विकास कुमार

21वीं सदी तकनीकी क्रांति का दौर है। विज्ञान के क्षेत्र में नए नए अविष्कार से मानव सभ्यता अपने शिखर पर पहुंच रही है। वहीं इसके विपरीत आज सामाज में अंधविश्वास और रूढ़िवादी मान्यतायों, परंपराओं का बोलबाला हो रहा है। सामाजिक आन्दोलनों द्वारा हुए सामाजिक परिवर्तन की उपलब्धियों को प्रतिगामी शक्तियां पीछे धकेल रही हैं। विज्ञान और वैज्ञनिक सोच आज आमने-सामने है। चौथी औद्योगिक क्रांति के उदय और सामाजिक रूढ़िवाद की वापसी के विरोधाभास के इस दौर में समाज में वैज्ञानिक जागरूकता और वैज्ञानिक चेतना फैलाने का दायित्व पहले से ज़्यादा प्रतीत हो रहा है। समाजिक क्षेत्र में काम कर रहे लोगों की भी ज़रूरत है कि वे खुद भी वैज्ञानिक सोच से परिपक्व हों। इसी उद्देश्य से श्रुति (SRUTI) संस्था द्वारा झिरी (राजस्थान) में सामाजिक परिवर्तन शाला के पहले शिविर का आयोजन किया गया, जिसमें देश के विभिन्न हिस्सों से 44 सामाजिक कार्यकर्ता जुटे थे। छह दिनों तक चले शिविर में 18 -60 साल की आयु वर्ग के युवा और अनुभवी सामाजिक कार्यकर्ता थे। शिविर में विभिन्न खेल, ग्रुप एक्टिविटी, फ़िल्म, वीडियो, पोस्टर के माध्यम से यूनिवर्स/धरती की उत्पत्ति, मानव विकास क्रम, प्रभुत्व वर्ग का विकास, समाज में गैरबराबरी की उत्पत्ति आदि के बारे में चर्चा हुई। इसके अलावा कार्यकर्ताओं को विभिन्न हुनर सीखने का मौका मिला जिसमें रिपोर्टिंग, ज्ञापन लिखना, अख़बार के लिए खबर बनाना, गीत, नारे लिखना आदि शामिल था। कई रोचक तरीकों से सहभागिता के माध्यम से सीखने की प्रक्रिया का इस्तेमाल इस शिविर को ख़ास बनाता है। शिविर के बारे में विस्तार से जाने इस ख़ास आलेख में।

श्रुति संस्था द्वारा तर्कशील, वैज्ञानिक सोच पैदा करने की दूरदर्शी पहल

इस महीने 6-9 जून के बीच भोपाल में 17वीं आल इंडिया पीपुल्स साइंस कांग्रेस (All India People’s Science Congress) में भाग लेने का मौका मिला। 4 दिन तक चले कार्यक्रम में देश भर से वैज्ञानिक, जन विज्ञानी, सामाजिक कार्यकर्ता, शिक्षाविद आदि जुटे थे। इस कार्यक्रम से सोच बनी की मौजूदा राजनीतिक- सामाजिक परिपेक्ष में अतार्किक, अवैज्ञानिक, प्रतिगामी सोच हावी हो रही है, ऐसे में तर्कशील, जन विज्ञान आंदोलन को आगे बढ़ाने की ज़रुरत पहले से ज्यादा है, जन मानस में वैज्ञानिक चेतना, वैज्ञानिक सोच फ़ैलाने के साथ-साथ सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी अपने सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में वैज्ञानिक पद्धति अपनाने की ज़रुरत है। इसी सोच को आगे बढ़ाने की कड़ी में श्रुति संस्था भी शामिल है जिसने भोपाल से करीब 190 km दूर राजस्थान के झालवाड़ ज़िले के झिरी गाँव में 12-17 जून के बीच सामाजिक परिवर्तन शाला ( School for Social Change ) का आयोजन किया। शाला की कुल अवधि 35 दिनों की है जिसके अंतर्गत 5 शिविर देश के विभिन्न हिस्सों में अगले एक साल तक होंगे। झिरी का शिविर, नए बैच का पहला शिविर था। पिछले दो दशकों से श्रुति संस्था द्वारा सामाजिक परिवर्तन शाला का आयोजन किया जाता रहा है, जिसमें हजारों सामाजिक कार्यकर्ता लाभान्वित हुए हैं। कोरोना के प्रभाव से यह शिविर दो साल बाधित रहा था।

