यह आजादी का 75 वां वर्ष है। आजादी के बाद पिछले लगभग 75 वर्षों में देश ने कुछ क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति की है। पर कुछ क्षेत्रों में स्थिति अब भी चिंता पैदा करने वाली है। इसमें देश की आधी आबादी, महिलाओं की मौजूदा स्थिति भी है। पुरुष वर्चस्व एवं लैंगिक भेदभाव का अब भी समाज में काफी गहरा असर है। बेटियों का जन्म, शिक्षा, कैरियर, मनपसंद शादी से लेकर संपत्ति के अधिकार तक के मामले में उनकी स्थिति अब भी दोयम दर्जे की बनी हुई है। इसके कारण उन्हें आमतौर पर घरेलू हिंसा, मानसिक शारीरिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। इस कड़ी में विधवा पुनर्विवाह अब भी एक बड़ी समस्या बनी हुई है। संविधान में सभी नागरिकों को, बिना भेदभाव के मिले समान अवसर के आलोक में अब इसे सहर्ष स्वीकार किया जाना चाहिए।
ईश्वर चंद्र विद्यासागर की कोशिश से ऐसा हो पाया
सन् 1857 की क्रांति तो सबको याद होगी पर गुलाम भारत में सन् 1856 में भी एक क्रांति हुई थी जिसे भारत का समाज शायद याद नही रखना चाहता। श्री ईश्वरचन्द्र विद्यागर के प्रयत्नों से पास हुए सन् 1856, 16 जुलाई के हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम से विधवा विवाह को वैध घोषित कर दिया गया था पर दुख की बात यह है कि इस विषय में पूरे भारतवर्ष में ना तब बात की गई थी ना अब की जाती है। सामाजिक नियमों के बंधन में रहकर आचरण करने से किसी भी समाज में एक अनुशासन बना रहता है। हर देश की अलग-अलग संस्कृति व सामाजिक नियम कानून होते हैं और वहां के नागरिक उन्हीं के अनुसार अपना जीवन जीते हैं।
भारत की संस्कृति में बचपन से माता-पिता के साथ रहकर शिक्षा ग्रहण करना, विवाह करना व प्रौढ़ अवस्था में अपने बुज़ुर्ग माता पिता की सेवा करने की परंपरा है। विवाह के बाद यदि पत्नी की मृत्यु हो जाए और दंपत्ती की संतान है तो पति को बच्चों की देखभाल के लिए समाज विवाह की अनुमति दे देता है। पुरुषों के लिए यह भी कहा जाता है कि यह अकेले कैसे जीवन यापन करेगा। नवविवाहित जोड़ा हो और पति की मृत्यु हो जाए तो महिला को तरह-तरह की बातें कही जाती हैं, उस पर अशुभ होने का ठप्पा लगा दिया जाता है और उससे शादी के लिए कोई तैयार नही होता है। यदि किसी विधवा युवती की संतान होती है तो उसका विवाह होना और भी मुश्किल हो जाता है।
एक ओर जहां समाज में व्याप्त अन्य कुरीतियां समाप्त हो रही हैं, जैसे दहेज प्रथा, बाल विवाह अब पहले की तुलना कम हो गए हैं वही आश्चर्य की बात यह है कि विधवा विवाह की समस्या वैसी ही बनी हुई है। आज महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। बड़ी बड़ी कंपनियों के प्रबंधन की बात हो या राजनीति में भागीदारी महिलाओं के योगदान को कम करके नही आंका जा सकता है। महिलाएं अब पहले से अधिक आत्मनिर्भर हो गई हैंं और विधवा पुनर्विवाह समाज में स्वीकार किया जाए उसका यही सबसे उपयुक्त समय है।
युवा वर्ग किसी भी क्रांति को लाने में सक्षम है फिर वह चाहे सामाजिक हो या राजनीतिक। अपने युवा पुत्र का विवाह एक विधवा से कराने का उदाहरण देने के बाद ही श्री ईश्वरचन्द्र विद्यागर भी विधवा पुनर्विवाह पर समाज में अपनी बात मजबूती से रख पाए। भारत में महिलाओं को देवी का दर्जा दिया गया है। एकल परिवार में जीवनसाथी अगर साथ दे तो पति-पत्नी दोनों कमा कर अपने परिवार की अर्थिक स्थिति मजबूत कर सकते हैं और अब एकल परिवारों का ही अधिक चलन है।
विधवा महिला यदि समझदार, शिक्षित है तो यह कहीं नही लिखा है कि वह अच्छी जीवनसंगिनी नही बन सकती। यदि हम ऐसी विधवा महिला की बात करें जिसकी कोई संतान है तो परिवार नियोजन के इस जमाने में वह महिला विवाह के लिये सबसे उपयुक्त है। यदि हम सिर्फ विधवा शब्द की मानसिक बाधा को दूर कर दें तब शायद किसी 20 वर्ष की बेवा को अपना बाकी बचा जीवन अकेले समाज की तिरस्कृत नजरों के बीच ना बिताना पड़े।