संसद के वर्तमान मानसून सत्र में चार सांसदों ने आदिवासी समुदायों से जुड़ा एक बेहद महत्त्वपूर्ण सवाल पूछा है। इस सवाल को पूछनेवाले चारों सांसद काफी पढ़े-लिखे हैं। ये सांसद हैं डॉक्टर श्रीकांत एकनाथ शिंदे, प्रोफेसर रीता बहुगुणा, डॉक्टर सुजन विखे पाटील और डॉक्टर हिना विजयकुमार गावित। अब उस सवाल पर आते हैं, जो इन चारों सांसदों ने आदिवासी मामलों के मंत्रालय से पूछा है। इन्होंने सवाल को चार हिस्सों में बाँटा है। इस सवाल के पहले हिस्से में पूछा गया है, कि साल 2014 से देश में जनजातीय लोगों की औसत जीवन प्रत्याशा में सुधार का राज्यवार/संघ या क्षेत्रवार ब्योरा क्या है?
इस सवाल का दूसरा हिस्सा है, जनजातीय समुदायों में दर्ज किए गए कुपोषण के मामलों की संख्या में गिरावट का राज्यवार ब्योरा क्या है? इन चार सांसदों ने आगे पूछा है, कि देश भर में, विशेषकर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में कार्यशील पोषण पुनर्वास संख्या कितनी है और उसका ब्योरा क्या है? इस सवाल का अंतिम हिस्सा है, कि उक्त केंद्रों (पोषण केंद्र) के क्षमता संवर्धन से संबंधित किन्हीं योजनाओं या कुपोषण से लड़ने और जनजातीय आबादी की औसत जीवन प्रत्याशा में वृद्धि के लिए उठाए गए कदमों का ब्योरा क्या है?
इस सवाल का जवाब सरकार ने काफी विस्तार से दिया है। लेकिन चार सांसदों ने जनजातीय मंत्रालय से जो सवाल पूछा है उससे जुड़ी जानकारी इस सात पेज के जवाब से निकालना कोई मामूली काम नहीं है। इसके लिए आपको एक एक्सपर्ट चाहिए जो आँकड़ों को समझता हो। मसलन इस सवाल के पहले हिस्से में पूछे गए सवाल के जवाब में जनजातीय कार्य मंत्रालय ने कहा है, कि भारत के महापंजीयक कार्यालय यानी रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया को सभी भारतीयों की जीवन प्रत्याशा यानी औसत जीवन की संभावना के बारे में आँकड़े देता ही है। अगर आप यह जानकारी देते हैं तो उन आँकड़ों को देख सकते हैं।
भारत के आदिवासी समुदायों पर उसके पास अलग से ऐसी कोई जानकारी नहीं है। यानी यह मान लिया गया है, कि अगर भारतीय नागरिकों के जीने का औसत समय बढ़ा है तो आदिवासियों का भी बढ़ा ही होगा। इसके बाद आते हैं सवाल के दूसरे हिस्से पर जिसमें कुपोषण के मामलों में गिरावट की संख्या के बारे में राज्यवार आँकड़े माँगे गए हैं। इस सवाल के जवाब में जनजातीय कार्य मंत्रालय ने एनएफएचएस (National Family Health Survey) के आँकड़ों का जिक्र करते हुए कुछ जानकारी देने की कोशिश की है। इस बारे में जानकारी देते हुए मंत्रालय ने 5 साल से कम उम्र के आदिवासी बच्चों में कुपोषण से जुड़े कुछ संकेतकों के आँकड़े पेश किये हैं। इसमें उम्र के हिसाब से बच्चे का कद, बच्चे का वजन, लंबाई के हिसाब से बच्चे का वजन और बच्चों में क्षय रोग (TB) के आँकड़ों की जानकारी दी गई है।
