वेदप्रिय

दैनिक जीवन में हम परंपराओं को अत्यधिक महत्व देते हैं, क्यों कि हम इसी में पले बढ़े हैं। पर बदलते समय के साथ परंपराओं में परिवर्तन एवं सुधार का काम भी सतत चलता रहता है। भारतीय संविधान ने भी नागरिकों में सुधार एवं खोज की भावना विकसित करने पर बल दिया है। अतः यह जरूरी है कि हम ज्ञान विज्ञान की सांझी परम्परा को समझें तथा बेहतर समाज, देश-दुनिया के निर्माण के लिए, मानवजाति की इस अमूल्य धरोहर को हर हाल में बचाएं एवं उसे आगे बढ़ाएं ताकि वह हमारी भावी पीढ़ियों के हाथों में भी फलता फूलता रहे।

याद करें सबसे पहले किसने यह स्पष्ट किया की पृथ्वी इस ब्रह्मांड का केंद्र नहीं है अर्थात सूर्य केंद्रित प्रणाली किसकी देन।
पोलैंड निवासी निकोलस कोपरनिकस की।
गुरुत्वाकर्षण के नियम किसने दिए ?
न्यूटन ,इंग्लैंड निवासी।
ग्रहों की गति के नियम बताने वाला कौन?
कीप्लर यूनानी निवासी।
सापेक्षता का सिद्धांत किसने दिया ?
आइंस्टीन, जर्मनी यहूदी।
पहला अंतरिक्ष यात्री कौन ?
मेजर यूरी गगारिन ,रूसी।
चंद्रमा पर उतरने वाला पहला व्यक्ति कौन?
नील ए आर्म स्ट्रांग, अमेरिकी।

यह एक छोटी सी श्रंखला का उदाहरण है। इसमें प्रत्येक मनके की अपनी एक विशिष्ट भूमिका है। इससे यह संकेत तो मिलता ही है कि ज्ञान -विज्ञान की परंपरा एक मिलाजुला उपक्रम है ।हर नए चरण की पृष्ठभूमि पहले चरणों ने तैयार की है। यदि किसी भी चरण को और अधिक विस्तार देना चाहे तो नए तथ्य उभरकर सामने आते हैं। चंद्रतल पर उतरने का ही उदाहरण हम ले रहे हैं। इसमें सभी उपरोक्त खोजों का योगदान तो है ही इससे भी बढ़कर यान की बनावट, इसमें प्रयुक्त ईंधन, अंतरिक्ष ड्रेस, रिमोट नियंत्रित प्रणाली तथा अन्य तकनीकी विशेषताएं आदि बहुत से ऐसे प्रश्न है जहां यह श्रृंखला और अधिक बढ़ती दिखाई देती है।
ज्ञान -विज्ञान का ताना-बाना इसी प्रकार की अनेक श्रृंखलाओं से बना हुआ है। यह एक अति गुम्फित जाल है। यदि इसके प्रथम सूत्र को ढूंढने का प्रयास किया जाए तो यह सिलसिला एक ऐसे छोर पर जाकर छोड़ देगा जहां अन्य कई प्रश्न उभर आएंगे।

जैसे, वह कौन व्यक्ति था जिसने सर्वप्रथम पत्थर के टुकड़े को औजार के रूप में प्रयोग किया?
सबसे पहले आग जलाने वाला निवासी किस देश का?
पहिए का आविष्कार करने वाला वैज्ञानिक कौन?
बीज सबसे पहले किस किसान ने बोया और काटा किसने?
पृथ्वी पर पहला घर बनाने वाला पहला इंजीनियर कहां पैदा हुआ?
भाषा का पहला शब्द किसने उच्चरित किया और वह भाषा कौन सी थी?

ऐसे असंख्य प्रश्न है जो हमारे मस्तिष्क को उद्वेलित कर सकते हैं ।इसलिए हमें यह मानने में तनिक भी संकोच नहीं करना चाहिए कि इन सभी सवालों के जवाब केवल मानवजाति की सभ्यता एवं संस्कृति के विकास के इतिहास में ही मिल सकते हैं। यह इतिहास संपूर्ण मानवजाति का इतिहास है जो धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र आदि से कहीं ऊपर है। इसको हम मानव संस्कृति के अतिरिक्त कोई और नाम दे ही नहीं सकते ।यह संस्कृति अपना सार्वभौमिक चरित्र रखती है ।यह एक असीम समुद्र है जिसमें अनगिनत धाराएं समाहित हैं।

इस धरा पर सर्वश्रेष्ठ जीव कौन?
मानव।
ऐसी कौन सी धरोहर है मानव के पास जिसकी बदौलत यह श्रेष्ठता के पद पर आसीन है?
ज्ञान व कौशल।
यह ज्ञान व कौशल मानव ने कैसे अर्जित किया?
श्रम शक्ति के द्वारा सामूहिकता के बल पर।
स्वयम मानव ही श्रम की उपज है ।

यही है यक्ष प्रश्न । प्रथम तो मनुष्य एक पदार्थ की रचना है। इसलिए इसका स्वरूप प्राकृतिक है यह कोई अप्राकृतिक या अलौकिक या अति प्राकृतिक रचना नहीं है। द्वितीय ,मानव एक जैव प्रक्रिया है। यह एक सतत विकास का परिणाम है कोई आकस्मिक अवतरण नहीं ।तृतीय, मानव एक सामाजिक सम्मिश्रण है। बेशक मानव एक -दूसरे से बहुत सी विभिनताएं लिए पैदा होता है परंतु जैविकी के अनुसार यह एक समान मानवजाति है ।नवजात शिशु कोई कोरी स्लेट नहीं होता। यह अपने साथ सार्वभौमिक मानवीय गुण जैसे मुस्कान ,नकल की प्रवृत्ति, विभिन्न चेस्टाएं आदि लेकर पैदा होता है ।इन्हीं से वह ज्ञान- विज्ञान का सफर शुरू करता है ।जैविक से सामाजिक मानव एक दूसरे का सहारा लेकर ही बनता है। सामाजिकता मानव अस्तित्व की अनिवार्यता है। मानव, सामाजिक संबंधों की समष्टि है। प्रत्येक मनुष्य में पूरी मानवजाति उसका अतीत और उसका वर्तमान मूर्तित होता है। प्रत्येक व्यक्ति मानव संस्कृति का जीता जागता रूप है तथा साथ में उसका सृष्टा भी ।मानव विकास किन्हीं आदर्श परिस्थितियों में नहीं हुआ है। मानवजाति ने जो कुछ भी अर्जित किया है वह सभी का सामूहिक अर्जन है। हम में से प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह लिखता है, अनाज पैदा करता है, पत्थर तोड़ता है या प्रयोगशाला में अन्वेषी है वह अपने श्रम से एक ऐतिहासिक प्रक्रिया में भाग ले रहा है ।वह ज्ञान -विज्ञान की परंपरा में भागीदार है ।यह मानव जीवन के लिए जरूरी भी है कि वह एक -दूसरे से ग्रहण करें, सांझा करें, इसे परिष्कृत करें तथा भावी संतानों तक स्थानांतरित करें ।मानवजाति का इतिहास इसका साक्षी भी है।

