19वीं शताब्दी के अन्त में तथा 20वी शताब्दी के शुरूआत में विज्ञान की हर शाखा में नये नये परिवर्तन हो रहे थे. क्वांटम भौतिकी और सापेक्षवाद के सामान्य सिद्धांत ने पूरे ब्रह्मांड के बारे में सोच बदल दिया वहीं डारविन के विकासवाद का सिद्धांत जीवों की उत्पत्ति के बारे नई विचार आया. भौतिकी में विचारों की हालत ये थी जो आज सही है वह कल गलत हो जाता था. ब्रह्मांड, तारों, ग्रहों की उत्पत्ति के बारे में नई नई मान्यतायें आने लगे. भला इन परिवर्तनों से टैगोर जैसे विश्व के सर्वोत्कृष्ट कवि दार्शनिक कैसे इन बातों से अछूते रह सकते थे जो गहन तार्किक विचारों के लिये जाने जाते हैं. टैगोर पूरी जिन्दगी मानवीय मस्तिष्क की हर संभव संकीर्णता से मुक्ति के लिए प्रयासरत रहे. एक जगह वह कहते हैं,

   

 

मैं कोई वैज्ञानिक नहीं हूं परन्तु बचपन से ही विज्ञान की रस का आस्वादन करने में मेरे लोभ का अन्त नहीं था.”

इसी जिज्ञासा के तहत वह आचार्य जगदीश चन्द्र बोस, आइंस्टीन और अनिश्चतता के सिद्धांत के प्रतिपादक हाइजेनवर्ग से बातचीत की जो मानवता के समक्ष एक नयी विचार लेकर आता है. इसी बातचीत का परिणाम था कि वह प्रकृति की एक नई उपनिषदीय व्याख्या लेकर आये और ‘मनुष्य का धर्म’ को लिखा जो कई लेखों का संग्रह है.

बचपन के दिनों में अपने शिक्षक सीताराम दत्त और हिमालय पर स्थित डलहौजी के पहाड़ों पर अपने पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ की बातों को सुनकर उन्हें विज्ञान खासकर खगोल विज्ञान और जीव विज्ञान के प्रति आकर्षण पैदा हुआ. बहुत कम उम्र में वह भौतिक विज्ञान के पिता रावर्ट बायल की पुस्तक तथा आलडस हक्सले की जीवविज्ञान पर लेखों को पढ़ गये. फिर इन्हीं अनुभवों के याद करते हुए उन्होंने विज्ञान पर एक पुस्तक लिखी जिसका नाम था विश्व परिचय. टैगौर इस पुस्तक के प्रस्तावना में इस पुस्तक को लिखने के पीछे उद्देश्य का वर्णन इन शब्दों में करते हैं,

“बड़े वन में वृक्षों के नीचे सूखे पत्ते अपने आप गिर पड़ते हैं और मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं. जिन देशों में विज्ञान की चर्चा होती है वहां ज्ञान के टुकड़े टूट टूटकर निरंतर विखरते रहते हैं. इससे वहां की चित्तभूमि में उर्वरता का जीव धर्म जाग उठा करता है .उसी के अभाव में हमलोगों का मन अवैज्ञानिक हो गया है. यह दीनता केवल विद्या विभाग में नहीं, कार्यक्षेत्र में हमलोगों को अकृतार्थ कर रही है.”

वह जितना वैज्ञानिक चेतना के प्रति होकर ही इस पुस्तक को लिखा. इस पुस्तक को लिखने के पीछे अपने मनोभाव को इसी प्रस्तावना में बतलाते हैं, “विश्व-जगत् ने अपने अति छोटे पदार्थों को छिपा रखा है और अत्यन्त बड़े पदार्थों को छोटा बनाकर हमारे सामने उपस्थित किया है अथवा नेपथ्य में हटा रखा है. उसने अपने चेहरे को इस प्रकार सजाकर हमारे सामने रखा है कि मनुष्य उसे अपनी सहज बुद्धि के फ्रेम में बैठा सके. किन्तु मनुष्य और चाहे जो कुछ भी हो, सहज मनुष्य नहीं है. वही एक ऐसा जीव है जिसने अपने सहज बोध को ही संदेह के साथ देखा है, उसका प्रतिवाद किया है और हार मानने पर ही प्रसन्न हुआ है. मनुष्य ने सहज शक्ति की सीमा पार करने की साधना के द्वारा दूर को निकट बनाया है, अदृश्य को प्रत्यक्ष किया है और दुबेधि को भाषा दी है प्रकाशलोक के अन्तराल में जो अप्रकाश लोक है, उसी गहन में प्रवेश करके मनुष्य ने विश्व-व्यापार के मूल रहस्य को निरन्तर उद्घाटित किया है.”

