विश्व आदिवासी दिवस आदिवासियों के मूलभूत अधिकारों की सामाजिक, आर्थिक और न्यायिक सुरक्षा के लिए प्रत्येक वर्ष 9अगस्त को मनाया जाता है। पहली बार आदिवासी या मूलनिवासी दिवस 9 अगस्त 1994 को जेनेवा में मनाया गया। इस दिवस की प्रासंगिकता के बारे में बता रहे हैं- महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय से आदिवासी समाज और संस्कृति विषय पर शोध कर रहे शोधार्थी वैभव उपाध्याय .
आदिवासी शब्द दो शब्दों ‘आदि’ और ‘वासी’ से मिल कर बना है जिसका अर्थ ‘मूल निवासी’ होता है। भारत में लगभग 700 आदिवासी समूह व उप-समूह हैं। इनमें लगभग 80 प्राचीन आदिवासी जातियां हैं। भारत की जनसंख्या का 8.6% (10 करोड़) जितना एक बड़ा हिस्सा आदिवासियों का है।
आदिवासियों का इतिहास और परंपरा –
पुरातन संस्कृत ग्रंथों में आदिवासियों को ‘अत्विका’ नाम से संबोधित किया गया एवं महात्मा गांधी ने आदिवासियों को गिरिजन (पहाड़ पर रहने वाले लोग) से संबोधित किया। भारतीय संविधान में आदिवासियों के लिए ‘अनुसूचित जनजाति’ पद का उपयोग किया गया है।
किसी भी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में शामिल करने के निम्न आधार हैं- आदिम लक्षण, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक पृथक्करण, समाज के एक बड़े भाग से संपर्क में संकोच या पिछड़ापन।
आदिवासियों की देशज ज्ञान परंपरा काफी समृद्ध है। इसकी समृद्धि ही इसके शोषण का कई बार कारण भी बनती है। कई बार ऐसा हुआ कि बड़े औद्योगिक घराने के लोग आदिवासियों के देशज ज्ञान को प्राप्त करने के लिए उनके साथ छल करते हैं। इसके ढेर सारे उदाहरण संबंधित क्षेत्रों में मिल जाते हैं। वर्जिनियस झाझा की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय कमिटि का गठन 2013 में किया गया था। इस कमिटि के द्वारा जनजाति में मूल शब्द “जाति” को परिभाषित किया गया।
इस शोध-पत्र में यह बताया गया है कि कैसे विस्थापन के बाद आदिवासी जातियां अपने मूल व्यवसाय को छोड़ अन्य कार्यों में लग जाती हैं, जिस कारण से एक समय के पश्चात ये आदिवासी जातियां धीरे-धीरे अपने वास्तविक एवं एकाधिकार ज्ञान को भूलने लगती हैं।
देश के सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र का 20 प्रतिशत भाग आदिवासी प्रदेश है जहां अनुमानतः राष्ट्रीय संसाधन का 70 प्रतिशत खनिज, वन, वन्य प्राणी, जल संसाधन तथा सस्ता मानव संसाधन विद्यमान है, फिर भी यहां के लोग विस्थापित हो रहे हैं जिसके कारण वे अपने मूल एवं समृद्ध देशज ज्ञान से दूर हो जा रहे हैं।