ललित मौर्य
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार आज भी दुनिया की करीब 36 फीसदी आबादी यानी 260 करोड़ लोग खाना पकाने के लिए बायोमास ईंधन का उपयोग कर रहे हैं बार्सिलोना इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल हेल्थ द्वारा आंध्रप्रदेश में युवाओं पर की गई एक नई रिसर्च में वायु प्रदूषण का फेफड़ों पर पड़ने वाले असर का अध्ययन किया गया है। इस अध्ययन से पता चला है कि इन युवाओं के फेफड़ों पर घर के भीतर और बाहर मौजूद वायु प्रदूषण का कहीं ज्यादा बुरा असर पड़ता है। गौरतलब है कि इन युवाओं की उम्र 20 से 26 वर्ष के बीच थी। देखा जाए तो यह उम्र का ऐसा पड़ाव होता है जब युवाओं के फेफड़े अपनी पूरी क्षमता पर कार्य करना शुरू करते हैं।
वैश्विक स्तर पर बढ़ता वायु प्रदूषण एक बड़ी समस्या बन चुका है। उद्योगों, कारखानों और वाहनों से निकले प्रदूषण के साथ- साथ खाना पकाने के लिए इस्तेमाल हो रहा बायोमास, मिट्टी का तेल और कोयले जैसे ईंधन का उपयोग स्थिति को कहीं ज्यादा बदतर बना रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि यह बढ़ता प्रदूषण हर साल 70 लाख से ज्यादा लोगों की असमय मौत की वजह है। इसके बावजूद निम्न और मध्यम आय वाले देशों में वायु प्रदूषण और स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में बहुत सीमित आंकड़ें उपलब्ध हैं। विशेष रूप से युवाओं के स्वास्थ्य पर इसका क्या असर पड़ रहा है उस बारे में बहुत सीमित जानकारी उपलब्ध है। हालांकि युवा अवस्था में बढ़ता प्रदूषण उनके स्वास्थ्य के लिए कहीं ज्यादा खतरनाक हो सकता है, क्योंकि उस उम्र में उनके फेफड़ों का विकास अपने शीर्ष पर होता है।
इस बारे में बार्सिलोना इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल हेल्थ और अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता ओटावियो रंजानी के अनुसार बच्चों के फेफड़ों की कार्यक्षमता पर वायु प्रदूषण के पड़ते असर को लेकर काफी शोध हुए हैं, लेकिन भारत में युवाओं पर इसके असर को समझने के लिए किया गया यह अपनी तरह का पहला अध्ययन है। इस अध्ययन में हैदराबाद शहर के आसपास के 28 गांवों में 1,044 युवाओं से जुड़े आंकड़ों को एकत्र किया गया था। इन युवाओं की उम्र 20 से 26 वर्ष के बीच थी। इनसे जुड़े आंकड़ों को 2010 से 2012 के बीच आंध्र प्रदेश चिल्ड्रन एंड पेरेंट स्टडी के लिए एकत्र किया गया था।
इस रिसर्च में वैज्ञानिकों ने फेफड़ों की कार्यक्षमता को मापने के लिए एफईवी1 और एफवीसी का उपयोग किया गया था, जिनकी मदद से फेफड़ों में हवा के प्रवाह और उनकी कार्यक्षमता को मापा जाता है। साथ ही इस विश्लेषण के दौरान युवाओं के लिंग, स्वास्थ्य और सामाजिक आर्थिक कारकों को भी ध्यान में रखा गया था।
जर्नल एनवायरनमेंट इंटरनेशनल में प्रकाशित इस रिसर्च के जो निष्कर्ष सामने आए हैं उनके मुताबिक घरों के अंदर होने वाले वायु प्रदूषण जोकि बायोमास ईंधन के उपयोग से जुड़ा है, उसका सीधा असर युवाओं के फेफड़ों की कार्यक्षमता से पर पड़ रहा है। इस प्रदूषण के चलते उसमें कमी दर्ज की गई थी। इतना ही नहीं इसका असर उन लोगों पर ज्यादा पड़ा था, जिनके घरों में उस तरह के बायोमास स्टोव का उपयोग कर रहे थे जिनमें धुंए की निकासी के लिए व्यवस्था नहीं थी।
जानकारी मिली है कि जहां घर के भीतर मौजूद वायु प्रदूषण के कारण फेफड़ों की क्षमता में औसतन 142 मिली की कमी दर्ज की गई थी जो उन लोगों में बढ़कर 211 मिली तक पहुंच गई थी जो ऐसे बायोमास स्टोव का उपयोग कर रहे थे जिनमें धुंए की निकासी के लिए कोई निकासी नहीं थी।
इस विश्लेषण में फेफड़ों की कार्यक्षमता में कमी के साथ वातावरण में मौजूद पीएम2.5 और फेफड़ों की क्षमता में आती गिरावट के बीच की कड़ी का भी पता चला है, लेकिन यह परिणाम उतने स्पष्ट नहीं थे। कुल मिलाकर, इन निष्कर्षों से पता चलता है कि वातावरण में मौजूद पीएम2.5 और घर के भीतर मौजूद वायु प्रदूषण के स्तर में गिरावट युवाओं के फेफड़ों की कार्यक्षमता और उसकी बेहतरी में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा हाल ही में जारी आंकड़ों के अनुसार अभी भी दुनिया की करीब 36 फीसदी आबादी खाना पकाने के लिए प्रदूषण पैदा करने वाले ईंधन का इस्तेमाल कर रही है। देखा जाए तो वैश्विक स्तर पर अभी भी 260 करोड़ लोग खाना पकाने के लिए बायोमास ईंधन का उपयोग कर रहे हैं।
इससे पैदा होने वाला प्रदूषण बचपन के दौरान फेफड़ों की कार्यक्षमता को कैसे प्रभावित कर रहा है इसपर बहुत कम अध्ययन किए गए हैं। ऐसे में यह अध्ययन उन युवा वयस्कों पर ध्यान केंद्रित करके उनके स्वास्थ्य और श्वसन तंत्र पर पड़ने वाले व्यापक प्रभावों की एक झलक प्रदान करता है, जिनके फेफड़े ने हाल ही में अपनी पूरी क्षमता में काम करना शुरू किया है।
( ‘डाउन टू अर्थ ‘ पत्रिका से साभार )