आज 30 जून है। ऐतिहासिक हूल दिवस। यह आजादी का 75 वां वर्ष है। ऐसे में यह दिवस खास हो जाता है। आजादी के लिए अनेक लोगों ने अपनी कुर्बानी दी थी। उसमें हूल दिवस की शहादत खास है। दरअसल अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का प्रतीक है हूल दिवस। 1855 में सिदो, कान्हु, चांद, भैरव आदि वीरों के नेतृत्व में संताल विद्रोह हुआ था जिसमें बड़ी संख्या में लोगों ने अपनी कुर्बानी दी। पर आजादी के 75 वर्षों बाद भी अबतक उनके सपने सच नहीं हुए। आइए, उन शहीदों के सपनों को मंजिल तक पहुंचाएं एवं उनके सपनों का झारखंड एवं भारत बनाएं.

आदिवासी समाज शुरू से प्रकृतिवाद पर आधारित है. इस समाज में प्रकृति की उपासना इनका सर्वोपरि धर्म माना जाता है. इनकी भाषा, संस्कृति, खान-पान, रहन-सहन एवं परंपरा सब अलग है. इनके जीवन में पेड़-पौधें, पहाड़, प्राकृतिक संपदा इनकी पूजा पद्धति में शामिल है. इनका मानना है कि प्रकृति एक ऐसी शक्ति है जिसके बिना जीवन की परिकल्पना असंभव है. इन्हीं मान्यताओं के साथ आदिवासी समाज अपने धर्म और अस्मिता की लड़ाई शुरू से लड़ती रही है .

महान हूल — Vikaspedia

सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हैं आदिवासी समुदाय

आज आदिवासी सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हैं. इनका सामाजिक स्तर भाषा और बोली द्वारा अन्य लोगों से जुड़े हैं. वे सामाजिक दृष्टि से अन्य जातियों से बहुत अलग हैं. इनकी अपनी परंपरा, विश्वास और रीति -रिवाज है, जो एक-दूसरे को अपनों से जोड़े रखती है. यही कारण है कि ये लोग अपनी जातीय एवं क्षेत्रीय एकता के लिए जागरूक रहते हैं. आदिकाल से आदिवासी समाज पितृवंश की परंपरा के आधार पर चलता आ रहा है. पितृवंश का मतलब है कि परिवार की संपत्ति पिता से पुत्र को विरासत में मिलती है. निवास और वंशज परंपरा पिता से पुत्र को मिलता है, जो अब तक इस समाज में यह पुरुष प्रभुत्व की परंपरा रहा है.

ईस्ट इंडिया कंपनी के आते ही आदिवासियों का शोषण शुरू

लेकिन, इनके समाज में समय के साथ अनेकों समस्या भी आती गयी. जब आदिवासी बाहरी समूहों के संपर्क में नहीं थे, तब इनका जीवन बहुत सरल और सुखद था. कालांतर में मुस्लिम शासक के आने से पहले ये लोग समाज की मुख्यधारा से अलग थे. मुस्लिम शासक के राज्य में इनके ऊपर राजस्व (लगान) लेने की प्रक्रिया चलायी गयी. मुस्लिम शासकों ने इनसे राजस्व तो लिया, लेकिन इन्हें ज्यादा क्षति नहीं पहुंचायी. इनके रीति- रिवाज और परंपराओं में हस्तक्षेप नहीं किया. लेकिन, जैसे-जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी का राज आया. इनके द्वारा आदिवासियों का शोषण शुरू हो गया.

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आदिवासियों को अपने अधिकार में करने लगे थे अंग्रेज

अंग्रेजी हुकूमत राज्य की खनिज संपदा को अपने अधिकार में कर आदिवासियों के आय के स्रोत को समाप्त कर उन्हें अपने अधिकार में करने की फिराक में लग गई. इसी समय आदिवासियों के बीच ईसाई धर्मगुरु अपने धर्म की शिक्षा इन भोले-भाले लोगों को देना शुरू कर दिया. जिसका परिणाम यह हुआ कि सीधे- साधे आदिवासियों ने ईसाई धर्म पर विश्वास कर लिया. मिशनरियों ने पहले इनकी बीमारी दूर करने के लिए इन्हें दवा खिलानी शुरू की. दवा खाकर इनकी बीमारियां जब दूर होने लगी. तब इन भोले- भाले आदिवासियों का मन- मस्तिष्क पादरियों के प्रति बदल गया. वे उनको अपना हमदर्द समझने लगे. सुख- दुःख का साथी मनाने लगे.

