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प्रभाकर मणि तिवारी

पूर्वोत्तर राज्य मेघालय की एक गुफा में मौजूद खनिज स्तंभों के अध्ययन से भारत में बीते एक हजार वर्षों के सूखे के इतिहास और बारिश की जानकारी मिली है. यह गुफा गुजरे जमाने के मौसम से जुड़े कई रहस्यों पर से पर्दा उठा सकती है.

यह अध्ययन प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज के ताजा अंक में छपा है. इस अध्ययन रिपोर्ट से देश में सूखे और अकाल के बारे में कई नई जानकारियां सामने आई हैं वहीं इसने कई पुराने मिथकों को भी तोड़ दिया है. इन गुफाओं में सदियों से टपकने वाले पानी के कारण जमा खनिज और चूने पत्थर के ढेर से देश में मौसम के बदलते मिजाज, सूखे और बाढ़ के बारे में बेहतर भविष्यवाणी करने में भी सहायता मिल सकती है. करीब तीन साल पहले अमेरिका के वंडरबिल्ट यूनिवर्सिटी के रिसर्चरों की एक टीम ने दावा किया था कि यह गुफा जलवायु परिवर्तन के अनसुलझे रहस्यों को उजागर करने में मदद कर सकती है.

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मेघालय की राजधानी शिलांग से करीब 57 किलोमीटर दूर चेरापूंजी की मावम्लूह गुफा किसी भूगर्भीय खजाने से कम नहीं है. इस गुफा के भीतर एक हजार साल से भी लंबे समय से एक ही स्थान पर छत से वर्षा का पानी धीरे-धीरे टपक रहा है. प्रत्येक बूंद के साथ पानी में मिले खनिज तलछटी में जमा होकर कैल्शियम कार्बोनेट टावरों की शक्ल में बढ़ते हैं. इनको स्टैलेग्माइट्स कहा जाता है.

चूना पत्थर की परतों में इतिहास

ये स्टैलेग्माइट भूगर्भीय चमत्कारों से ज्यादा चमत्कारी हैं. इसकी परतों में बारिश का इतिहास दर्ज है. यह भविष्य में मौसम में बड़े पैमाने पर होने वाले उलटफेर या लंबे समय तक चलने वाले विनाशकारी सूखे का संकेत देने में भी सक्षम हैं.

ताजा अध्ययन के दौरान मिली जानकारियां अतीत में देश में भयावह सूखे और अकाल की पुष्टि करती हैं. शोधकर्ताओं की टीम की सदस्य रहीं गायत्री कथायत बताती हैं कि चूना –पत्थर के स्तंभों से मिली जानकारियां इस बात की पुष्टि करती हैं कि लंबे समय तक चलने वाले भयावह सूखे के कारण ही मुगलों ने फतेहपुर सीकरी से अपनी राजधानी हटा ली थी. वैज्ञानिकों को 1595 और 1620 के बीच मुगल काल में 25 साल लंबे सूखे के रासायनिक प्रमाण मिले हैं. उसी दौरान मुगलों ने अपनी तत्कालीन राजधानी फतेहपुर सीकरी से हटा ली थी.

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इनसे पता चलता है कि 1780 और 1790 के दशक में तीस साल तक भयावह सूखे के दौरान किस तरह मुगल साम्राज्य का पतन हुआ और भारत का कपड़ा उद्योग बर्बादी की कगार पर पहुंच गया था. इस अध्ययन से वर्ष 1630-1632 के दौरान दक्कन में भयावह अकाल की भी पुष्टि होती है. फसलें बर्बाद होने के कारण तब लाखों लोग की असमय मौत हो गई थी.

मानसून के इतिहास की जरूरत

भारत में वैज्ञानिकों ने वर्ष 1870 में उपकरणों की सहायता से मानसून के दौरान होने वाली बारिश का आंकड़ा मापना शुरू किया था. उसके बाद अब तक 27 बार अलग-अलग इलाके भयावह सूखे का सामना कर चुके हैं. इनमें वर्ष 1985 से 1987 के दौरान लगातार तीन साल तक चलने वाला सूखा भी शामिल है. इन आंकड़ों से यह नहीं पता चला कि अतीत में कई बार लंबे समय तक चलने वाला सूखा या अकाल पड़ चुका है. हालांकि गुफा के चूना-पत्थर स्तंभों से मिली एक हजार साल के मौसम की जानकारी को ध्यान में रखे तो पूरी तस्वीर बदल जाती है. ताजा आंकड़ों से जल प्रबंधन में काफी सहायता मिलेगी. इससे पहले अमेरिका के वंदेरबिल्ट यूनिवर्सिटी के रिसर्चरों ने बीते 50 वर्षों में मेघालय में मावम्लूह गुफा के भीतर टपकने वाले चूना-पत्थर ( स्टैलेग्माइट ) के बढ़ते ढेर का अध्ययन किया है.

पर्यावरण में बदलाव का ब्यौरा

मेघालय को दुनिया में सबसे ज्यादा वर्षा वाला क्षेत्र कहा जाता है ‘साइंटिफिक रिपोर्ट’ में प्रकाशित इस अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया था कि पूर्वोत्तर भारत में जाड़े के मौसम में होने वाली बारिश और प्रशांत महासागर में जलवायु की स्थिति में असामान्य संबंध देखने को मिला है. भारत समेत मानसूनी क्षेत्रों में चूना-पत्थर का यह स्तंभ वैश्विक पर्यावरण तंत्र को समझने में मददगार हो सकता है और यह पर्यावरण में होने वाले बदलाव को भी बताता है.

रिसर्चरों की टीम के सदस्य रहे डॉक्टर के छात्र एली रॉने ने बताया था कि गुफा के भीतर हवा और जल के प्रवाह से शुष्क मौसम में टपकने वाले चूने के ढेर को बढ़ने में मदद मिलती है. इससे अंदर की पारिस्थितिकी पर गहरा असर पड़ता है.

वैज्ञानिकों ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया था कि मेघालय की यह गुफा जलवायु परिवर्तन के अनसुलझे रहस्यों को उजागर करने में मदद कर सकती है. उनका कहना था कि इस गुफा के भीतर से स्टैलेग्माइट का अध्ययन कर उससे मिलने वाले आंकड़ों की सहायता से भारत में मानसून पैटर्न, सूखे और बाढ़ की बेहतर भविष्यवाणी करने में मदद मिल सकती है.

मेघालय की नार्थ ईस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी के डा. तिलक ठाकुरिया कहते हैं, “यह अध्ययन पुरानी जानकारियों को पूरी तरह बदलते हुए भविष्य में मौसम में होने वाले गंभीर बदलावों से निपटने में कारगार साबित हो सकता है.” एक और मौसम विज्ञानी प्रोफेसर दीनबंधु सान्याल कहते हैं, “इस अध्ययन रिपोर्ट के आधार पर सरकार को इस दिशा में और गहन शोध पर ध्यान देना चाहिए. पूर्वोत्तर भारत में जलवायु परिवर्तन का असर नजर आने लगा है. शोध से मिले नतीजे भावी खतरों से निपटने और सूखे आदि की भविष्यवाणी करने में मददगार हो सकते हैं.”

DW हिंदी से साभार 

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