हमें न्यूटन का नाम तो याद है। परंतु उनके शिक्षक का नाम शायद ही कोई बता पाए।उनके शिक्षक का नाम था बेरो। न्यूटन ने कहा था कि वह इतना जो कुछ भी बन पाया है उसका कारण यही है कि वह महान विभूतियों के कंधों पर सवार था। न्यूटन का इशारा यहां गैलिलियो की ओर था। निसंदेह इतिहास में नायकों का योगदान होता है परंतु इतिहास की चालक क्षमता जन समूह में निहित होती है, उनकी सामाजिक जरूरतें होती हैं। संसार में खोज करने और इसे बदलने वाले केवल नायक ही नहीं होते हर व्यक्ति द्वारा इमानदारी से की गई मेहनत संसार के उज्जवल भविष्य में अपनी आहुति डालती है। आइंस्टीन, पिकासो, मार्क्स, पाब्लो नेरुदा, गगारिन ,शेक्सपियर आदि सभी ने ज्ञान -विज्ञान की परंपरा में अपना योगदान अपने सभी संसामयिकों की ओर से किया है।

ज्ञान -विज्ञान की परंपरा का पथ बड़ा ही विचित्र है ।संसार के सभी देशों के निवासी अपने आहार में चाय, काफी ,आलू ,टमाटर, मक्का ,चावल आदि का सेवन करते हैं ।काफी सबसे पहले इथोपिया में उगाई गई। मक्खन सबसे पहले मिश्री लोगों ने बनाया। खमीर भी उन्हीं की देन है। टमाटर दक्षिणी अमेरिका से आया। कागज सबसे पहले चीन में तैयार हुआ ।दीवारों में अलमारियों का चलन जापानियों की देन है ।देखते- ही -देखते रूसी जैकेट ,जापानी हवाई चप्पल, अमेरिकी शॉल का प्रचलन विश्वव्यापी हो गया। रूसी गुड़िया मत्र्योशक का प्रचलन आजकल सब जगह है। नृत्य की दुनिया में आजकल जॉज की बड़ी धूम है। माना जाता है कि यह नीग्रो अमेरिकियों की देन है। परंतु इसमें प्रयुक्त लय अफ्रीकी है और आज इसका सबसे बड़ा आंगन यूरोप है ।सरबंदा नृत्य अमेरिका से चला, स्पेन में आजमाया गया, अफ्रीकी संगीत पाकर पूरे यूरोप में चल निकला ।

साहित्यलोक तो एक दूसरे से अत्यधिक प्रभावित है। आधुनिक हिंदी साहित्य पर बंगला की तथा बंगला साहित्य पर अंग्रेजी साहित्य की स्पष्ट छाप है ।रुबाई और गजल तो आज हिंदी की ही विधा लगती है। प्रयोगवाद ने तो साहित्य के बीच की दीवार ही हटा दी ।साहित्यकार स्टैंडल और टैगोर के बिना पेरू के ल्योसा न हुए होते ।फिनलैंड के व्यापारी समुद्री जहाजों से दूर-दूर तक व्यापार करते थे इसलिए उनकी लिपि और भाषा आज अधिकांश दुनिया की भाषाओं का आधार है।

स्विजरलैंड और नेपाल एक दूसरे से बहुत दूर है ।इनके ऐतिहासिक पथ भी कभी नहीं मिले। इनके निवासियों की नस्ल भी अलग-अलग है, भाषाएं भी अलग-अलग हैं, विकास स्तर भी भिन्न-भिन्न है फिर भी कुछ मौलिक समानताएं हैं ।दोनों पर्वतीय देश हैं इसलिए ढहलवा छत के मकान बनाते हैं। प्राय दूसरी मंजिल पर रहते हैं। रसोईघर की व्यवस्था लगभग समान है ।कृषि के तौर-तरीके भी एक जैसे हैं ।इसी प्रकार अमरीका के एंडीज एशिया के तिब्बत और पामीर ,यूरोप के पीरेनिज व काकेशिया आदि पर्वतीय इलाकों के निवासियों में बहुत कुछ सांझा मिलेगा। हड़प्पा मोहनजोदड़ो पर की गई शोधों से यह सिद्ध होता है कि उस समय में भी भारतीयों का व्यापार पश्चिमी देशों से होता था। अरब और पूर्वी अफ्रीका तक तो नियमित आवागमन था ।इसी प्रकार सौदागर सिंदबाद अरब की लोक कथाओं का नायक न जाने कितनी ही परंपराओं के संगम का कारण बना ।

यूनेस्को विचार गोष्ठी , मास्को 12 से 18 अगस्त 1964 के कुछ अंश इस संबंध में महत्वपूर्ण हैं।
आज सारी धरती पर फैले मानव का विगत स्थानांतरण गमनों और इसी प्रकार के प्रवास के फैलने अथवा सिकुड़ने से भरा पड़ा है। आबादी की गतिशीलता और सामाजिक कार्य के प्रभाव स्वरूप मानव समूह के सम्मिश्रण ने मानव के इतिहास में कहीं अधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है ।यह कभी सिद्ध नहीं किया गया यह मिश्रण मानवजाति के लिए जीव वैज्ञानिक दृष्टि से नकारात्मक भूमिका अदा करता हो। यह विविधता ही है जो मानवजाति को एकसूत्र बांधने में सहायक है।
जीव विज्ञान इसकी कोई गुंजाइश नहीं देता की सांस्कृतिक प्रगति के अंतरों को अनुवांशिक गुणों के अंतरों में संबंधित माना जाए ।यह कारण संस्कृति के इतिहास में ही ढूंढा जाए।
विश्व के सभी लोगों के पास किसी भी स्तर को हासिल करने के लिए एक जैसी संभावनाएं मौजूद हैं ।
डार्विन ने भी संसार के सभी भागों से प्राप्त और आदिम युग के पत्थर के औजारों की आकृति और निर्माण पद्धति के अध्ययन से यह सिद्ध किया है कि सुदूर अतीत में भी विभिन्न प्रजातियों की आविष्कारशीलता व मानसिक क्षमता समान थी।
दैनिक जीवन में हम परंपराओं को अत्यधिक महत्व देते हैं ।हम इन्हें अपरिवर्तनीय और अटल मान बैठते हैं। हम इन पर गर्व करने लग जाते हैं। करें भी क्यों न, आखिर ये सदियों से चली आ रही हैं। हम इन्हीं में पले बढ़े हैं। परंतु हमारे चारों ओर परंपराओं का पुनर्गठन और परिवर्तन भी अनवरत चलता आ रहा है। समसामयिक समाज आज अभूतपूर्व गति से बदल रहा है। आवश्यकता इसी बात की है कि हम ज्ञान -विज्ञान की सांझी परंपरा को समझें। इसकी रचयिता संपूर्ण मानवजाति है जो इसे आगे भी बढ़ रही है ।यह विविधता पूर्ण होते हुए भी एक है। यह हमारे साथ परिष्कृत होती है और हमें भी परिष्कृत करती चलती है। जनमानस इस धरोहर का मालिक है ।

यदि हम इस धरोहर को बरकरार रखना चाहते हैं तथा भावी पीढ़ियों के हाथों फलता -फूलता देखना चाहते हैं तो हमें उन खतरों के विरुद्ध भी लामबंद होना पड़ेगा जो इसके विरुद्ध अपना सिर उठा रहे हैं ।नस्लवाद हिटलर शाही को जन्म देता है। सांप्रदायिकता खतरनाक है। जातिवाद राष्ट्रों के टुकड़े कर देता है ।अतीत में भी मानवजाति ने इन्हीं शक्तियों के हाथों अपना बहुत कुछ कुर्बान होते देखा है। इसलिए यह और भी आवश्यक हो जाता है कि हम इस अनिवार्यता को समझे तथा इस धरोहर की सुरक्षा के लिए सजग रहें ।

( लेखक की सद्यप्रकाशित पुस्तक ” वैज्ञानिकों के निहितार्थ ” से साभार)

                                                                                वेदप्रिय

       ( लेखक हरियाणा के प्रमुख विज्ञान लेखक, विज्ञान संचारक एवं देश के जन विज्ञान आंदोलन की महत्वपूर्ण शख्सियत हैं )

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