जमींदार-महाजनों ने उठाया लाभ

अंग्रेजों काे बस इसी समय का इंतजार था. इन आदिवासियों को विश्वास में लेकर उन्हें शराब (दारू) और अन्य का आदि बना दिया. धीरे-धीरे वे शराब के आदि होते चले गए, जिससे इनकी स्थिति बदतर हो गई. शराब की लत ने इन्हें कहीं का नहीं छोड़ा. काम- धंधा छोड़ वे दिन-रात शराब के नशे में रहने लगे. इससे इनकी स्थिति बदतर होती चली गयी. छल से अंग्रेजों ने निःशुल्क में शराब पिलाकर पहले इनकी आदत खराब कर दिया. बाद में इनसे इसी शराब के लिए पैसे वसूलने लगे. जिसका परिणाम यह हुआ कि ये लोग उनकी गिरफ्त में आ गए. यहीं से शुरू हुई इन आदिवासियों के जमीन की खरीद- फरोख्त और उनका शोषण. व्यर्थ उपभोग की आदत की पूर्त्ति के लिए जब इन्हें धन की जरूरत पड़ने लगी, तब उसकी पूर्ति के लिए आदिवासियों ने अपनी जमीन गिरवी रखना और बेचना शुरू कर दिया. जिसका फायदा उठाया गांव के जमींदार और महाजनों ने. उन्होंने औने-पौने दाम देकर इनकी जमीन का सौदा करना शुरू कर दिया. इस काम में ब्रिटिशों ने इनकी मदद भी की.

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आदिवासियों के ऊपर बढ़ता गया लगान और ऋण का बोझ

जैसे-जैसे समय गुजरता गया आदिवासियो के ऊपर लगान और ऋण का बोझ बढ़ता गया. वे पूरी तरह से बिखर गए. इनका खुशहाल जीवन अंग्रेजों की गुलामी करने को विवश हो गये. अब इन्हें समझ में आ गया कि उनकी स्वतंत्रता छीन चुकी है. ऐसे समय में इन्होंने तत्कालीन सरकारी अधिकारी और प्रशासन के पास मदद की गुहार लगाई, लेकिन उनसे उन्हें कोई सहायता नहीं मिली. सरकारी अधिकारी ज्यादातर गैर झारखंडी थे. इस कारण झारखंडियों से इनका भावात्मक जुड़ाव नहीं था. वे लोग भी इनका शोषण करते थे. न्याय व्यवस्था लाचार थी. पुलिस भी इनके प्रति अच्छा सलूक नहीं किया करते थे. एक प्रकार से पुलिस भी शोषक की तरह थी. वे महाजनों का शोषण, प्रशासकीय उपेक्षा, सरकारी भ्रष्टाचार और पुलिसिया उत्पीड़न से त्रस्त हो गए थे. कोर्ट-कचहरी इनके लिए असंभव था. महाजन और सूदखोर झूठा खाता-बही बनाकर इनका शोषण करने लगे थे.

आदिवासियों का टूटा था सब्र का बांध

इस प्रकार देखते ही देखते आदिवासियों के सब्र का बांध टूट गया. यही असंतोष आदिवासियों के मन में अंग्रेजों के प्रति विद्रोह की भावना पैदा कर गई. अंग्रेजों द्वारा झारखंड में जबरन नई व्यवस्था और संस्कृति थोपने से आदिवसियो में दिन प्रति दिन रोष बढ़ता गया. फलस्वरुप झारखंड बदले की आग में जलने लगा. इनके लिए इनका समाज, धर्म और अस्मिता ही सबकुछ थी. इसके लिए अंग्रेजों से लड़ाई लड़ने के अतिरिक्त इनके पास दूसरा और कोई रास्ता नहीं बचा था. फलस्वरूप झारखंड में विद्रोह की अग्नि प्रज्ज्वलित हो गई.

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