प्रख्यात आलोचक और साहित्यकार व्योमकेश दरवेश यानि हजारी प्रसाद द्विवेदी इस पुस्तक के अनुवादक थे. प्रस्तुत पुस्तक अपने समय के प्रख्यात भौतिकविद सत्येन्द्र नाथ बोस को समर्पित किया गया. कहा जाता है कि बोस अपने समय उन तीन भौतिकविदों में थे जो आइंस्टीन की सामान्य सापेक्षिता का सिद्धांत को समझते थे और आइंस्टीन ने इनके साथ मिलकर बोस-आइंस्टीन सांख्यिकी दिया. अलग अलग छ:अध्याय क्रमश: परनाणुलोक, नक्षत्रलोक, सौरजगत, ग्रहलोक, भूलोक में टैगोर ने विज्ञान के क्षेत्रों ने आये परिवर्तन को समझाने की कोशिस की. वह अपने पूरे अध्ययन को विश्लेषित करते हुए कहते हैं,”ज्योतिर्विज्ञान और प्राणिविज्ञान केवल इन दो विषयों को ही में उलटता-पुलटता रहा. इसे पक्की शिक्षा नहीं कह सकते अर्थात् इसमें पांडित्य की कड़ी गेंथाई नहीं है. किन्तु निरंतर पढ़ते पढ़ते मन में एक वैज्ञानिक वृत्ति स्वाभाविक हो उठी थी; आशा करता हूँ, अंधविश्वास की मृढ़ता के प्रति मेरी जो अश्रद्धा है उसने बुद्धि की उच्छङ्गलता से बहुत दूर तक मेरी रक्षा की है. फिर भी मुझे ऐसा नहीं लगता कि उत्त कारण से कवित्व के इलाके में कल्पना के महल की कोई विशेष हानि हुई है.” टैगोर के लिये ये वैज्ञानिक सत्य ऐसे जीवित सत्य थे कि यह उन्हे महान कविताओं और गीतों को लिखने के लिये प्रेरित किया. उन्होंने अपनी वैज्ञानिक चेतना को अपने दर्शनों से जोड़ा.ऐसे ही एक रचना उनकी सृष्टि पर आयी जो मरने के कुछ दिन पहले लिखी थी. पूरी कविता
इस प्रकार है:——

विराट सृष्टि क्षेत्र में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

विराट सृष्टि क्षेत्र में
खेल आतिशबाजी हो रहा आकाश में
सूर्य चन्द्र ग्रह तारों को लेकर
युग-युगान्तर के परिमाप में।
अनादि अदृश्य मैं भी चला आया हूं
क्षुद्र अग्नि कणा ले
किनारे एक क्षुद्र देश काल में।
आते ही प्रस्थान की गोद में
म्लान हो आई दीपशिखा
छाया में पकड़ाई दिया
इस खेल का माया रूप,
शिथिल हो आये धीरे-धीरे
सुख दुःख नाटक साज सब।
देखा, युग-युग नटी नट सैकड़ों
छोड़ गये नाना रंगीन वेश अपने
रंगशाला द्वार पर।
देखा और भी कुछ ध्यान से
सैकड़ों निर्वापित नक्षत्र नक्षत्र के नेपथ्य प्रांगण में
नटराज निस्तब्ध एकाकी बैठे ध्यान में।

********************************************************

सुनील सिंह 

(फेसबुक पेज से साभार) 

Spread the information

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *