आज 23 मार्च है। भगतसिंह शहादत दिवस। इसी दिन भारत माता के तीन वीर सपूतों, भगतसिंह, राजगुरु एवं सुखदेव ने देश की आजादी के लिए हंसते हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया था।
भगतसिंह ने न सिर्फ देश की आजादी का, बल्कि सभी प्रकार के भेदभाव, शोषण उत्पीड़न से रहित अंधविश्वास मुक्त, तर्कशील, विज्ञानसम्मत समाज एवं देश के निर्माण का सपना भी देखा था।
पर आजादी के करीब 75 वर्षों बाद भी अब तक शहीद भगतसिंह का सपना साकार नहीं हुआ। आज जबकि प्रतिगामी सोच वाली ताकतें अवैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देकर प्रगति की रफ्तार को पीछे मोड़ने में जुटी हैं, बेहद जरूरी है कि अंधविश्वास मुक्त, संविधान सम्मत, समतामूलक एवं प्रगतिशील समाज के निर्माण के भगतसिंह के विचारों को हम आगे बढ़ाएं एवं उनके सपनों का बेहतर भारत बनाएं।

शहादत शब्द का उपयोग उनके लिए किया जाता है, जिन्होंने अपने प्राण हंसते-हंसते मातृभूमि की सेवा में न्यौछावर कर दिए हों. आज 23 मार्च है, जिसे हम शहीद दिवस के तौर पर मनाते हैं. शायद ही कोई विरला होगा, जो इस दिन का इतिहास और इसकी अहमियत नहीं जानता होगा. आज ही के दिन 1931 में अंग्रेज हुक्मरानों ने भारतीय युवा क्रांतिकारियों भगत सिंह, शिवराम राजगुरु और सुखदेव थापर को फांसी के फंदे पर चढ़ा दिया था. महज 23 साल की उम्र में ये नौजवान मातृभूमि पर कुर्बान हो गए थे, जिसके चलते इन्हें ‘शहीद-ए-आजम’ कहकर पुकारा जाता है. इस बलिदान के बाद पूरे देश में युवा खून आजादी पाने के लिए उबल पड़ा था. इसी कारण भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में इस दिन को बेहद अहम माना जाता है.

जानिए इस बलिदान की पूरी कहानी

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के गरम दल की राह के सेनानी थे. कम्युनिस्ट तरीके से सड़कों पर आंदोलन के साथ ब्रिटिश हुकूमत को गोली-बंदूक की भाषा में भी जवाब देने के समर्थक थे. हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन संगठन बनाकर वे हर तरीके से स्वतंत्रता आंदोलन को आगे बढ़ा रहे थे. साल 1928 में भारत आए साइमन कमीशन का विरोध करने पर लाला लाजपत राय की अंग्रेज पुलिस ने लाठियां बरसाकर हत्या कर दी.

एक दिन पहले ही दे दी गई थी फांसी

भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी देने के लिए 24 मार्च, 1931 की सुबह 6 बजे का समय नियत किया गया था. लाहौर सेंट्रल जेल के बाहर दो दिन पहले ही लोगों की भीड़ भारी संख्या में जुटने लगी. यह भीड़ लाहौर में धारा 144 लागू करने पर भी नहीं थमी तो अंग्रेज घबरा गए. फांसी का समय 12 घंटे पहले ही कर दिया गया और 23 मार्च, 1931 की शाम 7 बजे तीनों को फांसी दे दी गई. इससे पहले तीनों को अपने परिजनों से आखिरी बार मिलने की भी इजाजत नहीं दी गई. अंग्रेजों ने जनता के गुस्से से बचने के लिए तीनों के शव जेल की दीवार तोड़कर बाहर निकाले और रावी नदी के तट पर ले जाकर जला दिए. इसी के साथ तीनों युवाओं का नाम हमेशा के लिए इतिहास में दर्ज हो गया.

जलियांवाला बाग की घटना का भगत सिंह पर पड़ा था असर

ऐसा कहा जाता है कि भगत सिंह की जिंदगी पर जलियांवाला बाग हत्याकांड का बहुत गहरा असर पड़ा था. साल 1919 अंग्रेजों द्वारा किए गए इस नरसंहार ने भगत सिंह की जिंदगी बदल डाली. उस वक्त भगत सिंह केवल 12 साल के थे. ऐसा कहा जाता है कि भगत सिंह ने जलियांवाला बाग में ही अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ लड़ने की कसम खाई थी.

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