सामाजिक बदलाव का रणक्षेत्र झिरी गाँव

शहरी क्षेत्रों के प्रति लगाव और गाँवों के प्रति सरकार की नजरंदाज़गी झिरी पहुँचने की प्रक्रिया में साफ़ तौर पर दिखने लगती है। मुख्य सड़क से गाँव पहुँचना कोई चुनौती से कम नहीं लगा। पक्के सड़क के अभाव में, बारिश की समस्या और विकराल बन जाती है। बिजली भी कई दिनों तक नदारद हो जाती है। यह आज की बात है, ऐसे में 30 साल पहले की स्थिति की कल्पना कर सकते हैं। इसी उदासीनता के बीच देवेन्द्र भाई के नेतृत्व में झिरी समेत अन्य गावों के किसानों को संगठित करने में ‘हम किसान’ संगठन की शुरुआत हुई। आज ‘हम किसान’ संगठन का कार्यक्षेत्र 70-80 गावों में है. जनमुद्दों पर संघर्ष के साथ-साथ जब गाँव में शिक्षा व्यवस्था बदहाल थी, सरकारी अनदेखी कर रही थी, तब प्रतिकूल परिस्थितियों में संगठन ने दशकों पहले मंथन नामक एक स्कूल की भी शुरुआत की, जो आज भी आस-पास के गाँवों के बच्चों को वैकल्पिक शिक्षा मॉडल के तौर पर अपनी समाज-संस्कृति से जोड़ते हुए शिक्षा देता है। स्कूल से शिक्षा प्राप्त युवा आज समाज में नेतृत्व की भूमिका में हैं।

गाँव में स्व-रोजगार के तौर पर संगठन द्वारा हथकरघा उद्योग की शुरुआत हुई, यहाँ निर्मित कपड़े देश भर में विभिन इ कॉमर्स (e-commerce) साइट्स के माध्यम से भी बेचे जाते हैं। संगठन के प्रयास से आज गाँव में सिचाई की व्यवस्था भी सुधरी है। सोलर प्लांट भी देखा जा सकता जो बिजली की ज़रूरतों में सहायक होता है। संगठन द्वारा ही इस शिविर की मेजबानी गाँव में होनी थी। इससे पहले भी कई बार शिविर इस गाँव में हो चुका था।

आपसी परिचय से शुरु हुआ पहला दिन

भीषण गर्मी के बीच 11 जून की दोपहर से ही देशभर से प्रतिभागी झिरी में जुटना शुरू हुए। रात होने तक झारखंड, ओडिशा, महाराष्ट्र, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान से कार्यकर्ता लंबा सफ़र तय करते हुए यहाँ पहुंचे।

12 की सुबह नाश्ते के बाद प्रतिभागियों के परिचय के साथ शिविर की शुरुआत हुई। बाद में प्रतिभागियों को छोटे समूह में भी बांटा गया जहाँ समूह के लोग एक दूसरे से अपने सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन के बारे में साझा करने लगे। बाद में हर ग्रुप में एक सदस्य को कहा गया कि एक प्रतिभागी का जिक्र करे जिनका जीवन उन्हें प्रेरणादायक लगा। बायोपिक (Biopic) के दौर पर जब हम हीरोज़ का महिमामंडन करते हैं, शिविर में आए इन आम प्रतिभागियों की संघर्ष की कहानी सुनना सचमुच प्रेरणादायक था। कोई समाज में अंतरजातीय विवाह पर प्रतिबंध के खिलाफ बगावत कर खुद प्रेम विवाह करके मिसाल पेश करता, कोई पुलिसिया दमन के बावजूद सामाजिक बदलाव में अग्रणी है, पारिवारिक समस्या के कारण पढाई छूटी लेकिन अपने क्षेत्र में बदलाव लाया, हर कहानी अपने आप में मिसाल पेश करती है।

सोचने-समझने की अलग दृष्टि पैदा करना शिविर का मकसद : अमित भाई 

कार्यक्रम के ट्रेनर अमित भाई ने कार्यशाला के उदेश्य के बारे में बताते हुए कहा कि “शिविर में आए सामाजिक कार्यकर्ता अपने कार्यक्षेत्र में अभ्यस्त/निपुण हैं। कोई वन अधिकार के मुद्दे पर काम कर रहा है, कोई शिक्षा/ स्वास्थ्य के मुद्दे पर, कोई लिंग आधारित असमानता पर काम कर रहा है। लोगों की समस्या तो गंभीर होती है और वह तात्कालिक लाभ में रूचि दिखाती हैं और समाजसेवी भी उसी दिशा में उनके कठिनाइयों के समाधान में काम करते हैं। लेकिन मौजूदा असमानताएं या शोषण, चाहे वो जाति, लिंग, अर्थव्यवस्था के आधार पर हों, उन सब के पीछे एक व्यवस्था हैं जिसके बारे में सोच समझ कम ही होती है। इस सामाजिक परिवर्तन शाला की डिजाइनिंग में अनेक सीनियर सामाजिक कार्यकर्ताओं ने योगदान दिया है, इसमें आपके काम पर चर्चा नहीं होती बल्कि समाज में जो गैरबराबरी देखते हैं, चाहे वो बाज़ार व्यवस्था है, धर्म का विकास, राजनीतिक व्यवस्था इसकी सोचने समझने की अलग दृष्टि पैदा करती है। शिविर से बनी समझ से आप अपने संगठन में भी बैठकर लोगों से इस पर चर्चा कर सकते हैं।”