इस जानकारी के अनुसार पिछले 8 साल में यानी जब से केंद्र में नरेन्द्र मोदी सरकार आई है, आदिवासी समुदाय के बच्चों में पोषण की स्थिति सुधरी है। इस बारे में दी गई जानकारी के हिसाब से आदिवासी बच्चों में गंभीर कुपोषण की व्यापकता कम हुई है। आँकड़े कहते हैं, कि 5 साल से कम उम्र के आदिवासी बच्चों में अगर 2015-16 के NFHS के आँकड़ों की तुलना नवीनतम सर्वे यानी 2019-21 से की जाए तो हालत बेहतर हुई है। इन आँकड़ों के अनुसार 5 साल से कम आयु के आदिवासी बच्चों में स्टंटिंग यानी उम्र के हिसाब से कद के मामले में सुधार देखा गया है। यह 2015-16 में 43.8 प्रतिशत था। अब यह घट कर 40.9 प्रतिशत हो गया है। यानी हालत थोड़ी ही सही लेकिन सुधरी है, उसी तरह से उम्र और कद के हिसाब से वजन के मामले में भी हालत सुधरने का दावा किया गया है।
संसद में दिए गए जवाब में पेश आँकड़ों के अनुसार आदिवासी समुदायों में लंबाई के अनुपात में कम वजन के पहले 27.4 प्रतिशत बच्चे थे और अब यह संख्या 23.4 प्रतिशत हो गई है। लेकिन उम्र के हिसाब से कम वजन के बच्चों की तादाद अभी भी काफी है लेकिन इसमें भी सुधार का दावा किया गया है। इस बारे में बताया गया है, कि पहले 45.3 प्रतिशत बच्चे कम वजन के थे और अब यह संख्या कम हो कर 39.5 प्रतिशत हो गई है। इन आँकड़ों को समझना आसान नहीं है। फिर भी इन आँकड़ों को पढ़ने से पहली नजर में जो लगता है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि इन आँकड़ों में जो सुधार दिखाई देता है उसमें केंद्र सरकार का कोई खास और नया प्रयोग या प्रयास है ऐसा नहीं बताया गया है।
इसके अलावा यह भी देखा जा सकता है, कि जिन राज्यों में आदिवासी आबादी बड़ी है वहाँ हालत खराब ही है। दो बड़े राज्यों मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र या फिर ओड़िशा अभी भी इस मामले में काफी पिछड़े हुए हैं। जहाँ राज्यों में बीजेपी की सरकार है वहाँ भी हालत कोई बहुत अच्छी नहीं है। ऐसा लगता है, कि डबल इंजन की सरकार भी आदिवासियों में कुपोषण मिटाने में कुछ खास काम नहीं कर पा रही है। इन आँकड़ों में जो सुधार नजर भी आता है उसका श्रेय दरअसल दक्षिण भारत के राज्यों को है।
कुपोषण से माताओं और बच्चों को बचाने के लिए जनजातीय कार्य मंत्रालय ने सरकार के रटे-रटाए आँकड़ों और भाषणों के कुछ अंशों को विस्तार से पेश कर दिया है। लोकसभा में पेश इस जवाब में बजट भाषण में पोषण केंद्रों के लिए की गई घोषणाओं और सरकार की दूसरी योजनाओं पर बड़ी-बड़ी बातें कही गई हैं। लेकिन सांसदों ने जो सवाल पूछा है, उसका जवाब नहीं मिलता है। सांसदों ने स्पष्ट रूप से पूछा है, कि आदिवासी इलाकों में कुपोषण के लिए लड़ने के क्या क्या कदम उठाए गए हैं और उनका ब्योरा दिया जाए। लेकिन इस जवाब में आदिवासी इलाकों के लिए खासतौर पर चलाए जाने वाले कार्यक्रमों की बात करने की बजाए, सरकार की प्रचार सामग्री को पेश कर दिया गया है। सात पेज के इस जवाब में काम की बात ढूँढ़ना भूसे में सूई ढूँढ़ने जैसा है।