वेदप्रिय

विज्ञान, आधुनिक समाज को बहुत गहरे तक प्रभावित कर रहा है। कंप्यूटर से लेकर वैश्विक उष्णता तक, अंग प्रत्यारोपण से लेकर क्लोन तक, रोबोट से लेकर अंतरिक्ष अभियानों तक तथा शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, उद्योग, ऊर्जा या खेल आदि का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं, जहां समाज, विज्ञान की ओर मुंह न ताकता हो। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि विज्ञान को नजदीक से समझा जाए। मार्क्सवादियों के लिए विज्ञान किस तरह महत्वपूर्ण है यह और बात है, लेकिन विज्ञान के लिए मार्क्सवाद को समझना ज्यादा जरूरी है। मार्क्सवाद कहता है कि विज्ञान को सामाजिक व ऐतिहासिक परिस्थितियों से अलग करके अमूर्त बनाकर नहीं समझा जा सकता। इसके साथ मार्क्सवाद यह भी स्वीकार करता है कि सामाजिक बुनावट के साथ चलते विज्ञान की अपनी भी वस्तुनिष्ठ वैधता है। मार्क्सवाद विज्ञान का अच्छा आलोचक होने के साथ-साथ इसका रक्षक भी है। इस बात की आलोचना क्यों नहीं होनी चाहिए कि पूंजीवादी व्यवस्था में न जाने कितनी वैज्ञानिक खोजों का दुरुपयोग होता है। यह क्या बात हुई कि काम को आसान बनाने व काम की गति तेज करने के नाम पर, तकनीक न जाने कितने ही लोगों को बेरोजगार बना दे।

मार्क्सवाद की एक मौलिक मान्यता यह है कि यह विश्व को समझने व इस पर नियंत्रण करने की क्षमता मनुष्य में देखता है। प्रकृति विज्ञान के विकास ने भी मनुष्य के विजयगान की घोषणा की है। मार्क्स और एंगेल्स का विज्ञान प्रेम इसी बात से जाहिर है कि इन्होंने अपने कार्य, सामाजिक विकास के इतिहास को वैज्ञानिक व भौतिक आधार पर प्रस्तुत किया है। वैज्ञानिक दार्शनिकों का एक बड़ा खेमा यह मानता है कि स्वयं विज्ञान के अंदर अपना एक विचार समूह का ढांचा है। इसकी अपनी निश्चित विधि है जो इसके रेशनल और वस्तुनिष्ठ होने की गारंटी करती है। जबकि मार्क्सवाद यह कहता है कि विज्ञान भी एक सामाजिक ताने-बाने से बुने हुए व्यवहार से पैदा होता है। जिस प्रकार समाज स्थिर नहीं है, उसी प्रकार विज्ञान की संकल्पना और विधि भी समय आने पर बदलती है। विज्ञान के अन्य दार्शनिक, जो यह कहते हैं कि विज्ञान का अपना कोई वैध सिद्धांत नहीं है। इसकी प्राप्तियों की कोई वस्तुनिष्ठ वैधता नहीं है, उनके लिए मार्क्सवाद का कहना है कि विज्ञान प्रकृति के रहस्यों पर से पर्दा हटाने का एक विशिष्ट तरीका है। विज्ञान का विकास बनी बनाई और वर्चस्वकारी विचारधाराओं की मान्यताओं को जांचने, परखने का भी एक जरिया है।

स्वयं मार्क्स ने विज्ञान पर कोई ग्रंथ नहीं लिखा। लेकिन अपने पूरे साहित्य में वे विज्ञान की प्रकृति और इसकी कार्यविधि पर लगातार टिप्पणियां करते रहे। ऐसा लगता है मानो वे अपने पूरे साहित्य समाज का ऐतिहासिक, आर्थिक एवं राजनीतिक विश्लेषण को प्रकृति विज्ञानों की खोजों के सामने रख कर लिख रहे हों। विज्ञान के बारे में मार्क्स के विचार इनकी लिखी पुस्तकों में नजर आते हैं । मार्क्स के समकालीन अधिकांश विचारक यह मानते थे कि ज्ञानेंद्रियों से प्राप्त अनुभव ज्ञान ही , विज्ञान का आधार है। मार्क्स व्यवहारवादियों के इस विचार को नकारते हैं। मार्क्स एक यथार्थवादी विचारक थे। उनके अनुसार पदार्थीय विश्व स्वतंत्र अस्तित्व है। यहां एक सवाल उठता है कि क्या वस्तुनिष्ठ सच्चाई मानव सोच का एक सैद्धान्तिक प्रश्न है या व्यावहारिक पश्न। अर्थात विचार वास्तविक है या अवास्तविक ? इस सवाल पर मार्क्स के विचारों को लेकर बहुत भ्रम रहे। मार्क्स ने इसे बहुत ही स्पष्ट अर्थों में कहा है। जिस प्रकार दर्पण किसी वस्तु या पदार्थ को प्रतिबिंबित करता है उसी प्रकार विचार मानव मस्तिष्क रूपी दर्पण में वस्तुओं का बना प्रतिबिंब है जो अनेक रूपों में दिखाई देता है।