एक्टिविटी के तहत विभिन्न राज्यों के प्रतिभागियों ने अपने क्षेत्र की भौगौलिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विशेषताओं को पेश करना था। हर ग्रुप ने मैप के ज़रिये इसका विस्तार से वर्णन किया, इसके अलवा श्रोताओं के उत्सुक सवालों का भी जवाब दिया। सभी ग्रुप्स को सुनना काफी लाभदायक रहा। देश की विभिन्न क्षेत्रों की प्राकृतिक संपदा जैसे जंगल, नदी, खेत, पहाड़, खान आदि संपदा के बारे में कई नई जानकारी मिली। पहाड़ी क्षेत्रों और मैदानी क्षेत्रों में कौन सी अलग-अलग फसलें उगाई जाती हैं। विभिन्न क्षेत्रों में रोज़गार के क्या साधन हैं। ओडिशा में खनन के कारण, स्थानीय आबादी, प्रदूषण, विस्थापन, गैरबराबरी की मार झेल रही है। कार्यकर्ताओं से ज्ञात हुआ की मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान के क्षेत्रों में आज भी महिलाओं की स्थिति ख़राब है, उन्हें सामाजिक कुरीतियों का सामना करना पड़ता है। अशिक्षा, घूँघट प्रथा आम बात है। हैरानी हुई कि पहाड़ी क्षेत्रों जैसे हिमाचल के विभिन्न ट्राइब्स में भी काफी असमानता है, कुछ समूह आरक्षण के कारण आगे बढ़ गए, कुछ समूह आज भी जनजातीय स्टेटस की मांग कर रहे हैं। कार्यकर्ताओं ने क्षेत्र की सामाजिक व्यवस्था का विस्तार से जिक्र किया, कौन से समूह प्रभावशाली हैं, किन समूहों को जातीय उत्पीडन झेलना पड़ रहा है, वहीं सामाजिक आन्दोलनों के कारण कई पिछड़े क्षेत्रों में जहाँ छुआछूत आम बात थी, आज विभिन्न समूहों के बीच सामाजिक समरसता भी मौजूद है।

एक सत्र का नाम था “किसकी चलती है ”  जिसमें प्रतिभागियों से पूछा गया की उनके क्षेत्र में आखिर किसकी चलती है यानी जाति, लिंग, वर्ग के आधार पर कौन प्रभावशाली है। इसमें जाति के आधार पर ब्राह्मण, मराठा, राजपूत, मीणा, ठाकुर आदि समुदाय का लोगों ने नाम लिया, लिंग के आधार पर पुरुष का जिक्र किया। इसी बीच प्रताभागियों से पूछा गया कि वे अपने क्षेत्र में उनके नेताओं की संपत्ति के बारे में बताएं, जिसमें लोगों ने कार, बंगला, हेलीकाप्टर, चीनी कारखाना, पेट्रोल पंप, माइंस महल आदि का जिक्र किया। अंत में संचालक ने कहा कि सत्ता का चरित्र में बदलाव नहीं हो रहा, यह पूँजी का खेल बन कर रह गया है। कार्यकर्ता के लिए यह ट्रेनिंग का हिस्सा होना चाहिए कि वो पैसे के फॉलो करे, उसके स्रोत को जाने। यह जनता का पैसा है जिससेएक तबका प्रभावशाली बनता है।

शिकारी से कृषि समाज का सफ़र

“किसकी चलती है ” सत्र में चर्चा हुई थी कि किस तरह से आज एक वर्ग प्रभावशाली है, जिसके पास बेशुमार संपत्ति है, दूसरी तरफ़ बहुसंख्यक जनता आज भी दो वक्त रोटी के लिए जद्दोजहद करती है। इस ग़ैरबराबरी का विकास आख़िर कैसे हुआ? आज धरती की 7 अरब से ज्यादा आबादी जिस आर्थिक व्यवस्था में जी रही है उसे पूंजीवादी समाज (late Capitalist Society ) भी कहते हैं। धरती की अधिकांश आबादी अपने श्रम को बेचकर मिली पूंजी से ही जीवनयापन करने को मजबूर है। लेकिन मौजूदा व्यवस्था लाखों सालों के विकास क्रम का हिस्सा है। इस शुरूआती विकास क्रम की उत्पत्ति के बारे में समझ विकसित करने के लिए शिविर का एक सत्र हुआ। सभी प्रतिभागियों को तीन हिस्सों में बांटा गया: शिकारी, पशुपालक और कृषि समाज। हर समूह को कहा गया वे बताएं कि दूसरे समूहों के साथ किस तरह का विवाद हुआ होगा और समाधान किस तरह हुआ होगा।
शिकारी समूह कहने लगा कि कृषि समाज जंगल काटकर खेती कर रहा है, उनके क्षेत्र पर अतिक्रमण कर रहा है, उनकी महिलाओं बच्चों को गुलाम बनाकर श्रम करा रहा है, दूसरी तरफ पशुपालक समाज ने शिकारी समाज पर आरोप लगााया कि उनके मवेशियों का शिकार उस समूह द्वारा किया जाता है। अंत में ग्रुप्स ने आपसी टकराव के समाधान भी बताए, जिसमें मुखिया चुनना, सीमा निर्धारित करना, वस्तु विनिमय प्रणाली (Barter System ) शामिल था। यह भी समझ बनी कि आज भी इन इलाक़ो में झगड़ा बरक़रार है, जंगल पर आश्रित समुदाय, पशुपालक आज भी अपने जमीन के मालिकाना हक़ के लिए सघर्ष कर रहे हैं, आज एक नया पूंजीपति वर्ग, शहरी उच्च वर्ग भी जंगलों और संसाधनों पर अपना दावा करता है।

एक्टिविटी के बाद इसी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए ट्रेनर अमित भाई ने विस्तार से बताया कि 3 लाख साल तक मनुष्य प्रजाति भोजन प्राप्त करने के लिए शिकारी- संग्रहक थी। 10,000 साल पहले ही खेती विकसित हुई थी। आगे उन्होंने बताया कि समाज में रक्षक या सैनिक समूह समाज में प्रभावशाली होने लगा और बाद में पुजारी वर्ग भी विकसित हुआ, जिसने इसी रक्षक समूह जो बाद में राजा के तौर पर विकसित हुआ, उसे ईश्वर का एक रूप कहा और राज करने का हक़ प्रदान किया। शुरुआती सहभागी समाज से मानव समाज में श्रम विभाजन हुआ, बाद में वर्ण व्यवस्था भी बनी जिसमें कुछ समूहों को नीचे दर्जे का काम दिया गया। शुरआती काल में जहाँ बच्चों की परवरिश पूरा समाज करता था, निजी संपत्ति की व्यवस्था के उदय के बाद शादी, परिवार जैसी संस्थाएं भी बनने लगी। पितृसत्ता का विकास भी हुआ। लेकिन इसके उलट आज भी कई आदिवासी इलाकों में मातृसत्ता कायम है, जहाँ माँ के पास ही संपत्ति रहती है, जो बाद में बेटी की विरासत होती है। रात में एक फिल्म की भी प्रदर्शनी हुई जिसमें आदि काल में कबीले समूह के बीच संघर्षो को दिखाया गया, किस तरह से एक कबीलाई समाज दूसरे को गुलाम बनाता है, सुबह में चर्चित विषय की कई चीज़ें फिल्म में दिखी।

भारत के परिपेक्ष्य में भी चर्चा हुई कि किस तरह से अलग-अलग समय में विभिन्न मानव समूहों का प्रवास हुआ , 65,000 साल पहले प्राकृतिक कारणों से अफ्रीका से निकले मानव भारत भी पहुंचे थे, वे प्रारंभिक भारतीय थे। 10,000 साल पहले मेहरगढ़ (मौजूदा पाकिस्तान) में ईरान के क्षेत्र से किसान समूह भारत पहुंचे, उन्होंने जंगली बीजों को पालतू बनाया। जोवार, गेहूं की खेती की। इसी समूह का प्रारंभिक भारतीय से मिश्रण हुआ जिन्होंने सिन्धु घाटी सभ्यता का विकास किया। सिंधु घाटी के पतन के वक्त ही 4000 साल पहले मध्य एशिया के कजाखस्तान (Kazakhstan) से पशुपालक समूह विभिन्न कालखंड में भारत पहुंचे, इन्हें हम आर्य भी कहते हैं।

बिग बैंग (Big Bang) से यूनिवर्स की उत्पत्ति से लेकर धरती और उसमें जीवन का विकास

सामजिक कार्यकर्ता विभिन्न सामाजिक, धार्मिक पृष्ठभूमि से आते हैं जहाँ यूनिवर्स और धरती की उत्पत्ति के अनेक किस्से वे सुनते आए हैं, कई लोककथाएं भी इसमें शामिल हैं। इन कहानियों में ईश्वर को धरती और मानव की उत्पत्ति में भूमिका निभाने की बात कही गई। प्रतिभागियों से उनके धर्म/ समुदाय में इससे जुड़े कहानियों को बताने के लिए कहा जिन्हें वे बचपन से सुनते आए हैं। एक प्रतिभागी ने कहा कि वे सुनते आए हैं की एक प्रलय से यह श्रृष्टि बनी। एक ने कहा कि वे बचपन से यह कहानी सुनते आए हैं कि भूकंप का कारण है कि धरती के नीचे एक विशाल मछली है, जो हिलती है तो धरती हिलती है। एक आदिवासी लोककथा के
अनुसार धरती में एक बड़ा भूकंप आया, जिसमे सिर्फ भाई-बहन ही बचे थे जो बाद में प्रकृति पूजक बने।

इन धार्मिक मान्यताओं और कहानियों के विपरीत विभिन्न स्लाइड्स और विडियो के माध्यम से समझाया गया कि किस तरह से यूनिवर्स की उत्पत्ति 13.7 अरब साल पहले बिग बैंग द्वारा हुई, इससे उर्जा पैदा हुई और Quark यानी बारीक कण निकले। इसके बाद अलग अलग प्रक्रिया से सौर्य मंडल बना, सूरज जैसे तारे बने और बाद में धरती भी बनी। ऑस्ट्रेलिया में एक शालिग्राम पत्थर में 4.3 अरब पुराना zirconium तत्व मिला जिससे वैज्ञानिकों को मालूम चला कि धरती 4.3 अरब साल पुरानी है। चाँद के विकास के बारे में भी बताया गया।

धरती में जीवन की उत्पत्ति की कहानी के बारे में विस्तार से बात हुई , किस तरह से cyanobacteria जो मीथेन और कार्बन डाइऑक्साइड साँस में लेते थे और वातावरण में ऑक्सीजन छोड़ते थे। लम्बे वक्त के बाद ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ने से जीवन संभव हो पाया। जीवों के विकास की प्रक्रिया को भी काफी सरल ढंग से समझाया गया की कैसे नर्म जीव से लेकर स्तनधारी जीवों का विकास एक लंबे प्राकृतिक प्रक्रिया का हिस्से रहा 6.5 करोड़ साल पहले एक उल्का पिंड के धरती से टकराने से डायनासोर समेत धरती की 80 प्रतिशत जीव-जंतु ख़त्म हुए। इसके बाद धरती में स्तनधारियों का विकास तेजी से हुआ। डार्विन का सिद्धान्त के बारे में बताया गया कि प्रजातियाँ जो वातावरण के अनुरूप खुद को ढाल पाती हैं, वह ही बच पाती है। जीवाश्म के बारे में जानकारी दी गई, कई प्रतिभागियों में उत्सुकता थी कि किस तरह से अलग-अलग माध्यम से जीवाश्म को जांचा-परखा जाता है, जिसका उत्तर भी दिया गया।

मानव के विकास क्रम के बारे में रोचक जानकारी दी गई कि किस तरह से Hominids (Common Ape Ancestors) से 70 लाख साल पहले मानव प्रजाति विकसित होनी शुरू हुई, मानव की अनेक प्रजातियाँ भी एक वक़्त थी, जैसे की Neanderthals, homo erectus, homo habilis आदि। इस पर एक फिल्म लूसी भी दिखायी गयी जिसमें एक hominid किरदार लूसी से मानव उत्पत्ति का कहानी का जिक्र होता है। ट्रेनर अमित भाई ने बताया कि Homo Sapiens Sapiens की सफलता का राज उसकी भाषा और कहानी कहने की कल्पना थी, जिससे लाखों, करोडों मानव एकजुट हो सकते हैं और सहभागी बन सकते थे। सत्र के अंत में कहा गया कि धरती में असीम जैव विविधता है, हर प्राणी एक दूसरे पर निर्भर है, आज लेकिन मानव तेजी से इस जैव विविधता को खत्म कर रहा है, यह मौजूदा शिक्षा व्यवस्था का भी परिणाम है कि हम आज खुद को प्रभु समझ रहे हैं, प्रकृति को काबू करना चाह रहे हैं। अंतिम दिन विभिन्न ग्रुप्स को अलग-अलग पोस्टर्स के माध्यम से शिविर के दौरान चर्चा किए गए यूनिवर्स की उत्पत्ति से लेकर मानव के विकास क्रम को दर्शाना था जिसे बाद में प्रदर्शित भी किया गया।

सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सीखा कई हुनर

हर सुबह 7:30 बजे, खुले मैदान में बने पोडियम में शिविर की शुरुआत होती है। गाँव में सुबह 6 बजे से हलचल दिखनी शुरू हो जाती। सुबह-सुबह एक ग्रुप पहाड़ों में भ्रमण करने चला जाता और नीलगाय, हिरण देखने का दावा भी करने लगता। बाथरूम की संख्या और प्रतिभागियों की संख्या के अनुपात में भारी अंतर होने के कारण, पानी की एक टंकी के चारो और पुरुष खुले में ही सामूहिक स्नान करते दिख जाएंगे। मैले कपड़े को खुद ही साफ़ करना पड़ता है। देर रात तक गपशप करके सोने वाले लोग की सुबह भी जल्दी हो जाती है। चाय की गरम प्याली लिए वे बीते दिन के किस्सों पर चर्चा करते दिखेंगे।

