महीने से कम, 37% को 6 माह से एक साल, 23.9% को 1-2 साल, 11% को 2-3 साल व 13% को 3 साल से ज्यादा बेरोजगार रहना पड़ा. तीन साल से ज्यादा बेरोजगार रहने वालों में महिलाओं का औसत 16.5% व पुरुषों का 12% रहा. आंकड़ों में 6 माह से एक साल तक बेरोजगार रहने वालों में पुरुष ज्यादा थे.
महामारी तो पूर्ण रूप से खत्म नहीं हुई. मगर लोगों ने महामारी के बीच रहना सीख लिया. महामारी और महामारी से हुए नुकसान से उबरने के क्रम में लोगों ने पुनः नौकरी पाने की दिशा में कदम बढ़ाए. आंकड़ें बताते हैं कि नौकरी लेने के मामले में पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने तेजी से कदम आगे बढ़ाए हैं. पिछले चार साल के पीएलएफएस की तुलना करें तो कामकाजी पुरुषों का औसत महज 3% और महिलाओं का 7% से ज्यादा बढ़ा है. 2017-18 में 16.5% महिलाएं व 52% पुरुष जॉब में थे. 2020-21 में महिलाएं 24% व पुरुष 54.9% तक बढ़े.
आंकड़ों के अनुसार, साल 2017 से 2021 के बीच 15 से 29 आयुवर्ग में महिला कर्मचारी 5% और पुरुष 4% तक ही बढ़े हैं. लेकिन 15 और उससे ऊपर के आयुवर्ग में महिलाएं 11.4% बढ़ गईं, पुरुष 2% ही बढ़ पाए. गांवों में नौकरी करने वाले ज्यादा बढ़े हैं. 2017-18 के दौरान गांवों में 35% व शहरों में 33.9% कामगार थे, 2020-21 में गांवों में 41%, शहरों में 36% हो गए. अगर जाति के आधार पर नौकरियों को देखें तो चौंकने वाली तस्वीर नजर आती है. सबसे पिछले माने जाने वाले आदिवासी वर्ग के लोग जॉब पाने में सबसे आगे रहे. 2017-18 के दौरान वर्कफोर्स में आबादी के लिहाज से इनकी हिस्सेदारी 40% थी, जो 2020-21 में 47.9% हो गई यानी 8% बढ़ी. एससी-ओबीसी 5-5% ही बढ़े हैं.
2017-18 में कामकाजी एसटी पुुरुष 53.4% थे, जो 2020-21 में 56.5% तक ही पहुंच पाए पर महिलाएं 25.9% से बढ़कर 39.1% हो गईं. 2017-18 से 2020-21 के बीच कामकाजी एससी 35.2% से बढ़कर 40.2%, ओबीसी 34% से 39.2% और अन्य 33.5% से 37.6% तक पहुंच गए. 4 साल में कुल आंकड़ा 34.7% के मुकाबले 39.8% हो गया. सर्वेक्षण में 1,00,344 परिवारों को शामिल किया गया। इसमें ग्रामीण क्षेत्रों में 55,389 और शहरी क्षेत्रों में 44,955 परिवार शामिल हैं। कुल मिलाकर सर्वेक्षण में 4,10,818 लोग (2,36,279 ग्रामीण क्षेत्रों में तथा 1,74,539 शहरी क्षेत्रों में) शामिल हुए।
आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण के बारे में
MOSPI द्वारा आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (Periodic Labor Force Survey) आयोजित किया जाता है, जिसका उद्देश्य ‘वर्तमान साप्ताहिक’ में शहरी क्षेत्रों के लिए तीन महीने के छोटे अंतराल में श्रम बल भागीदारी दर, श्रमिक जनसंख्या अनुपात और बेरोजगारी दर जैसे प्रमुख रोजगार और बेरोजगारी संकेतकों का असेसमेंट करना है।
बेरोज़गारी से निपटने हेतु सरकार की पहल :
- “स्माइल- आजीविका और उद्यम के लिये सीमांत व्यक्तियों हेतु समर्थन” (Support for Marginalized Individuals for Livelihood and Enterprise-SMILE)
- पीएम-दक्ष (प्रधानमंत्री दक्ष और कुशल संपन्न हितग्राही) योजना
- महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (MGNREGA)
- प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना (PMKVY)
- स्टार्टअप इंडिया योजना
भारत में बेरोजगारी के प्रकार :
- प्रच्छन्न बेरोज़गारी: यह एक ऐसी घटना है जिसमें वास्तव में आवश्यकता से अधिक लोगों को रोज़गार दिया जाता है। यह मुख्य रूप से भारत के कृषि और असंगठित क्षेत्रों में व्याप्त है।
- मौसमी बेरोज़गारी: यह एक प्रकार की बेरोज़गारी है, जो वर्ष के कुछ निश्चित मौसमों के दौरान देखी जाती है। भारत में खेतिहर मज़दूरों के पास वर्ष भर काफी कम कार्य होता है।
- संरचनात्मक बेरोज़गारी: यह बाज़ार में उपलब्ध नौकरियों और श्रमिकों के कौशल के बीच असंतुलन होने से उत्पन्न बेरोज़गारी की एक श्रेणी है। भारत में बहुत से लोगों को आवश्यक कौशल की कमी के कारण नौकरी नहीं मिलती है तथा शिक्षा के खराब स्तर के कारण उन्हें प्रशिक्षित करना मुश्किल हो जाता है।
- चक्रीय बेरोज़गारी: यह व्यापार चक्र का परिणाम है, जहाँ मंदी के दौरान बेरोज़गारी बढ़ती है और आर्थिक विकास के साथ घटती है। भारत में चक्रीय बेरोज़गारी के आँकड़े नगण्य हैं। यह एक ऐसी घटना है जो अधिकतर पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में पाई जाती है।
- तकनीकी बेरोज़गारी: यह प्रौद्योगिकी में बदलाव के कारण नौकरियों का नुकसान है। वर्ष 2016 में विश्व बैंक के आँकड़ों ने भविष्यवाणी की थी कि भारत में ऑटोमेशन से खतरे में पड़ी नौकरियों का अनुपात वर्ष-दर-वर्ष 69% है।
- घर्षण बेरोज़गारी: घर्षण बेरोज़गारी का आशय ऐसी स्थिति से है, जब कोई व्यक्ति नई नौकरी की तलाश या नौकरियों के बीच स्विच कर रहा होता है, तो यह नौकरियों के बीच समय अंतराल को संदर्भित करती है दूसरे शब्दों में एक कर्मचारी को नई नौकरी खोजने या नई नौकरी में स्थानांतरित करने के लिये समय की आवश्यकता होती है, यह अपरिहार्य समय की देरी घर्षण बेरोज़गारी का कारण बनती है। इसे अक्सर स्वैच्छिक बेरोज़गारी के रूप में माना जाता है क्योंकि यह नौकरी की कमी के कारण नहीं होता है, बल्कि वास्तव में बेहतर अवसरों की तलाश में श्रमिक स्वयं अपनी नौकरी छोड़ देते हैं।
- सुभेद्य रोज़गार: इसका अर्थ है, अनौपचारिक रूप से काम करने वाले लोग,बिना उचित नौकरी अनुबंध के और बिना किसी कानूनी सुरक्षा के। इन व्यक्तियों को ‘बेरोजगार’ माना जाता है क्योंकि उनके काम का रिकॉर्ड कभी नहीं रखा जाता है। यह भारत में बेरोज़गारी के मुख्य प्रकारों में से एक है।