मार्क्स इसे आगे स्पष्ट करते हैं कि यह इतना आसान भी नहीं है कि प्रकृति के सामने एक दर्पण रख देंगे और सच का ज्ञान स्पष्ट सामने दिखाई दे जाएगा। सत्य या ज्ञान केवल तभी प्राप्त होगा जब हम सतह के नीचे होने वाली सभी हलचलों को समझकर कोई रचनात्मक सिद्धांत बनाएंगे। यह एक ऐसा सिद्धांत होगा जो प्रैक्टिस में खरा उतरता नजर आए। सच का दावा करने वाली चीज के बारे में सिद्धांत देना एक बात है परंतु ज्ञान के बारे में सिद्धांत देना, जो यह बताए कि सच कैसे खोजा जाता है, एक बिल्कुल अलग बात है। वही विचार ठीक माने जाते हैं जो स्वतंत्र यथार्थ के साथ संगति करते हैं। सबसे मुख्य बात जो मार्क्स कहते हैं वह यह है कि समय और इतिहास से स्वतंत्र ऐसी कोई संकल्पना नहीं हो सकती जिनसे विज्ञान के सिद्धांत गढ़े जा सके। समय और इतिहास से स्वतंत्र ऐसी कोई विज्ञान विधि भी नहीं हो सकती जिस पर इन सिद्धांतों को परखा जा सके।

मार्क्स विज्ञान में एक द्वंद्वात्मक प्रक्रिया देखते हैं। इस भौतिक विश्व में विज्ञान की विधि व संकल्पनाएँ और इसके सिद्धांत काल खंडों में आपस में गतिशीत अंत:क्रिया करते रहते हैं। यह प्रक्रिया सच के और निकट ले जाती है। इसके अलावा विज्ञान में एक और द्वंदात्मकता देखते हैं कि अंत:क्रियाओं के चलते एक समय विशेष पर कुछ मूलभूत परिवर्तन होते हैं और एक नई चीज सामने आती है। इस प्रकार से पूरी प्रक्रिया को एक चलायमान परिस्थिति में देखते हैं। वे यह भी मानते हैं कि यह भी मानते हैं कि यह प्राकृतिक विश्व बहुत ही जटिल और विविध है और इसकी द्वंद्वात्मकता इसी में है कि एक विशेष मोड़ तक प्रकृति के पहलुओं को इसके सापेक्ष एक अमूर्त मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है और यह अमूर्त मॉडल और अधिक ठोस परिस्थितियों को शामिल करते हुए एक ज्यादा विकसित मॉडल के रूप में सामने आता है। मार्क्स अपने आर्थिक विश्लेषण को भी इसी रूप में देखते हैं।

विज्ञान के बारे में मार्क्स के विचारों पर सबसे ज्यादा ठोस लेखन एंगेल्स की पुस्तकों में है। एंगेल्स की Dialectics of Nature एक ऐसी पुस्तक है जिसमें एक पूर्ण वैज्ञानिक दृष्टिकोण की झलक मिलती है। 19 वीं सदी का मध्य ऐसी वैज्ञानिक खोजों का समय था जब विज्ञान संक्रमण काल में था और इसके साथ ही नए समाज की भूमि भी तैयार हो रही थी। यह पुस्तक प्रकृति और समाज के बीच मौलिक एकता का सबसे अच्छ उदाहरण है। इस पुस्तक में एंगेल्स तीन महान वैज्ञानिक खोजों के हवाले से प्रकृति की द्वंद्वात्मकता दर्शाते हैं। पहली थी सन 1838-39 में हुई पादप और जंतु कोशिका के बीच एकता के सूत्र तथा कोशिका सिद्धांत। इसमें यह है कि कोशिका जीवन का आधार है। इनमें सजीवों की एकता के सूत्र छिपे थे। दूसरी खोज थी सन 1842 से 47 के बीच की खोज। ऊर्जा की संरक्षणता का नियम था। इसके अंतर्गत इस प्रकृति में पदार्थों की अनवरत गति अर्थात संक्रमणशीलता की यात्रा ऊर्जाओं के रूपांतरण के माध्यम से सिद्ध की गई थी। तीसरी महत्वपूर्ण खोज थी सन 1859 में डार्विन के द्वारा प्रस्तुत पुस्तक ऑन द ओरिजिन ऑफ स्पीशीज। इन पुस्तकों के माध्यम से दर्शन के नजरिए से प्रकृति की भौतिक संकल्पनाएं द्वंद्वात्मकता से स्पष्ट हो चुकी थी।

मार्क्स व एंगेल्स के बीच अच्छा तालमेल था। इन्होंने अपने काम का बंटवारा किया हुआ था। मार्क्स गणित व तकनीक के इतिहास तथा रसायन शास्त्र में निपुण थे। जबकि एंगेल्स गणित, भौतिकी, जीवविज्ञान व खगोल विज्ञान में निपुण थे। यदि हम विज्ञान के इतिहास का अध्ययन करें तो पाएंगे कि शायद यही दो ऐसे व्यक्ति थे जो विज्ञान के ऐतिहासिक चरित्र को समझते हुए और समाज के साथ विज्ञान की एकता का विश्लेषण कर रहे थे। इनके बाद लेनिन ने माख से मुखातिब होते हुए Materialism and Emperio-criticism लिखते हुए विज्ञान के चरित्र को अद्यतन (update) किया। यह इन्हीं की बदौलत था कि बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में जोसेफ नीदम, जे बी एस हाल्डेन और जे डी बरनाल जैसे वैज्ञानिकों ने इस परंपरा को संभाला

( लेखक हरियाणा के प्रमुख विज्ञान लेखक, विज्ञान संचारक एवं जनविज्ञान आंदोलन के वरिष्ठ सहयोगी हैं )

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