सभी प्रतिभागियों को विभिन्न समूहों में बाटा गया है और अलग-अलग ज़िम्मेदारी दी गई है। एक ग्रुप को अख़बार निकालना है, खबरों को लिखकर सुबह सबके सामने प्रस्त्तुत करना है। इन खबरों में क्षेत्रीय समस्या के अलावा गाँव और शिविर में हो रही दिक्कतों का भी वर्णन होता था। कुछ मजाकिया गपशप भी। एक ग्रुप को पोस्टर के जरिये बीते दिन चर्चित विषय वस्तु को समझाना पड़ता था, नारों के अवाला खुद से लिखे सामाजिक परिवर्तन के गीत को गाते थे। एक ग्रुप के सभी सदस्यों को ज्ञापन लिखकर प्रस्तुत करना था, जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, महिला हिंसा आदि मुद्दों पर प्रशासन का ध्यान आकर्षित करना था। इन्हें प्रतिभागियों में एक व्यक्ति प्रशासन के भूमिका में था और समस्या का समाधान का आश्वासन देता। एक ग्रुप को दिन भर की
रिपोर्टिंग भी करनी होती थी।

एक समूह व्यवस्था ग्रुप थी जिसे शिविर के सुचारू ढंग से संचालित करने की ज़िम्मेदारी थी। एक ग्रुप को ज़िम्मेदारी दी थी वह दिन भर शिविर में पीने, नहाने और बर्तन साफ़ करने के लिए पानी की व्यवस्था पर निरंतर नज़र रखे, पीने के पानी की कमी होने पर खुद हैंडपंप से पानी भर पर स्थल पर रखे। सभी को खुद के बर्तन भी साफ़ करना पड़ता था।

शिविर में छोटी-छोटी चीज़ों पर ध्यान रखा गया कि शिविर का सुचारू ढंग से आयोजन सिर्फ आयोजनकर्ता की ही नहीं, बल्कि शिविर में आए सभी प्रतिभागियों की यह सामूहिक ज़िम्मेदारी हो। शिविर में सहभागिता पर ध्यान रखा गया। सामाजिक क्षेत्र में काम कर रहे लोगों को मुद्दों की समझ के अलावा टाइम मैनेजमेंट, कर्त्तव्यबोध होना जरूरी होता है। सुबह 7:30 बजे से शुरू हुआ दिन शाम 7 बजे खत्म होता था। इस बीच नाश्ता, चाय और लंच ब्रेक भी शामिल था। रात के खाने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम का दौर चलता था। हर दिन- कभी खुले मैदान में, कभी छत पर, या किसी दिन विश्राम कक्ष में, लोग जुटते थे, अपने क्षेत्र के लोकगीत को गाते हुए। कभी वाद्ययंत्र भी सहायक होते। इस संगीतमय वातावरण में शिविर की रात देर तक चलती थी। लाइट ऑफ होने पर भी देर रात तक एक दूसरे से हंसी- मजाक करते, किस्से सुनाते लोग दिख जाएंगे।

प्रतिभागियों में एक दूसरे की भाषा को सीखने का भी जज्बा दिख रहा। साथ में रहने पर एक दूसरे की सांस्कृतिक विविधता को जानने समझने का भी बेहतर मौका मिला।

आस्था, परंपरा में सवाल पूछने की छूट नहीं , विज्ञान में उत्तर खोजने के प्रयास होते : देवेन्द्र भाई 

आखरी दिन के पहले सत्र का संचालन सामाजिक कार्यकर्ता और गाँव के निवासी देवेन्द्र भाई ने किया। उन्होंने आस्था, परम्परा, धार्मिक मान्यता और विज्ञान के बीच फर्क पर चर्चा की। पहले उन्होंने Copernicus, Bruno, Eratosthenes जैसे वैज्ञानिकों के जीवन पर प्रकाश डाला। जब आम मान्यता थी कि धरती बीच में है और सूरज उसके चारों और घूमता है, इससे हम धरती और मानव के सर्वोच्च होने की बात करते थे, खगोलशास्त्री Copernicus ने 15वीं शदाब्दी में सृष्टि का एक मॉडल तैयार किया जिसने पृथ्वी के बजाय सूर्य को अपने केंद्र में रखा। 16वीं शदाब्दी में ब्रूनो ने कहा कि सृष्टि का का कोई केंद्र नहीं है, और तारे सूर्य हैं, जो ग्रहों और चंद्रमाओं से घिरे हैं। उनके दावे के बाद चर्च ने धार्मिक भावनाओं को आहत करने के जुर्म के उनको जिंदा जला दिया। उन्होंने Eratosthenes के बारे में चर्चा करके बताया की 2000 वर्ष पहले उन्होंने एक व्यक्ति द्वारा कुएं में सूरज चमकने की बात सुनकर, बाद में पृथ्वी का व्यास/परिधि ( diameter/perimeter ) को नापा था, जो वास्तविकता के काफी करीब था । देवेन्द्र भाई ने कहा कि जहाँ आस्था, परंपरा में सवाल पूछने की छूट नहीं, विज्ञान के पास भले सारे प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं पर उत्तर खोजने के प्रयास होते हैं। धार्मिक ग्रंथों में जो लिखी हुआ है, उसे चुनौती नहीं दी सकती, लेकिन विज्ञान में शोध से मिले नए ज्ञान पर हर्ष व्यक्त किया जाता है। वैज्ञानिक चेतना हर वक्त विकसित होती रहती है।

प्रतिभागियों के फीडबैक सत्र के बाद ख़त्म हुआ शिविर

17 जून दोपहर के भोजन के बाद सभी प्रतिभागियों से शिविर के अनुभव साझा करने के लिए कहा गया, इसके अलावा सुझाव भी आमंत्रित किया गया।

राजस्थान के चित्तौड़गढ़ से शंभूनाथ ने कहा, ” मैं पहले घर से गांव से बाहर ज़्यादा निकला नहीं, घर से जब निकला तो सोचा कि ट्रेनिंग कैसी होगी, जब मैं आया तो अलग-अलग राज्यों के लोगों से परिचय किया। हिमाचल, झारखंड, उत्तराखंड के लोग अलग होंगें, सभी से मिलकर लगा कि मेरा परिवार ही यहीं है, नई चीज़ सीखने को मिली कि किस तरह से शिकारी समाज से हम पशुपालक समाज बने। धरती और जीवन की उत्पत्ति के बारे में हमने पढ़ा था, लेकिन उसे पूरी तरह भूल चुका था। शिविर में विस्तृत जानकारी से लाभान्वित हुआ।”

उत्तराखण्ड के मोहम्मद शफिक जो वन गुज्जर समाज से आते हैं, उन्होंने कहा, “जब मैं उत्तराखण्ड से शिविर के लिए निकल रहा था, परिवार ने कहा कि कोई वन गुज्जर तुम्हारे साथ जा रहा है क्या? क्योंकि वहाँ अलग-अलग भाषाओं, राज्यों के लोग आएंगे, कैसे समझ पाओगे? मैं भी समझ रहा था कि काफी कठिन रहेगा, लेकिन यहाँ आकर सभी लोग बहुत मिलनसार लगे, लगा कि अपने परिवार में ही आया हूँ। शिविर से मुझे समझ आया कि हमे जाति, धर्म आदि के नाम पर बांटा गया है, लेकिन हम सभी के पूर्वज एक थे। हम एक ही परिवार के लोग थे, और आज भी एक ही परिवार के हैं, दूसरी बात समझ में आई कि विज्ञान ही सबसे बड़ा है। शिक्षित होने के बाद ही विज्ञान के माध्यम से लोगों ने विभिन्न खोज की है। पर्यावरण और वन जीवों को भी जिंदा रखना ज़रूरी है, तभी हम भी जीवित रह सकते हैं।”

मध्यप्रदेश की कार्यकर्ता संगीता ने अपना अनुभव साझा करते हुए कहा,  “मैंने ज़्यादा पढ़ाई नहीं की है, घर की स्थिति खराब होने के कारण। बचपन से ही विज्ञान पढ़ना मुझे पसंद था, यह सब सुना और देखा तो समझ में आया कि हमारी उत्पत्ति कहाँ से हुई, जीवों का विकास के बारे में समझी।”

झारखंड के गुमला के एडविन टोप्पो ने कहा “यहाँ का शिविर मुझे अच्छा लगा, पहले भी सुने थे कैसे धरती और मनुष्य की उत्पत्ति हुई, लेकिन यहाँ विस्तार से जानने को मिला। सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते आस्था से अलग रहके अपना काम करना चाहिए, आस्था पर जाते हैं तो सिर्फ एक आस्था पर रह जाते हैं। सब को बराबर देख नहीं पाते हैं।”

छिंदवाडा , मध्यप्रदेश के कार्यकर्ता दिनेश ने कहा, “पहली बार मुझे मालूम चला कि मनुष्य की उत्पत्ति अफ्रीका में हुई और वहीं से वह दुनिया भर में फैला।”

महाराष्ट्र की द्रौपदी ने कहा, “सही मायने में हम सब एक हैं, क्यूंकि शिविर के माध्यम से जानकारी मिली लूसी नामक होमिनिड (Ape Ancestor) से ही हम सभी मानव की उत्पत्ति हुई।”

कुछ लोगो के लिए शिविर चुनौतीपूर्ण भी था, पहली बार कई लोग इस तरह के ग्रामीण परिवेश और जंगल से सटे शिविर में भाग ले रहे थे। पानी और बिजली की समस्या के आदी नहीं थे, इस पर ट्रेनर अमित भाई ने कहा कि देश की अधिकांश आबादी जिस परिस्थिति में रहती है, शिविर के माध्यम से उसे समझने का भी यह अवसर था।

कई लोगों का सुझाव था कि शिविर के दौरान यहाँ की क्षेत्रीय संस्कृति, विरासत को समझने के लिए एक दिन का एक्सपोज़र विजिट भी होना चाहिए। कुछ विषय पर विस्तार से भी चर्चा होनी चाहिए, शिविर में भाग लेने वाले प्रतिभागियों की महीने में दो बार ऑनलाइन मीटिंग भी होनी चाहिए जिस पर कुछ विषय वस्तु पर चर्चा हो सके।

शिविर के अंत में सभी प्रतिभागियों को अगले शिविर में आने से पहले कार्य दिया गया कि वे अपने क्षेत्र में ‘किसकी चलती है’, उसका डाटा जुटाएं। इसके अलावा अपने क्षेत्र में भी स्कूल,कॉलेज या गाँव में आम लोगों के बीच वैज्ञानिक चेतना फ़ैलाने का काम करें।

सामाजिक परिवर्तन शाला के पहले शिविर में भाग लेना, सीखने, सुनने, समझने और साझा करने का अच्छा अनुभव रहा। इस शिविर की ख़ास बात सहभागी तरीका से सीखने की प्रक्रिया थी। सीखने-सिखाने के विभिन्न माध्यमों का सार्थक प्रयोग इसे रोचक के साथ मनोरंजक भी बनाता। शिविर में भाग ले रही अच्छी खासी संख्या ने ग्रामीण परिवेश में अपने स्कूली शिक्षा ग्रहण किया है।हमारी शिक्षा व्यवस्था में आपसी संवाद की संभावना कम ही रही है, छात्र-छात्राएँ सवाल पूछने से कतराते हैं। पहली बार शिविर में सवाल करने, अपनी टिपण्णी देने की खुली छूट कई लोगों के लिए नया अनुभव था। दुनिया कैसे बनी से लेकर दुनिया ऐसे कैसे बनी, इन सब पर व्यापक दृष्टि बनने की बीज लगाई गई। शिविर के सफल आयोजन के लिए ट्रेनर अमित भाई , तकनीकी संचालन के भूमिका में मोहन भाई , देवेन्द्र भाई और झिरी ग्रामवासी बधाई के पात्र हैं।

संघर्ष के साथ, वैज्ञानिक चेतना का विकास करने का रचनात्मक प्रयास भी ज़रूरी

अंधभक्ति, अंधविश्वास के इस दौर में, वैज्ञानिक सोच और वैज्ञानिक चेतना हाशिये पर जाती दिख रही है। आज हर मुद्दे पर तत्काल प्रतिक्रिया देने को आतुर, सड़क पर उतरने वाले संगठनों में भी अपने कार्यकर्ताओं में वैज्ञानिक चेतना का विकास करना प्राथमिकता में नहीं दिखती। आज ज़रूरी है संघर्ष के साथ, निरंतर रचनात्मक कार्य भी किया जाए। युवाओं और पुरानी पीढ़ी के बीच आपसी संवाद बनाने के आयाम ढूंढे। निरंतर अपने कार्यकर्ता में वैज्ञानिक सोच पैदा करें। सूचना के सागर में आज फर्जी ख़बरों का भी बोलबाला है। इसे फैक्ट चेक करके सही जानकारी भी इकट्ठा करना भी एक बड़ी ज़िम्मेदारी है। आज कार्यकर्ताओं में भी लिखने-पढने की आदत कम होती जा रही है, ऐसे में सामाजिक बदलाव के लिए जिस व्यापक सोच और दृष्टि की ज़रूरत होती है, उसकी कमी साफ़ दिखती है। सामाजिक-राजनीतिक संगठनों के लिए ज़रूरी है की टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल सिर्फ अपने प्रचार के लिए नहीं, अपने लोगों को शिक्षित करने के लिए करना चाहिए। इस तरह के शिविर देश भर में विभिन्न कोनों में होने चाहिए, ताकि एक वैज्ञानिक, तार्किक समाज और देश का निर्माण हो सके, क्यूंकि भारत के संविधान में हर नागरिक का मौलिक कर्त्तव्य है कि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद विकसित करे।

विकास कुमार स्वतंत्र पत्रकार , रेसेअर्चेर और प्रगितिशील सिनेमा आंदोलन से जुड़े है . वैज्ञानिक चेतना टीम के साथ भी जुड़े है

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